प्रयाग में समस्त महात्मा मुनियों द्वारा किये गये यज्ञ में दक्ष का भगवान् शिव को तिरस्कारपूर्वक शाप देना तथा नन्दी द्वारा ब्राह्मण कुल को शाप-प्रदान, भगवान् शिव का नन्दी को शान्त करना
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! पूर्वकाल में समस्त महात्मा मुनि प्रयाग में एकत्र हुए थे। वहाँ सम्मिलित हुए उन सब महात्माओं का विधि-विधान से एक बहुत बड़ा यज्ञ हुआ। उस यज्ञ में सनकादि सिद्धगण, देवर्षि, प्रजापति, देवता तथा ब्रह्म का साक्षात्कार करनेवाले ज्ञानी भी पधारे थे। मैं भी मूर्तिमान् महातेजस्वी निगमों और आगमों से युक्त हो सपरिवार वहाँ गया था। अनेक प्रकार के उत्सवों के साथ वहाँ उनका विचित्र समाज जुटा था। नाना शास्त्रों के सम्बन्ध में ज्ञान-चर्चा एवं वाद-विवाद हो रहे थे। मुने! उसी अवसर पर सती तथा पार्षदों के साथ त्रिलोकहितकारी, सृष्टिकर्ता एवं सबके स्वामी भगवान् रुद्र भी वहाँ आ पहुँचे। भगवान् शिव को आया देख सम्पूर्ण देवताओं, सिद्धों तथा मुनियों ने और मैंने भी भक्तिभाव से उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति की। फिर शिव की आज्ञा पाकर सब लोग प्रसन्नतापूर्वक यथास्थान बैठ गये। भगवान् का दर्शन पाकर सब लोग संतुष्ट थे और अपने सौभाग्य की सराहना करते थे। इसी बीच में प्रजापतियों के भी पति प्रभु दक्ष, जो बड़े तेजस्वी थे, अकस्मात् घूमते हुए प्रसन्नतापूर्वक वहाँ आये। वे मुझे प्रणाम करके मेरी आज्ञा ले वहाँ बैठे। दक्ष उन दिनों समस्त ब्रह्माण्ड के अधिपति बनाये गये थे, अतएव सबके द्वारा सम्माननीय थे। परंतु अपने इस गौरवपूर्ण पद को लेकर उनके मन में बड़ा, अहंकार था; क्योंकि वे तत्त्वज्ञान से शून्य थे। उस समय समस्त देवर्षियों ने नतमस्तक हो स्तुति और प्रणाम के द्वारा दोनों हाथ जोड़कर उत्तम तेजस्वी दक्ष का आदर-सत्कार किया। परंतु जो नाना प्रकार के लीलाविहार करनेवाले, सबके स्वामी और उत्कृष्ट लीलाकारी स्वतन्त्र परमेश्वर हैं, उन महेश्वर ने उस समय दक्ष को मस्तक नहीं झुकाया। वे अपने आसन पर बैठे ही रह गये (खड़े होकर दक्ष का स्वागत नहीं किया)। महादेवजी को वहाँ मस्तक झुकाते न देख मेरे पुत्र प्रजापति दक्ष मन-ही-मन अप्रसन्न हो गये। उन्हें रुद्र पर सहसा क्रोध हो आया, वे ज्ञानशून्य तथा महान् अहंकारी होने के कारण महाप्रभु रुद्र को क्रूर दृष्टि से देखकर सबको सुनाते हुए उच्च स्वर से कहने लगे।
दक्ष ने कहा – ये सब देवता, असुर, श्रेष्ठ ब्राह्मण तथा ऋषि मुझे विशेष रूप से मस्तक झुकाते हैं। परंतु वह जो प्रेतों और पिशाचों से घिरा हुआ महामनस्वी बनकर बैठा है, वह दुष्ट मनुष्य के समान क्यों मुझे प्रणाम नहीं करता? श्मशान में निवास करने वाला यह निर्लज्ज जो मुझे इस समय प्रणाम नहीं करता, इसका क्या कारण है? इसके वेदोक्त कर्म लुप्त हो गये हैं। यह भूतों और पिशाचों से सेवित हो मतवाला बना फिरता हैं और शास्त्रीय विधि की अवहेलना करके निति मार्ग को सदा कलंकित किया करता है। इसके साथ रहनेवाले या इसका अनुसरण करने वाले लोग पाखण्डी, दुष्ट, पापाचारी तथा ब्राह्मण को देखकर उद्दण्डतापूर्वक उसकी निन्दा करने वाले होते हैं। यह स्वयं ही स्त्री में आसक्त रहनेवाला तथा रतिकर्म में ही दक्ष है। अतः मैं इसे शाप देने को उद्यत हुआ हूँ। यह रुद्र चारों वर्णों से पृथक् और कुरूप है। इसे यज्ञ से बहिष्कृत कर दिया जाय। यह श्मशान में निवास करनेवाला तथा उत्तम कुल और जन्म से हीन है। इसलिये देवताओं के साथ यह यज्ञ में भाग न पाये।