सती को शिव से वर की प्राप्ति तथा भगवान् शिव का ब्रह्माजी को शिव के पास भेजकर सीता का वरण करना

ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! उधर सती ने अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को उपवास करके भक्तिभाव से सर्वेश्वर शिव का पूजन किया। इस प्रकार नन्दाव्रत पूर्ण होने पर नवमी तिथि को दिन में ध्यान मग्न हुई सति को भगवान् शिव ने प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उनका श्रीविग्रह सर्वांग सुन्दर एवं गौर वर्ण का था। उनके पाँच मुख थे और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र थे। भाल देश में चन्द्रमा शोभा दे रहा था। उनका चित्त प्रसन्न था और कण्ठ में नील चिह्न दृष्टिगोचर होता था। उनके चार भुजाएँ थीं। उन्होंने हाथों में त्रिशूल, ब्रह्मकपाल, वर तथा अभय धारण कर रखे थे। भस्मय अंगराग से उनका सारा शरीर उद्भासित हो रहा था। गंगाजी उनके मस्तक की शोभा बढ़ा रही थीं। उनके सभी अंग बड़े मनोहर थे। वे महान् लावण्य के धाम जान पड़ते थे। उनके मुख करोड़ों चन्द्रमाओं के समान प्रकाशमान तथा आह्लादजनक थे। उनकी अंगकान्ति करोड़ों कामदेवों को तिरस्कृत कर रही थी तथा उनकी आकृति स्त्रियों के लिए सर्वथा ही प्रिय थी। सती ने ऐसे सौंदर्य-माधुर्य से युक्त प्रभु महादेवजी को प्रत्यक्ष देखकर उनके चरणों की वन्दना की। उस समय उनका मुख लज्जा से झुका हुआ था। तपस्या के पुंज का फल प्रदान करने वाले महादेवजी उन्हीं के लिए कठोर व्रत धारण करने वाली सती को पत्नी बनाने के लिए प्राप्त करने की इच्छा रखते हुए भी उनसे इस प्रकार बोले।

महादेवजी ने कहा – उत्तम व्रत का पालन करने वाली दक्षनन्दिनि! मैं तुम्हारे इस व्रत से बहुत प्रशन्न हूं। इसलिए कोई वर माँगो। तुम्हारे मन को जो अभीष्ट होगा, वही वर मैं तुम्हें दूँगा।

ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! जगदीश्वर महादेवजी यद्यपि सती के मनोभाव को जानते थे तो भी उनकी बात सुनने के लिए बोले 'कोई वर माँगो' परंतु सती लज्जा के अधीन हो गई थीं; इसलिए उनके हृदय में जो बात थी, उसे वे स्पष्ट शब्दों में कह न सकीं। उनका जो अभीष्ट मनोरथ था, वह लज्जा से आच्छादित हो गया। प्राणवल्लभ शिव का प्रिय वचन सुनकर सती अत्यन्त प्रेम में मग्न हो गयीं। इस बात को जानकर भक्तवत्सल भगवान् शंकर बड़े प्रसन्न हुए और शीघ्रतापूर्वक बारंबार कहने लगे – 'वर मांगो, वर मांगो'। सत्पुरुषों के आश्रय-भूत अन्तर्यामी शम्भु सती की भक्ति के वशीभूत हो गए थे। तब सती ने अपनी लज्जा को रोककर महादेवजी से कहा – 'वर देने वाले प्रभो! मुझे मेरी इच्छा के अनुसार ऐसा वर दीजिये जो टल न सके। भक्तवत्सल भगवान् शंकर ने देखा सती अपनी बात पूरी नहीं कह पा रही हैं, तब वे स्वयं ही उनसे बोले – 'देवी! तुम मेरी भार्या हो जाओ।' अपने अभीष्ट फल को प्रकट करनेवाले उनके इस वचन को सुनकर आनन्दमग्न हुई सती चुपचाप खड़ी रह गयीं; क्योंकि वे मनोवांछित वर प् चुकी थीं। फिर दक्षकन्या प्रसन्न हो दोनों हाथ जोड़ मस्तक झुका भक्तवत्सल शिव से बारंबार कहने लगीं।

