सती का प्रश्न तथा उसके उत्तर में भगवान् शिव द्वारा ज्ञान एवं नवधा भक्ति के स्वरूप का विवेचन

कैलास तथा हिमालय पर्वत पर श्रीशिव और सती के विविध विहारों का विस्तारपूर्वक वर्णन करने के पश्चात् ब्रह्माजी ने कहा – मुने! एक दिन की बात है, देवी सती एकान्त में भगवान् शंकर से मिलीं और उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़ खड़ी हो गयीं। प्रभु शंकर को पूर्ण प्रसन्न जान नमस्कार करके विनीत भाव से खड़ी हुई दक्षकुमारी सती भक्तिभाव से अंजलि बाँधे बोली।

सती ने कहा – देवदेव महादेव! करुणासागर! प्रभो! दीनोद्धारपरायण! महायोगिन्! मुझ पर कृपा कीजिये। आप परम पुरुष हैं। सबके स्वामी हैं। रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण से परे हैं। निर्गुण भी हैं, सगुण भी हैं। सबके साक्षी, निर्विकार और महाप्रभु हैं। हर! मैं धन्य हूँ, जो आपकी कामिनी और आपके साथ सुन्दर विहार करने वाली आपकी प्रिया हुई। स्वामिन्! आप अपनी भक्तवत्सलता से ही प्रेरित होकर मेरे पति हुए हैं। नाथ! मैंने बहुत वर्षों तक आप के साथ विहार किया है। महेशान! इससे मैं बहुत संतुष्ट हुई हूँ और अब मेरा मन उधर से हट गया है। देवेश्वर हर! अब तो मैं उस परम तत्त्व का ज्ञान प्राप्त करना चाहती हूँ, जो निरतिशय सुख प्रदान करने वाला है तथा जिसके द्वारा जीव संसार-दुःख से अनायास ही उद्धार पा सकता है। नाथ! जिस कर्म का अनुष्ठान करके विषयी जीव भी परम पद को प्राप्त कर ले और संसार बन्धन में न बँधे, उसे आप बताइये, मुझ पर कृपा कीजिये।

ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! इस प्रकार आदिशक्ति महेश्वरी सती ने केवल जीवों के उद्धार के लिये जब उत्तम भक्तिभाव के साथ भगवान् शंकर से प्रश्न किया, तब उनके उस प्रश्न को सुनकर स्वेच्छा से शरीर धारण करने वाले तथा योग के द्वारा भोग से विरक्त चित्तवाले स्वामी शिव ने अत्यन्त प्रसन्न होकर सती से इस प्रकार कहा।

शिव बोले – देवि! दक्षनन्दिनी! महेश्वरि! सुनो; मैं उसी परमतत्त्व का वर्णन करता हूँ, जिससे वासनाबद्ध जीव तत्काल मुक्त हो सकता है। परमेश्वरि! तुम विज्ञान को परमतत्त्व जानो। विज्ञान वह है, जिसके उदय होने पर, 'मैं ब्रह्म हूँ' ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाता है, ब्रह्म के सिवा दूसरी किसी बस्तु का स्मरण नहीं रहता तथा उस विज्ञानी पुरुष की बुद्धि सर्वथा शुद्ध हो जाती है। प्रिये! वह विज्ञान दुर्लभ है। इस त्रिलोकी में उसका ज्ञाता कोई विरला ही होता है। वह जो और जैसा भी है, सदा मेरा स्वरूप ही है, साक्षात्परात्पर ब्रह्म है। उस विज्ञान की माता है मेरी भक्ति, जो भोग और मोक्ष रूप फल प्रदान करने वाली है। वह मेरी कृपा से सुलभ होती है। भक्ति नौ प्रकार की बतायी गयी है। सती! भक्ति और ज्ञान में कौई भेद नहीं है। भक्त और ज्ञानी दोनों को ही सदा सुख प्राप्त होता है। जो भक्ति का विरोधी है, उसे ज्ञान की प्राप्ति नहीं ही होती। देवि! मैं सदा भक्त के अधीन रहता हूँ और भक्ति के प्रभाव से जातिहीन नीच मनुष्यों के घरों में भी चला जाता हूँ, इसमें संशय नहीं है। [भक्तौ ज्ञाने न भेदो हि तत्कर्तु सर्वदा सुखम्। विज्ञानं न भवत्येव सति भक्तिविरोधिनः।। भक्ताधीनः सदाहं वै तत्प्रभावाद् गृहेष्वपि। नीचानां जातिहीनानां यामि देवि न संशयः।। शिवपुराण रुद्रसंहिता १६-१७] सती! वह भक्ति दो प्रकार की है – सगुणा और निर्गुणा। जो वैधी (शास्त्रविधि से प्रेरित) और स्वाभावि की (हृदय के सहज अनुराग से प्रेरित) भक्ति होती है, वह श्रेष्ठ है तथा इससे भिन्न जो कामनामूलक भक्ति होती है, वह निम्नकोटि की मानी गयी है। पूर्वोक्त सगुणा और निर्गुणा – ये दोनों प्रकार की भक्तियाँ नैष्ठिकी आर अनैष्ठिकी के भेद से दो भेदवाली हो जाती हैं। नैष्ठिकी भक्ति छः प्रकार की जाननी चाहिये और अनैष्ठिकी एक ही प्रकार की कही गयी है। विद्वान् पुरुष विहिता और अविहिता आदि भेद से उसे अनेक प्रकार की मानते हैं। इस द्विविध भक्तियों के बहुत-से भेद-प्रभेद होने के कारण इनके तत्त्व का अन्यत्र वर्णन किया गया है। प्रिये! मुनियों ने सगुणा और निर्गुणा दोनों भक्तियों के नौ अंग बताये हैं। दक्षनन्दिनी! मैं उन नवों अंगों का वर्णन करता हूँ, तुम प्रेम से सुनो। देवि! श्रवण, कीर्तन, स्मरण, सेवन, दास्य, अर्चन, सदा मेरा वन्दन, सख्य और आत्मसमर्पण – ये विद्वानों ने भक्ति के नौ अंग माने हैं। [श्रवणं कीर्तनं चैव स्मरणं सेवनं तथा। दास्यं तथार्चनं देवि वन्दनं मम सर्वदा। सख्यमात्मार्पणं चेति नवांगानि विदुर्बुधाः।।] शिवे! भक्ति के उपांग भी बहुत-से बताये गये हैं।

