दक्ष के द्वारा महान् यज्ञ का आयोजन, उसमें ब्रह्मा, विष्णु, देवताओं और ऋषियों का आगमन, दक्ष द्वारा सबका सत्कार, यज्ञ का आरम्भ, दधीचिद्वारा भगवान् शिव को बुलाने का अनुरोध और दक्ष के विरोध करने पर शिव-भक्तों का वहाँ से निकल जाना
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! एक समय दक्ष ने एक बहुत बड़े यज्ञ का आरम्भ किया। उस यज्ञ की दीक्षा लेकर उन्होंने उस समय समस्त देवर्षियों, महर्षियों तथा देवताओं को बुलाया। वे सभी उस यज्ञ में पधारे। अगस्त्य, कश्यप, अत्रि, वामदेव, भूगु, दधीचि, भगवान् व्यास, भारद्वाज, गौतम, पैल, पराशर, गर्ग, भार्गव, ककुष, सित, सुमन्तु, त्रिक, कंक और वैशम्पायन – ये तथा दूसरे बहुसंख्यक मुनि अपने स्त्री-पुत्रों को साथ ले मेरे पुत्र दक्ष के यज्ञ में हर्षपूर्वक सम्मिलित हुए थे। इनके सिवा समस्त देवगण, महान् अभ्युदूयशाली लोकपालगण और सभी उपदेवता अपनी उपकारक सैन्य शक्ति के साथ वहाँ पधारे थे। दक्ष ने प्रार्थना करके सदल-बल मुझ विश्वस्रष्टा ब्रह्मा को भी सत्यलोक से बुलवाया था। इसी तरह भाँति-भाँति से सादर प्रार्थना करके वैकुण्ठ लोक से भगवान् विष्णु भी उस यज्ञ में बुलाये गये थे। शिवद्रोही दुरात्मा दक्ष ने उन सबका बड़ा सत्कार किया। विश्वकर्मा ने अत्यन्त दीप्तिमान्, विशाल और बहुमूल्य दिव्य भवन बनाये थे। दक्ष ने वे ही भवन समागत अतिथियों को ठहरने के लिये दिये। सभी लोग सम्मानित हो उन सम्पूर्ण भवनों में यथायोग्य स्थान पाकर ठहरे हुए थे। दक्ष का वह महायज्ञ उस समय कनखल नामक तीर्थ में हो रहा था। उसमें दक्ष ने भृगु आदि तपोधनों को ऋत्विज् बनाया। सम्पूर्ण मरूद्गणों के साथ स्वयं भगवान् विष्णु उसके अधिष्ठाता थे। मैं वेदत्रयी की विधि को दिखाने या बतानेवाला ब्रह्मा बना था। इसी तरह सम्पूर्ण दिक्पाल अपने आयुधों और परिवारों के साथ द्वारपाल एवं रक्षक बने थे और सदा कौतूहल पैदा करते थे। स्वयं यज्ञ सुन्दर रूप धारण करके दक्ष के उस यज्ञमण्डल में उपस्थित था। महामुनियों में श्रेष्ठ सभी महर्षि स्वयं वेदों के धारण करनेवाले हुए थे। अग्नि ने भी उस यज्ञमहोत्सव में शीघ्र ही हविष्य ग्रहण करने के लिये अपने सहस्त्रों रूप प्रकट किये थे। वहाँ अट्ठासी हजार ऋत्विज् एक साथ हवन करते थे। चौंसठ हजार देवर्षि उद्गाता थे। अध्वर्यु एवं होता भी उतने ही थे। नारद आदि देवर्षि और सप्तर्षि पृथक्-पृथक् गाथा-गान कर रहे थे। दक्ष ने अपने उस महायज्ञ में गन्धर्वों, विद्याधरों, सिद्धों, बारह आदित्यों, उनके गणों, यज्ञों तथा नागलोक में विचरनेवाले समस्त नागों का भी बहुत बड़ी संख्या में वरण किया था। ब्रह्मर्षि, राजर्षि और देवर्षियों के समुदाय तथा बहुसंख्यक नरेश भी उसमें आमन्त्रित थे, जो अपने मित्रों, मन्त्रियों तथा सेनाओं के साथ आये थे। यजमान दक्ष ने उस यज्ञ में वसु आदि समस्त गणदेवताओं का भी वरण किया था। कौतुक और मंगलाचार करके जब दक्ष ने यज्ञ की दीक्षा ली तथा जब उनके लिये बारंबार स्वस्तिवाचन किया जाने लगा, तब वे अपनी पत्नी के साथ बड़ी शोभा पाने लगे।