सती बोलीं – देवाधिदेव महादेव! प्रभो! जगत्पते! आप मेरे पिता को कहकर वैवाहिक विधि से मेरा पाणिग्रहण करें।

ब्रह्माजी कहते हैं – नाराद! सती की यह बात सुनकर भक्तवत्सल महेश्वर ने प्रेम से उनकी ओर देखकर कहा – 'प्रिये! ऐसा ही होगा।' तब दक्षकन्या सती भी भगवान् शिव को प्रणाम करके भक्तिपूर्वक विदा माँग – जाने की आज्ञा प्राप्त करके मोह और आनन्द से युक्त हो माता के पास लौट गयीं। इधर भगवान् शिव भी हिमालय पर अपने आश्रम में प्रवेश करके दक्षकन्या सती के वियोग से कुछ कष्ट का अनुभव करते हुए उन्हीं का चिन्तन करने लगे। देवर्षे! फिर मन को एकाग्र करके लौकिक गति का आश्रय ले भगवान् शंकर ने मन-ही-मन मेरा स्मरण किया। त्रिशूलधारी महेश्वर के स्मरण करने पर उनकी सिद्धि से प्रेरित हो मैं तुरंत ही उनके सामने जा खड़ा हुआ। तात! हिमालय के शिखर पर जहाँ सती के वियोग का अनुभव करनेवाले महादेवजी विद्वमान थे, वहीँ मैं सरस्वती के साथ उपस्थित हो गया। देवर्षे! सरस्वती सहित मुझे आया देख सती के प्रेम पाश में बँधे हुए शिव उत्सुकतापूर्वक बोले।

शंभू ने कहा – ब्रह्मन्। मैं जबसे विवाह के कार्य में स्वार्थबुद्धि कर बैठा हूँ, तब से अब मुझे इस स्वार्थ में ही स्वत्व-सा प्रतीत होता है। दक्षकन्या सती ने बड़ी भक्ति से मेरी आराधना की है। उसके नन्दाव्रत के प्रभाव से मैंने उसे अभीष्ट वर देने की घोषणा की। ब्रह्मन्! तब उसने मुझसे यह वर मांगा कि 'आप मेरे पति हो जाइए।' यह सुनकर सर्वथा संतुष्ट हो मैंने भी कह दिया कि 'तुम मेरी पत्नी हो जाओ।' तब दक्षायणी सती मुझसे बोलीं – 'जगत्पते! आप मेरे पिता को सूचित करके वैवाहिक विधि से मुझे ग्रहण करें।' ब्रह्मन्! उसकी भक्ति से संतोष होने के कारण मैंने उसका वह अनुरोध भी स्वीकार कर लिया। विधातः! तब सती अपनी माता के घर चली गई और मैं यहाँ चला आया। इसलिए अब तुम मेरी आज्ञा से दक्ष के घर जाओ और ऐसा यत्न करो, जिससे प्रजापति दक्ष शीघ्र ही मुझे अपनी कन्या का दान कर दें!

उनके इस प्रकार आज्ञा देनेपर मैं कृतकृत्य और प्रसन्न हो गया तथा उन भक्तवत्सल विश्वनाथ से इस प्रकार बोला।

मुझ ब्रह्मा ने कहा – भगवान्! शम्भो! आपने जो कुछ कहा है उस पर भलीभाँति विचार करके हम लोगों ने पहले ही उसे सुनिश्चित कर दिया है। वृषभध्वज! इसमें मुख्यतः देवताओं का और मेरा भी स्वार्थ है। दक्ष स्वयं ही आपको अपनी पुत्री प्रदान करेंगे, किंतु आपकी आज्ञा से मैं भी उनके सामने आपका संदेश कह दूँगा।

सर्वेश्वर महाप्रभु महादेवजी से ऐसा कहकर मैं अत्यन्त वेगशाली रथ के द्वारा दक्ष के घर जा पहुँचा।

नारदजी ने पुछा – वक्ताओं में श्रेष्ठ महाभाग! विधातः! बताइये – जब सती घर पर लौटकर आयीं, तब दक्ष ने उनके क्या किया?