देवि! अब तुम मन लगाकर मेरी भक्ति के पूर्वोक्त नवों अंगों के पृथक्-पृथक् लक्षण सुनो; वे लक्षण भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। जो स्थिर आसन से बैठ कर तन-मन आदि से मेरी कथा-कीर्तन आदि का नित्य सम्मान करता हुआ प्रसन्नतापूर्वक अपने श्रवणपुटों से उसके अमृतोपम रस का पान करता है, उसके इस साधन को 'श्रवण' कहते हैं। जो ह्रदयाकाश के द्वारा मेरे दिव्य जन्म-कर्मों का चिन्तन करता हुआ प्रेम से वाणी द्वारा उनका उच्चस्वर से उच्चारण करता है, उसके इस भजन-साधन को 'कीर्तन' कहते हैं। देवि! मुझ नित्य महेश्वर को सदा और सर्वत्र व्यापक जानकर जो संसार में निरन्तर निर्भय रहता हैं, उसी को 'स्मरण' कहा गया है। अरुणोदय से लेकर हर समय सेव्य की अनुकूलता का ध्यान रखते हुए हृदय और इन्द्रियों से जो निरन्तर सेवा की जाती है, वही 'सेवन' नामक भक्ति है। अपने को प्रभु का किंकर समझकर ह्र्दयामृत के भोग से स्वामी का सदा प्रिय सम्पादन करना 'दास्य' कहा गया है। अपने धन-वैभव के अनुसार शास्त्रीय विधि से मुख परमात्मा को सदा पाद्य आदि सोलह उपचारों का जो समर्पण करना है, उसे 'अर्चन' कहते हैं। मन से ध्यान और वाणी से वन्दनात्मक मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक आठो अंगों से भूतल का स्पर्श करते हुए जो इष्टदेव को नमस्कार किया जाता है, उसे 'वन्दन' कहते हैं। ईश्वर मंगल या अमंगल जो कुछ भी करता है, वह सब मेरे मंगल के लिये ही है। ऐसा दृढ़ विश्वास रखना 'सख्य' भक्ति का लक्षण है। [मंगलामंगलं यद् यत् करोतीतीश्वरो हि मे। सर्वं तन्मंगलायेति विश्वासः सख्यलक्षणम्।। शिवपुराण रुद्रसंहिता २३-३२] देह आदि जो कुछ भी अपनी कही जाने वाली वस्तु है, वह सब भगवान् की प्रसन्नता के लिये उन्हीं को समर्पित करके अपने निर्वाह के लिये भी कुछ बचाकर न रखना अथवा निर्वाह की चिन्ता से भी रहित हो जाना 'आत्मसमर्पण' कहलाता है। ये मेरी भक्ति के नौ अंग हैं, जो भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। इनसे ज्ञान का प्राकट्य होता है तथा ये सब साधन मुझे अत्यन्त प्रिय हैं। मेरी भक्ति के बहुत-से उपांग भी कहे गये हैं, जैसे बिल्व आदि का सेवन आदि। इनको विचार से समझ लेना चाहिये।

