ब्रह्माजी का रुद्रदेव से सती के साथ विवाह करने का अनुरोध, श्रीविष्णु द्वारा अनुमोदन और श्रीरुद्र की इसके लिये स्वीकृति
ब्रह्माजी कहते हैं – श्रीविष्णु आदि देवताओं द्वारा की हुई उस स्तुति को सुनकर सबकी उत्पत्ति के हेतुभूत भगवान् शंकर बड़े प्रसन्न हुए और जोर-जोर हँसने लगे। मुझ ब्रह्मा और विष्णु को अपनी-अपनी पत्नी के साथ आया हुआ देख महादेवजी ने हम लोगों से यथोचित वार्तालाप किया और हमारे आगमन का कारण पूछा।
रुद्र बोले – हे हरे! हे विधे! तथा हे देवताओ और महर्षियो! आज निर्भय होकर यहाँ अपने आने का ठीक-ठीक कारण बताओ। तुम लोग किस लिये यहाँ आये हो और कौन-सा कार्य आ पड़ा है? वह सब मैं सुनना चाहता हूँ; क्योंकि तुम्हारे द्वारा की गयी स्तुति से मेरा मन बहुत प्रसन्न है।
मुने! महादेवजी के इस प्रकार पुछ्ने पर भगवान् विष्णु की आज्ञा से मैंने वार्तालाप आरम्भ किया।
मुझ ब्रह्माने कहा – देवदेव! महादेव! करुणासागर! प्रभो! हम दोनों इन देवताओं और ऋषियों के साथ जिस उद्देश्य से यहाँ आये हैं, उसे सुनिये। वर्षभध्वज! विशेषतः आपके ही लिए हमारा वहाँ आगमन हुआ है; क्योंकि हम तीनों सहार्थी हैं – सृष्टिचक्र के संचालन रूप प्रयोजन की सिद्धि के लिये एक-दुसरे के सहायक हैं। सहार्थी को सदा परस्पर यथायोग्य सहयोग करना चाहिये अन्यथा यह जगत् टिक नहीं सकता। महेश्वर! कुछ ऐसे असुर उत्पन्न होंगे, जो मेरे हाथ से मारे जायँगे। कुछ भगवान् विष्णु के और कुछ आपके हाथों नष्ट होंगे। महाप्रभो! कुछ असुर ऐसे होंगे, जो आपके वीर्य से उत्पन्न हुए पुत्र के हाथ से ही मारे जा सकेंगे। प्रभो! कभी कोई विरले ही असुर ऐसे होंगे, जो माया के हाथों द्वारा वध को प्राप्त होंगे। आप भगवान् शंकर की कृपा से ही देवताओं को सदा उत्तम सुख प्राप्त होगा। घोर असुरों का विनाश करके आप जगत् को सदा स्वास्थ्य एवं अभय प्रदान करेंगे अथवा यह भी सम्भव है कि आपके हाथ से कोई भी असुर न मारे जायँ; क्योंकि आप सदा योगयुक्त रहते हुए राग-द्वेष से रहित हैं तथा एकमात्र दया करने में ही लगे रहते हैं। ईश! यदि वे असुर भी आराधित हों – आपकी दया से अनुगृहित होते रहें तो सृष्टि और पालन का कार्य कैसे चल सकता हैं। अतः वृषभध्वज! आपको प्रतिदिन सृष्टि आदि के उपयुक्त कार्य करने के लिए उद्यत रहना चाहिये। यदि सृष्टि, पालन और संहाररूप कर्म न करने हों तब तो हमने माया से जो भिन्न-भिन्न शरीर धारण किये हैं, उनकी कोई उपयोगिता अथवा औचित्य ही नहीं हैं। वास्तव में हम तीनों एक ही हैं, कार्य के भेद से भिन्न-भिन्न देह धारण करके स्थित हैं। यदि कार्यभेद न सिद्ध हो, तब तो हमारे रूपभेद का कोई प्रयोजन ही नहीं है। देव! एक ही परमात्मा महेश्वर तीन स्वरूपों में अभिव्यक्त हुए हैं। इस रूप भेद में उनकी अपनी माया ही कारण है। वास्तव में प्रभु स्वतन्त्र हैं। वे लीला के उद्देश्य से ही ये सृष्टि आदि कार्य करते हैं। भगवान् श्रीहरि उनके बायें अंग से प्रकट हुए हैं, मैं ब्रह्मा उनके दाये अंग से प्रकट हुआ हूँ और आप रुद्रदेव उन सदाशिव के हृदय से आविर्भूत हुए हैं; अतः आप ही शिव के पूर्ण रूप हैं। प्रभो! इस प्रकार अभिन्न रूप होते हुए भी हम तीन रूपों में प्रकट हैं। सनातनदेव! हम तीनों उन्हीं भगवान् सदाशिव और शिवा के पुत्र हैं, इस यथार्थ तत्त्व का आप हृदय से अनुभव