इतना सब करने पर भी दुरात्मा दक्ष ने उस यज्ञ में भगवान् शम्भु को नहीं आमन्त्रित किया। उनकी दृष्टि में कपालधारी होने के कारण वे निश्चय ही यज्ञ में भाग पाने योग्य नहीं थे। सती प्रजापति दक्ष की प्रिय पृत्री थीं तो भी कपाली की पत्नी होने के कारण दोषदर्शी दक्ष ने उन्हें अपने यज्ञ में नहीं बुलाया। इस प्रकार जब दक्ष का वह यज्ञ-महोत्सव आरम्भ हुआ और यज्ञ-मण्डप में आये हुए सब ऋत्विज् अपने-अपने कार्य में संलग्न हो गये, उस समय वहाँ भगवान् शंकर को उपस्थित न देख शिवभक्त दधीचि का चित्त अत्यन्त उद्विग्न हो उठा और वे यों बोले।
दधीचिने कहा – मुख्य-मुख्य देवताओ तथा महर्षियो! आप सब लोग प्रशंसापूर्वक मेरी बात सुनें। इस यज्ञ-महोत्सव में भगवान् शंकर नहीं आये हैं, इसका क्या कारण है? यद्यपि ये देवेश्वर, बड़े-बड़े मुनि और लोकपाल यहाँ पधारे हैं, तथापि उन महात्मा पिनाकपाणि शंकर के बिना यह यज्ञ अधिक शोभा नहीं पा रहा है। बड़े-बड़े विद्वान कहते हैं कि मंगलमय भगवान् शिव की कृपादृष्टि से ही समस्त मंगल-कार्य सम्पन्न होते हैं। जिनका ऐसा प्रभाव है, वे पुराण-पुरुष, वृषभध्वज, परमेश्वर श्रीनीलकण्ठ यहाँ क्यों नहीं दिखायी दे रहे हैं? दक्ष! जिनके सम्पर्क में आने पर अथवा जिनके स्वीकार कर लेने पर अमंगल भी मंगल हो जाते हैं तथा जिनके पंद्रह नेत्रों से देखे जाने पर बड़े-बड़े नगर तत्काल मंगलमय हो जाते हैं, उनका इस यज्ञ में पदार्पण होना अत्यन्त आवश्यक है। इसलिये तुम्हें स्वयं ही परमेश्वर शिव को यहाँ शीघ्र बुलाना चाहिये अथवा ब्रह्मा, प्रभावशाली भगवान् विष्णु, देवराज इन्द्र, लोकपालगणों, ब्राह्मणों और
सिद्धों की सहायता से सर्वथा प्रयत्त करके इस समय यज्ञ की पूर्ति के लिये तुम्हें भगवान् शंकर को यहाँ ले आना चाहिये। आप सब लोग उस स्थान पर जाये, जहाँ महेश्वरदेव विराजमान हैं। वहाँ से दक्षनन्दिनी सती के साथ भगवान् शम्भु को यहाँ तुरंत ले आयें। देवेश्वरो! जगदम्बा सहित वे परमात्मा शिव यदि यहाँ आ गये तो उनसे सब कुछ पवित्र हो जायगा; उनके स्मरण से, उनके नाम लेने से सारा कार्य पुण्यमय बन जाता है। अतः पूर्ण प्रयत्न करके भगवान् वृषभध्वज को यहाँ ले आना चाहिये। भगवान् शंकर के यहाँ पदार्पण करते ही यह यज्ञ पवित्र हो जायगा; अन्यथा यह पूरा नहीं हो सकेगा – यह मैं सत्य कहता हूँ।