प्रिये! इस प्रकार मेरी सांगोपांग भक्ति सबसे उत्तम है। वह ज्ञान-वैराग्य की जननी है और मुक्ति इसकी दासी है। यह सदा सब साधनों से ऊपर विराजमान है। इसके द्वारा सम्पूर्ण कर्मों के फल की प्राप्ति होती है। यह भक्ति मुझे सदा तुम्हारे समान ही प्रिय है। जिसके चित्त में नित्य-निरन्तर यह भक्ति निवास करती है, वह साधक मुझे अत्यन्त प्यारा है। देवेश्वरि! तीनों लोकों और चारों युगों में भक्ति के समान दूसरा कोई सुखदायक मार्ग नहीं है। कलियुग में तो यह विशेष सुखद एवं सुविधाजनक है। [त्रैलोक्ये भक्तिसदृशः पन्था नास्ति सुखावहः। चतुर्युगेषु देवेशि कलौ तु सुविशेषतः।। शिवपुराण रुद्रसंहिता ३८] देवि! कलियुग में प्रायः ज्ञान और वैराग्य के कोई ग्राहक नहीं हैं। इसलिये वे दोनों वृद्ध, उत्साहशून्य और जर्जर हो गये हैं। परंतु भक्त कलियुग में तथा अन्य सब युगों में भी प्रत्यक्ष फल देने वाली है। भक्ति के प्रभाव से मैं सदा उसके वश में रहता हूँ, इसमें संशय नहीं है। संसार में जो भक्तिमान पुरुष है, उसकी मैं सदा सहायता करता हूँ, उसके सारे विघ्नों को दूर हटाता हूँ। उस भक्त का जो शत्रु होता है, वह मेरे लिये दंडनीय है – इसमें भी संशय नहीं है। [यो भक्तिमान्पुमाँल्लोके सदाहं तत्सहायकृत्। विघ्नहर्ता रिपुस्तस्य दण्ड्यो नात्र च संशयः।। शिवपुराण रुद्रसंहिता ४१] देवि! मैं अपने भक्तों का रक्षक हूँ। भक्त की रक्षा के लिये ही मैंने कुपित हो अपने नेत्रजनित अग्नि से काल को भी दग्ध कर डाला था। प्रिये! भक्त के लिये मैं पूर्वकाल में सूर्य पर भी अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा था और शूल लेकर मैंने उन्हें मार भगाया था। देवि! भक्त के लिये मैंने सैन्य सहित रावण को भी क्रोधपूर्वक त्याग दिया और उसके प्रति कोई पक्षपात नहीं किया। सती! देवेश्वरि! बहुत कहने से क्या लाभ, मैं सदा ही भक्त के अधीन रहता हूँ और भक्ति करने वाले पुरुष के अत्यन्त वश में हो जाता हूँ।

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! इस प्रकार भक्त का महत्व सुनकर दक्षकन्या सती को बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक भगवान् शिव को मन-ही-मन प्रणाम किया। मुने! सती देवी ने पुनः भक्तिकाण्ड विषयक शास्त्र के विषय में भक्तिपूर्वक पूछा। उन्होंने जिज्ञासा की कि जो लोक में सुखदायक तथा जीवों के उद्धार के साधनों का प्रतिपादक है, वह शास्त्र कौन-सा है। उन्होंने यन्त्र-मन्त्र, शास्त्र, उसके माहात्म्य तथा अन्य जीवोंद्धारक धर्ममय साधनों के विषय में विशेष रूप से जानने की इच्छा प्रकट की। सती के इस प्रश्न को सुनकर शंकरजी के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने जीवों के उद्धार के लिये सब शास्त्रों का प्रेमपूर्वक वर्णन किया। महेश्वर ने पाँचों अंगोंसहित तन्त्रशास्त्र, यन्त्रशास्त्र तथा भिन्न-भिन्न देवेश्वरों की महिमा का वर्णन किया। मुनीश्वर! इतिहास-कथा सहित उन देवताओं के भक्तों की महिमा का, वर्णाश्रम धर्मों का तथा राजधर्मों का भी निरूपण किया। पुत्र और स्त्री के धर्म की महिमा का, कभी नष्ट न होने वाले वर्णाश्रम धर्म का और जीवों को सुख देने वाले वैद्यक शास्त्र तथा ज्योतिष शास्त्र का भी वर्णन किया। महेश्वर ने कृपा करके उत्तम सामुद्रिक शास्त्र का तत्वतः वर्णन किया। इस प्रकार लोकोपकार करने के लिये सद्गुण सम्पन्न शरीर धारण करनेवाले, त्रिलोक-सुखदायक और सर्वज्ञ सती-शिव हिमालय के कैलास शिखर पर तथा अन्यान्य स्थानों में नाना प्रकार की लीलाएं करते थे। ये दोनों दम्पति साक्षात् परब्रह्म स्वरूप हैं।

(अध्याय २१ - २३)