कीजिये। प्रभो! मैं और श्रीविष्णु आपके आदेश से प्रसन्नतापूर्वक लोक की सृष्टि और पालन के कार्य कर रहे हैं तथा कार्य-कारणवश सपत्निक भी हो गये हैं; अतः आप भी विश्वहित के लिये तथा देवताओं को सुख पहुँचाने के लिये एक परम सुन्दरी रमणी को अपनी पत्नी बनाने के लिये ग्रहण करें। महेश्वर! एक बात और है, उसे सुनिये; मुझे पहले के वृतान्त का स्मरण हो आया है। पूर्वकाल में आपने ही शिवरूप से जो बात हमारे सामने कही थी, वही इस समय सुना रहा हूँ। आपने कहा था, 'ब्रह्मन्! मेरा ऐसा ही उत्तम रूप तुम्हारे अंगविशेष – ललाट से प्रकट होगा, जिसकी लोक में 'रुद्र' नाम से प्रसिद्धि होगी। तुम ब्रह्मा सृष्टिकर्ता हो गये, श्रीहरि जगत् का पालन करने वाले हुए और मैं सगुण रुद्ररूप होकर संहार करने वाला होऊँगा। एक स्त्री के साथ विवाह करके लोक के उत्तम कार्य की सिद्धि करूँगा।' अपनी कही हुई इस बात को याद करके आप अपनी ही पूर्व प्रतिज्ञा को पूर्ण कीजिये। स्वामिन्! आपका यह आदेश है कि मैं सृष्टि करूं, श्रीहरि पालन करें और आप स्वयं संहार के हेतु बनकर प्रकट हों; सो आप साक्षात् शिव ही संहारकर्ता के रूप में प्रकट हुए हैं। आपके बिना हम दोनों अपना-अपना कार्य करने में समर्थ नहीं हैं; अतः आप एक ऐसी कामिनी को स्वीकार करें, जो लोकहित के कार्य में तत्पर रहे। शम्भो! जैसे लक्ष्मी भगवान् विष्णु की और सावित्री मेरी सहधर्मिणी हैं, उसी प्रकार आप इस समय अपनी जीवनसहचरी प्राणवल्लभा को ग्रहण करें।
मेरी यह बात सुनकर लोकेश्वर महादेवजी के मुख पर मुस्कराहट दौड़ गयी। वे श्रीहरि के सामने मुझसे इस प्रकार बोले –
ईश्वर ने कहा – ब्रह्मन्! हरे! तुम दोनों मुझे सदा ही अत्यन्त प्रिय हो। तुम दोनों को देखकर मुझे बड़ा आनन्द मिलता है। तुम लोग समस्त देवताओं में श्रेष्ठ तथा त्रिलोकी के स्वामी हो। लोकहित के कार्य में मन लगाये रहने वाले तुम दोनों का वचन मेरी दृष्टि में अत्यन्त गौरवपूर्ण हैं। किंतु सुरश्रेष्ठ गण! मेरे लिये विवाह करना उचित नहीं होगा; क्योंकि मैं तपस्या में संलग्न रहकर सदा संसार से विरक्त ही रहता हूँ और योगी के रूप में मेरी प्रसिद्धि है। जो निवृत्ति के सुन्दर मार्ग पर स्थित है, अपने आत्मा में ही रमण करता-आनन्द मानता है, निरंजन (माया से निर्लिप्त) है, जिसका शरीर अवधूत (दिगम्बर) है, जो ज्ञानी, आत्मदर्शी और कामना से शुन्य है, जिसके मन में कोई विकार नहीं है, जो भोगों से दूर रहता है तथा जो सदा अपवित्र और अमंगलवेशधारी है, उसे संसार में कामिनी से क्या प्रयोजन है – यह इस समय मुझे बताओ तो सही! मुझे तो सदा केवल योग में लगे रहने पर ही आनन्द आता है। ज्ञानहीन पुरुष ही योग को छोड़कर भोग को अधिक महत्व देता है। संसार में विवाह करना पराये बन्धन में बँधना है। इसे बहुत बड़ा बन्धन समझना चाहिये। इसलिये मैं सत्य-सत्य कहता हूँ, विवाह के लिये मेरे मन में थोड़ी-सी भी अभिरुचि नहीं है। आत्मा ही अपना उत्तम अर्थ या स्वार्थ है। उसका भली-भांति चिन्तन करने के कारण मेरी लौकिक स्वार्थ में प्रवुत्ति नहीं होती। तथापि जगत् के हित के लिये तुमने जो कुछ कहा है, उसे करूँगा। तुम्हारे वचन को गरिष्ठ मानकर अथवा अपनी कही हुई बात को पूर्ण करने के लिये मैं अवश्य विवाह करूँगा; क्योंकि मैं सदा भक्तों के वश में रहता हूँ। परंतु