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! दक्ष की कही हुई यह बात सुनकर भृगु आदि बहुत-से महर्षि रुद्रदेव को दुष्ट मानकर देवताओं के साथ उनकी निन्दा करने लगे।
दक्ष की बात सुनकर नन्दी को बड़ा रोष हुआ। उनके नेत्र चंचल हो उठे और वे दक्ष को शाप देने के विचार से तुरंत इस प्रकार बोले।
नन्दीश्वर ने कहा – अरे रे महामूढ़! दुष्टबुद्धि शठ दक्ष! तूने मेरे स्वामी महेश्वर को यज्ञ से बहिष्कृत क्यों कर दिया? जिनके स्मरणमात्र से यज्ञ सफल और तीर्थ पवित्र हो जाते हैं, उन्हीं महादेवजी को तूने शाप कैसे दे दिया? दुर्बुद्धि दक्ष! तूने ब्राह्मणजाति की चपलता से प्रेरित हो इन रुद्रदेव को व्यर्थ ही शाप दे डाला है। महाप्रभु रुद्र सर्वथा निर्दोष हैं, तथापि तूने व्यर्थ ही उनका उपहास किया है। ब्राह्मणाधम! जिन्होंने इस जगत् की सृष्टि की, जो इसका पालन करते हैं और अन्त में जिनके द्वारा इसका संहार होगा, उन्ही इन महेश्वर रूप को तूने शाप कैसे दे दिया।
नन्दी के इस प्रकार फटकारने पर प्रजापति दक्ष रोषसे आग-बबूला हो गये और उन्हें शाप देते हुए बोले – 'अरे रुद्रगणों! तुम सब लोग वेद से बहिष्कृत हो जाओ। वैदिक मार्ग से भ्रष्ट तथा महर्षियों द्वारा परीत्यक्त हो पाखण्डवाद से लग जाओ और शिष्टाचार से दूर रहो। सिर पर जटा और शरीर में भस्म एवं हड्डियों के आभूषण धारण करके मद्यपान में आसक्त रहो।'
जब दक्ष ने शिव के पार्षदों को इस प्रकार शाप दे दिया, तब उस शाप को सुनकर शिव के प्रियभक्त नन्दी अत्यन्त रोष के वशीभूत हो गये। शिलादपुत्र नन्दी भगवान् शिव के प्रिय पार्षद और तेजस्वी हैं। वे गर्व से भरे हुए महादुष्ट दक्ष को तत्काल इस प्रकार उत्तर देने लगे।
नन्दीश्वर बोले – अरे शठ! दुर्बुद्धि दक्ष! तुझे शिव के तत्त्व का बिलकुल ज्ञान नहीं है। अतः तूने शिव के पार्षदों को व्यर्थ ही शाप दिया है। अहंकारी दक्ष! जिनके चित्त में दुष्टता भरी है, उन भृगु आदि ने भी ब्राह्मणत्व के अभिमान में आकर महाप्रभु महेश्वर का उपहास किया है। अतः यहाँ जो भगवान् रुद्र से विमुख तुझ-जैसे दुष्ट ब्राह्मण विद्यमान है, उनको मैं रुद्र्तेज के प्रभाव से ही शाप दे रहा हूँ,। तुझ-जैसे ब्राह्मण कर्मफल के प्रशंसक वेदवाद में फँसकर वेद के तत्त्वज्ञान से शून्य हो जायँ। वे ब्राह्मण सदा भोगों में तन्मय रहकर स्वर्ग को ही सबसे बड़ा पुरुषार्थ मानते हुए 'स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है' ऐसा कहते रहें तथा क्रोध, लोभ और मद से युक्त हो निर्लज्ज भिक्षुक बने रहें। कितने ही ब्राह्मण वेदमार्ग को सामने रखकर शूद्रों का यज्ञ करानेवाले और दरिद्र होंगे। सदा दान लेने में ही लगे रहेंगे, दूषित दान ग्रहण करने के कारण वे सब-के-सब नरकगामी होंगे। दक्ष! उनमें से कुछ ब्राह्मण तो ब्रह्मराक्षस भी होंगे। जो परमेश्वर शिव को सामान्य देवता समझकर उनसे द्रोह करता है, वह दुष्ट बुद्धिवाला प्रजापति दक्ष तत्त्वज्ञान से विमुख हो जाय। यह विषयसुख की इच्छा से कामनारुपी कपट से युक्त धर्मवाले गृहस्थाश्रम में आसक्त रहकर कर्मकाण्ड का तथा कर्मफल की प्रशंसा करनेवाले सनातन वेदवाद का ही विस्तार करता रहे। इसका आनन्ददायी मुख नष्ट हो जाय। यह आत्मज्ञान को भूलकर पशु के समान हो जाय तथा यह दक्ष कर्मभ्रष्ट हो शीघ्र ही बकरे के मुख से युक्त हो जाय।
