दक्षयज्ञ का समाचार पा सती का शिव से वहाँ चलने के लिये अनुरोध, दक्ष के शिवद्रोह को जानकर भगवान्‌ शिव की आज्ञा से देवी सती का पिता के यज्ञ-मण्डप की ओर शिवगणों के साथ प्रस्थान

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! जब देवर्षिगण बड़े उत्साह और हर्ष के साथ दक्ष के यज्ञ में जा रहे थे, उसी समय दक्षकन्या देवी सती गन्धमादन पर्वत पर चँदोवे से युक्त धारागृह में सखियों से घिरी हुई भाँति-भाँति की उत्तम क्रीडाएँ कर रही थीं। प्रसन्नतापूर्वक क्रीडा में लगी हुई देवी सती ने उस समय रोहिणी के साथ दक्षयज्ञ में जाते हुए चन्द्रमा को देखा। देखकर वे अपनी हितकारिणी प्राणप्यारी श्रेष्ठ सखी विजया से बोलीं – 'मेरी सखियों में श्रेष्ठ प्राणप्रिये विजये! जल्दी जाकर पूछ तो आ, ये चन्द्र देव रोहिणी के साथ कहाँ जा रहे हैं?'

सती के इस प्रकार आज्ञा देने पर विजया तुरंत उनके पास गयी और उसने यथोचित शिष्टाचार के साथ पूछा – चन्द्रदेव! आप कहाँ जा रहे हैं? विजया का यह प्रश्न सुनकर चन्द्रदेव ने अपनी यात्रा का उद्देश्य आदरपूर्वक बताया। दक्ष के यहाँ होनेवाले यज्ञोत्सव आदि का सारा वृत्तान्त कहा। वह सब सुनकर विजया बड़ी उतावली के साथ देवी के पास आयी और चन्द्रमा ने जो कुछ कहा था, वह सब उसने कह सुनाया। उसे सुनकर कालिका सती देवी को बड़ा विस्मय हुआ। अपने यहाँ सूचना न मिलने का क्या कारण है, यह बहुत सोचने-विचारने पर भी उनकी समझ में नहीं आया। तब उन्होंने पार्षदों से घिरे अपने स्वामी भगवान्‌ शिव के पास आकर भगवान्‌ शंकर से पूछा।

सती बोलीं – प्रभो! मैंने सुना है कि मेरे पिताजी के यहाँ कोई बहुत बड़ा यज्ञ हो रहा है। उसमें बहुत बड़ा उत्सव होगा। उसमें सब देवर्षि एकत्र हो रहे हैं। देवदेवेश्वर! पिताजी के उस महान्‌ यज्ञ में चलने की रुचि आपको क्यों नहीं हो रही है? इस विषय में जो बात हो, वह सब बताइये। महादेव! सुहृदोंका यह धर्म है कि वे सुहृदोंके साथ मिलें-जुलें। यह मिलन उनके महान्‌ प्रेम को बढ़ानेवाला होता है। अतः प्रभो! मेरे स्वामी! आप मेरी प्रार्थना मानकर सर्वथा प्रयत्न करके मेरे साथ पिताजी की यज्ञशाला में आज ही चलिये।

सती की यह बात सुनकर भगवान्‌ महेश्वर देव, जिनका हृदय दक्ष के वाग्वाणों से घायल हो चुका था, मधुर वाणी में बोले – 'देवि! तुम्हारे पिता दक्ष मेरे विशेष द्रोही हो गये हैं। जो प्रमुख देवता और ऋषि अभिमानी, मूढ़ और ज्ञानशून्य हैं, वे ही सब तुम्हारे पिता के यज्ञ में गये हैं। जो लोग बिना बुलाये दूसरे के घर जाते हैं, वे वहाँ अनादर पाते हैं, जो मृत्यु से भी बढ़कर कष्टदायक है। अतः प्रिये! तुमको और मुझको तो विशेष रूप से दक्ष के यज्ञ में नहीं जाना चाहिये (क्योंकि वहाँ हमें बुलाया नहीं गया है)। यह मैंने सच्ची बात कही है।'

महात्मा महेश्वर के ऐसा कहने पर सती रोषपूर्वक बोलीं – शम्भो! आप सबके ईश्वर हैं। जिनके जाने से यज्ञ सफल होता है उन्हीं आपको मेरे दुष्ट पिताने इस समय आमन्त्रित नहीं किया है। प्रभो! उस दुरात्मा का अभिप्राय क्या है, वह सब मैं जानना चाहती हूँ। साथ ही वहाँ आये हुए सम्पूर्ण दुरात्मा देवर्षियों के मनोभाव का भी मैं पता लगाना चाहती हूँ। अतः प्रभो! मैं आज ही पिता के यज्ञ में जाती हूँ। नाथ! महेश्वर! आप मुझे वहाँ जाने की आज्ञा दे दें।

देवी सती के ऐसा कहने पर सर्वज्ञ, सर्वद्रष्टा, सृष्टिकर्ता एवं कल्याण स्वरूप साक्षात्‌ भगवान्‌ रुद्र उनसे इस प्रकार बोले।

शिव ने कहा – उत्तम व्रत का पालन करने वाली देवि! यदि इस प्रकार तुम्हारी रुचि वहाँ अवश्य जाने के लिये हो गयी है तो मेरी आज्ञा से तुम शीघ्र अपने पिता के यज्ञ में जाओ। यह नन्दी वृषभ सुसज्जित है, तुम एक महारानी के अनुरूप राजोपचार साथ ले सादर इसपर सवार हो बहुसंख्यक प्रमथगणों के साथ यात्रा करो। प्रिये! इस विभूषित वृषभ पर आरूढ होओ।

रुद्र के इस प्रकार आदेश देने पर सुन्दर आभूषणों से अलंकृत सती देवी सब साधनों से युक्त हो पिता के घर की ओर चलीं। परमात्मा शिव ने उन्हें सुन्दर वस्त्र, आभूषण तथा परम उज्ज्वल छत्र, चामर आदि महाराजोचित उपचार दिये। भगवान्‌ शिव की आज्ञा से साठ हजार रुद्रगण बड़ी प्रसन्नता और महान्‌ उत्साह के साथ कौतूहलपूर्वक सती के साथ गये। उस समय वहाँ यज्ञ के लिये यात्रा करते समय सब ओर महान्‌ उत्सव होने लगा। महादेवजी के गणों ने शिवप्रिया सती के लिये बड़ा भारी उत्सव रचाया। वे सभी गण कौतूहलपूर्ण कार्य करने तथा सती और शिव के यश को गाने लगे। शिव के प्रिय और महान्‌ वीर प्रमथगण प्रसनन्नतापूर्वक उछलते-कूदते चल रहे थे। जगदम्बा के यात्राकाल में सब प्रकार से बड़ी भारी शोभा हो रही थी। उस समय जो सुखद जय-जयकार आदि का शब्द प्रकट हुआ, उससे तीनों लोक गूँज उठे।

(अध्याय २८)