ब्रह्माजी ने कहा – तपस्या करके मनोवांछित वर पाकर सती जब घर को लौट गयीं, तब वहाँ उन्होंने माता-पिता को प्रणाम किया। सती ने अपनी सखी के द्वारा माता-पिता को तपस्या-सम्बन्धी सब समाचार कहलवाया। सखी ने यह भी सूचित किया कि 'सती को महेश्वर से वर की प्राप्ति हुई है, वे सती के भक्ति से बहुत संतुष्ट हुए हैं।' सखी के मुँह से सारा वृतान्त सुनकर माता-पिता को बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ और उन्होंने महान् उत्सव किया। उदारचेता दक्ष और महामनस्विनी विरिणी ने ब्रह्मणों को उनकी इच्छा के अनुसार द्रव्य दिया तथा अन्यान्य अंधों और दीनों को भी धन बाँटा। प्रसन्नता बढ़ानेवाली आपकी पुत्री को हृदय से लगाकर माता विरिणी ने उसका मस्तक सूंघा और आनन्दमग्न होकर उसकी बारंबार प्रशंसा की। तदनन्तर कुछ काल व्यतीत होनेपर धर्मज्ञों में श्रेष्ठ दक्ष इस चिन्ता में पड़े कि 'मैं अपनी इस पुत्री का विवाह भगवान् शंकर के साथ किस तरह करूँ? महादेवजी प्रसन्न होकर आये थे, पर वे तो चले गए। अब मेरी पुत्री के लिए वे फिर कैसे यहाँ आएंगे? यदि किसी को शीघ्र ही भगवान् शिव के निकट भेजा जाय तो यह भी उचित नहीं जान पड़ता; क्योंकि यदि वे इस तरह अनुरोध करने पर भी मेरी पुत्री को ग्रहण न करें तो मेरी याचना निष्फल हो जाएगी।'

इस प्रकार की चिन्ता में पड़े हुए प्रजापति दक्ष के सामने मैं सरस्वती के साथ सहसा उपस्थित हुआ। मुझ पिता को आया देख दक्ष प्रणाम करके विनीत भाव से खड़े हो गये। उन्होंने मुझ स्वयंभू को यथायोग्य आसान दिया। तदनन्तर दक्ष ने जब मेरे आने का कारण पूछा, तब मैंने सब बातें बताकर उनसे कहा – 'प्रजापते! भगवान् शंकर ने तुम्हारी पुत्री को प्राप्त करने के लिए निश्चय ही मुझे तुम्हारे पास भेजा है; इस विषय में जो श्रेष्ठ कृत्य हो, उसका निश्चय करो। जैसे सती ने नाना प्रकार के भावों से तथा सात्विक व्रत के द्वारा भगवान् शिव की आराधना की है, उसी तरह वे भी सती की आराधना करते हैं। इसलिए दक्ष! भगवान् शिव के लिए ही संकल्पित एवं प्रकट हुई अपनी इस पुत्री को तुम अविलम्ब उनकी सेवा में सौंप दो, इससे तुम कृतकृत्य हो जाओगे। मैं नारद के साथ जाकर उन्हें तुम्हारे घर ले आऊंगा। फिर तुम उन्हीं के लिए उत्पन्न हुई अपनी यह पुत्री उनके हाथ में दे दो।'

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! मेरी यह बात सुनकर मेरे पुत्र दक्ष को बड़ा हर्ष हुआ। वे अत्यन्त प्रसन्न होकर बोले – 'पिताजी! ऐसा ही होगा।' मुने! तब मैं अत्यन्त हर्षित हो वहाँ से उस स्थान को लौटा, जहाँ लोक कल्याण में तत्पर रहने वाले भगवान् शिव बड़ी उत्सुकता से मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। नारद! मेरे लौट आने पर स्त्री और पुत्री सहित प्रजापति दक्ष भी पूर्णकाम हो गये। वे इतने संतुष्ट हुए, मनो अमृत पीकर अघा गए हों।

(अध्याय १७)