मैं जैसी नारी को प्रिय पत्नी के रूप में ग्रहण करूँगा और जैसी शर्त के साथ करूँगा, उसे सुनो। हरे! ब्रह्मन्! मैं जो कुछ कहता हूँ, वह सर्वथा उचित ही है। जो नारी मेरे तेज को विभागपूर्वक ग्रहण कर सके, जो योगिनी तथा इच्छानुसार रूप धारण करने वाली हो, उसी को तुम पत्नी बनाने की लिये मुझ बताओ। जब मैं योग में तत्पर रहूँ, तब उसे भी योगिनी बनकर रहना होगा और जब मैं कामासक्त हौऊँ, तब उसे भी कामिनी के रूप में ही मेरे पास रहना होगा। वेदवेत्ता विद्वान् जिन्हें अविनाशी बतलाते हैं, उन ज्योंतिःस्वरूप सनातन शिव का मैं सदा चिन्तन करता हूँ और करता रहूँगा। ब्रह्मन्! उन सदाशिव के चिन्तन में जब मैं न लगा हौऊँ तभी उस भामिनी के साथ मैं समागम कर सकता हूँ। जो मेरे शिव चिन्तन में विघ्न डालनेवाली होगी, वह जीवित नहीं रह सकती, उसे अपने जीवन से हाथ धोना पड़ेगा। तुम, विष्णु और मैं तीनों ही ब्रह्मस्वरूप शिव के अंशभूत हैं। अतः महाभागगण! हमारे लिये उनका निरन्तर चिन्तन करना ही उचित है। कमलासन! उनके चिन्तन के लिये मैं बिना विवाह के भी रह लूँगा। (किंतु उनका चिन्तन छोड़कर विवाह नहीं करूँगा।) अतः तुम मुझे ऐसी पत्नी प्रदान करो, जो सदा मेरे कर्म के अनुकूल चल सके। ब्रह्मन्! उसमें भी मेरी एक और शर्त है, उसे तुम सुनो; यदि उस स्त्री का मुझ पर और मेरे वचन पर अविश्वास होगा तो मैं उसे त्याग दूँगा।
उनकी यह बात सुनकर मैंने और श्रीहरि ने मंद मुसकान के साथ मन-ही-मन प्रसन्नता का अनुभव किया; फिर मैं विनम्र होकर बोला – 'नाथ! महेश्वर! प्रभो! आपने जैसी नारी की खोज आरम्भ की है, वैसी ही स्त्री के विषय में मैं आपको प्रसन्नतापूर्वक कह रहा हूँ। साक्षात् सदाशिव की धर्मपत्नी जो उमा हैं, वे ही जगत् का कार्य सिद्ध करने के लिये भिन्न-भिन्न रूप में प्रकट हुई हैं। प्रभो! सरस्वती और लक्ष्मी – ये दो रूप धारण करके वे पहले ही यहाँ आ चुकी हैं। इनमें लक्ष्मी तो श्रीविष्णु की प्राणवल्लभा हो गयीं और सरस्वती मेरी। अब हमारे लिये वे तीसरा रूप धारण करके प्रकट हुई हैं। प्रभो! लोकहित का कार्य करने की इच्छावाली देवी शिवा दक्षपुत्री के रूप में अवतीर्ण हुई हैं। उनका नाम सती है। सती ही ऐसी भार्या हो सकती हैं, जो सदा आपके लिये हित्तकारिणी हो। देवेश! महातेजस्विनी सती आपके लिये, दृढ़तापूर्वक कठोर व्रत का पालन करती हुई तपस्या कर रही हैं। महेश्वर! आप उन्हें वर देने के लिये जाइये, कृपा कीजिये और बड़ी प्रसन्नता के साथ उन्हें उनकी तपस्या के अनुरूप वर देकर उनके साथ विवाह कीजिये। शंकर! भगवान् विष्णु की, मेरी तथा इन सम्पूर्ण देवताओं की यही इच्छा है। आप अपनी शुभ दृष्टि से हमारी इस इच्छा को पूर्ण कीजिये, जिससे हम आदरपूर्वक इस उत्सव को देख सकें। ऐसा होने से तीनों लोकों में सुख देने वाला परम मंगल होगा और सबकी सारी चिन्ता मिट जायगी, इसमें संशय नहीं है।'
तदनन्तर मेरी बात समाप्त होने पर लीला-विग्रह धारण करने वाले भक्तवत्सल महेश्वर से मधुसुदन अच्युत ने इसी का समर्थन किया।
तब भक्तवत्सल भगवान् शिव ने हँसकर कहा, 'बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा।' उनके ऐसा कहने पर हम दोनों उनसे आज्ञा ले अपनी पत्नी तथा देवताओं और मुनियों के साथ अत्यन्त प्रसन्न हो अपने अभीष्ट स्थान को चले आये।
(अध्याय १६)