इस प्रकार कुपित हुए नन्दी ने जब ब्राह्मणों को और दक्ष ने महादेवजी को शाप दिया, तब वहाँ महान् हाहाकार मच गया। नारद! मैं वेदों का प्रतिपादक होने के कारण शिवतत्त्व को जानता हूँ। इसलिये दक्ष का वह शाप सुनकर मैंने बारंबार उसकी तथा भृगु आदि ब्राह्मणों की भी निन्दा की। सदाशिव महादेवजी भी नन्दी की वह बात सुनकर हँसते हुए-से मधुर वाणी में बोले – वे नन्दी को समझाने लगे।
सदाशिव ने कहा – नन्दिन्! मेरी बात सुनो। तुम तो परम ज्ञानी हो। तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिये। तुमने भ्रम से यह समझकर कि मुझे शाप दिया गया, व्यर्थ ही ब्राह्मण कुल को शाप दे डाला। वास्तव में मुझे किसी का शाप छू ही नहीं सकता; अतः तुम्हें उत्तेजित नहीं होना चाहिये। वेद मन्त्राक्षरमय और सुक्तमय है। उसके प्रत्येक सूक्त में समस्त देहधारियों के आत्मा (परमात्मा) प्रतिष्ठित हैं। अतः उन मन्त्रों के ज्ञाता नित्य आत्मवेत्ता हैं। इसलिये तुम रोषवश उन्हें शाप न दो। किसी की बुद्धि कितनी ही दूषित क्यों न हो, वह कभी वेदों को शाप नहीं दे सकता। इस समय मुझे शाप नहीं मिला है, इस बात को तुम्हें ठीक-ठीक समझना चाहिये। महामते! तुम सनकादि सिद्धों को भी तत्त्वज्ञान का उपदेश देने वाले हो। अतः शान्त हो जाओ। मैं ही यज्ञ हूँ, मैं ही यज्ञकर्म हूँ, यज्ञों के अंगभूत समस्त उपकरण भी मैं ही हूँ। यज्ञ की आत्मा मैं हूँ। यज्ञपरायण यजमान भी मैं हूँ और यज्ञ से बहिष्कृत भी मैं ही हूँ। यह कौन, तुम कौन और ये कौन? वास्तव में सब मैं ही हूँ। तुम अपनी बुद्धि से इस बात का विचार करो। तुमने ब्राह्मणों को व्यर्थ ही शाप दिया है। महामते! नन्दिन्! तुम तत्त्वज्ञान के द्वारा प्रपंच-रचना का बाध करके आत्मनिष्ठ ज्ञानी एवं क्रोध आदि से शून्य हो जाओ।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! भगवान् शम्भु के इस प्रकार समझाने पर नन्दिकेश्वर विवेकपरायण हो क्रोधरहित एवं शान्त हो गये। भगवान् शिव भी अपने प्राणप्रिय पार्षद नन्दी को शीघ्र ही तत्व का बोध कराकर प्रमथ गणों के साथ वहाँ से प्रसन्नतापूर्वक अपने स्थान को चल दिये। इधर रोषावेश से युक्त दक्ष भी ब्राह्मणों से घिरे हुए अपने स्थान को लौट गये। परंतु उनका चित्त शिवद्रोह में ही तत्पर था। उस समय रुद को शाप दिये जाने की घटना का स्मरण करके दक्ष सदा महान् रोष से भरे रहते थे। उनकी बुद्धि पर मूढ़ता छा गयी थी। वे शिव के प्रति श्रद्धा को त्याग कर शिवपूजकों की निन्दा करने लगे। तात नारद! इस प्रकार परमात्मा शम्भु के साथ दुर्व्यवहार करके दक्ष ने अपनी जिस दुष्टबुद्धि का परिचय दिया था, वह मैंने तुम्हें बता दी। अब तुम उनकी पराकाष्ठा को पहुँची हुई दुर्बुद्धि का वृतान्त सुनो, मैं बता रहा हूँ।
(अध्याय २६)