दधीचि का यह वचन सुनकर दुष्ट बुद्धिवाले मूढ़ दक्ष ने हँसते हुए-से रोषपूर्वक कहा – 'भगवान् विष्णु सम्पूर्ण देवताओं के मूल हैं, जिनमें सनातन धर्म प्रतिष्ठित है। जब इनको मैंने सादर बुला लिया है तब इस यज्ञकर्म में क्या कमी हो सकती है? जिनमें वेट, यज्ञ और नाना प्रकार के समस्त कर्म प्रतिष्ठित हैं, वे भगवान् विष्णु तो यहाँ आ ही गये हैं। इनके सिवा सत्यलोक से लोकपितामह ब्रह्मा वेदों, उपनिषदों और विविध आगमों के साथ यहाँ पधारे हैं। देवगणों के साथ स्वयं देवराज इन्द्र का भी शुभागमन हुआ है तथा आप जैसे निष्पाप महर्षि भी यहाँ आ गये हैं। जो-जो महर्षि यज्ञ में सम्मिलित होने के योग्य, शान्त और सुपात्र हैं, वेद और वेदार्थ के तत्त्व को जानने वाले हैं और दृढ़तापूर्वक व्रत का पालन करते हैं, वे सब और स्वयं आप भी जब यहाँ पदार्पण कर चुके हैं, तब हमें यहाँ रुद्र से क्या प्रयोजन है? विप्रवर! मैंने ब्रह्माजी के कहने से ही अपनी कन्या रुद्र को ब्याह दी थी। वैसे मैं जानता हूँ, हर कुलीन नहीं हैं। उनके न माता हैं न पिता। वे भूतों, प्रेतों और पिशाचों के स्वामी हैं। अकेले रहते हैं। उनका अतिक्रमण करना दूसरों के लिये अत्यन्त कठिन है। वे आत्मप्रशंसक, मूढ़, जड, मौनी और ईर्ष्यालु हैं। इस यज्ञकर्म में बुलाये जाने योग्य नहीं हैं। इसलिये मैंने उनको यहाँ नहीं बुलाया है। अतः दधीचिजी! आपको फिर कभी ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। मेरी प्रार्थना है कि आप सब लोग मिलकर मेरे इस महान् यज्ञ को सफल बनावें।'
दक्ष की यह बात सुनकर दधीचि ने समस्त देवताओं और मुनियों के सुनते हुए यह सारगर्भित बात कही।
दधीचि बोले – दक्ष! उन भगवान् शिव के बिना यह महान् यज्ञ अयज्ञ हो गया – अब यह यज्ञ कहलाने योग्य ही नहीं रह गया। विशेषतः इस यज्ञ में तुम्हारा विनाश हो जायगा।
ऐसा कहकर दधीचि दक्ष की यज्ञशाला से अकेले ही निकल पड़े और तुरंत अपने आश्रम को चल दिये। तदनन्तर जो मुख्य-मुख्य शिवभक्त तथा शिव के मत का अनुसरण करनेवाले थे, वे भी दक्ष को वैसा ही शाप देकर तुरंत वहाँ से निकले और अपने आश्रमों को चले गये। मुनिवर दधीचि तथा दूसरे ऋषियों के उस यज्ञ-मण्डप से निकल जाने पर दुष्टबुद्धि शिवद्रोही दक्ष ने उन मुनियों का उपहास करते हुए कहा।
दक्ष बोले – जिन्हें शिव ही प्रिय हैं, वे नाम मात्र के ब्राह्मण दधीचि चले गये। उन्हीं के समान जो दूसरे थे, वे भी मेरी यज्ञशाला से निकल गये। यह बड़ी शुभ बात हुई। मुझे सदा यही अभीष्ट है। देवेश! देवताओ और मुनियो! मैं सत्य कहता हूँ – जिनके चित्त की विचार शक्ति नष्ट हो गयी है, जो मन्दबुद्धि हैं और मिथ्यावाद में लगे हुए हैं, ऐसे वेद-बहिष्कृत दुराचारी लोगों को यज्ञ कर्म में त्याग ही देना चाहिये। विष्णु आदि आप सब देवता और ब्राह्मण वेदवादी हैं। अतः मेरे इस यज्ञ को शीघ्र ही सफल बनावें।
ब्रह्माजी कहते हैं – दक्ष की यह बात सुनकर शिव की माया से मोहित हुए समस्त देवर्षि उस यज्ञ में देवताओं का पूजन और हवन करने लगे। मुनीश्वर नारद! इस प्रकार उस यज्ञ को जो शाप मिला, उसका वर्णन किया गया। अब यज्ञ के विध्वंस की घटना को बताया जाता है, आदरपूर्वक सुनो।
(अध्याय २७)