यज्ञशाला में शिव का भाग न देखकर सती के रोषपूर्ण वचन, दक्ष द्वारा शिव की निन्दा सुन दक्ष तथा देवताओं को धिक्कार-फटकार कर सती द्वारा अपने प्राण-त्याग का निश्चय
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! दक्षकन्या सती उस स्थान पर गयीं, जहाँ वह महान् प्रकाश से युक्त यज्ञ हो रहा था। वहाँ देवता, असुर और मुनीन्द्र आदि के द्वारा कौतूहलपूर्ण कार्य हो रहे थे। सती ने वहाँ अपने पिता के भवन को नाना प्रकार की आश्चर्यजनक वस्तुओं से सम्पन्न, उत्तम प्रभा से परिपूर्ण, मनोहर तथा देवताओं और ऋषियों के समुदाय से भरा हुआ देखा। देवी सती भवन के द्वार पर जाकर खड़ी हुईं और अपने वाहन नन्दी से उतरकर अकेली ही शीकघ्रतापूर्वक यज्ञशाला के भीतर चली गयीं। सती को आयी देख उनकी यशस्विनी माता असिकनी (वीरिणी)-ने और बहिनों ने उनका यथोचित आदर-सत्कार किया। परंतु दक्ष ने उन्हें देखकर भी कुछ आदर नहीं किया तथा उन्हीं के भय से शिव की माया से मोहित हुए दूसरे लोग भी उनके प्रति आदर का भाव न दिखा सके। मुने! सब लोगों के द्वारा तिरस्कार प्राप्त होने से सती देवी को बड़ा विस्मय हुआ तो भी उन्होंने अपने माता-पिता के चरणों में मस्तक झुकाया। उस यज्ञ में सती ने विष्णु आदि देवताओं के भाग देखे, परंतु शम्भु का भाग उन्हें कहीं नहीं दिखायी दिया। तब सती ने दुस्सह क्रोध प्रकट किया। वे अपमानित होने पर भी रोष से भरकर सब लोगों की ओर क्रूर दृष्टि से देखती और दक्ष को जलाती हुई-सी बोलीं।
सती ने कहा – प्रजापते! आपने परम मंगलकारी भगवान् शिव को इस यज्ञ में क्यों नहीं बुलाया? जिनके द्वारा यह सम्पूर्ण चराचर जगत् पवित्र होता है, जो स्वयं ही यज्ञ, यज्ञवेत्ताओं में श्रेष्ठ, यज्ञ के अंग, यज्ञ की दक्षिणा और यज्ञकर्ता यजमान हैं, उन भगवान् शिव के बिना यज्ञ की सिद्धि कैसे हो सकती है? अहो! जिनके स्मरण करने मात्र से सब कुछ पवित्र हो जाता है, उन्हीं के बिना किया हुआ यह सारा यज्ञ अपवित्र हो जायगा। द्रव्य, मन्त्र आदि, हव्य और कव्य – ये सब जिनके स्वरूप हैं, उन्हीं भगवान् शिव के बिना इस यज्ञ का आरम्भ कैसे किया गया? क्या आपने भगवान् शिव को सामान्य देवता समझ कर उनका अनादर किया है? आज आपकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी है। इसलिये आप पिता होकर भी मुझे अधम जँच रहे हैं। अरे! ये विष्णु और ब्रह्मा आदि देवता तथा मुनि अपने प्रभु भगवान् शिव के आये बिना इस यज्ञ में कैसे चले आये?
ऐसा कहने के बाद शिवस्वरूपा परमेश्वरी सती ने भगवान् विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र आदि सब देवताओं को तथा समस्त ऋषियों को बडे कड़े शब्दों में फटकारा।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! इस प्रकार क्रोध से भरी हुई जगदम्बा सती ने वहाँ व्यथित हृदय से अनेक प्रकार की बातें कहीं। श्रीविष्णु आदि समस्त देवता और मुनि जो वहाँ उपस्थित थे, सती की बात सनकर चुप रह गये। अपनी पुत्री के वेसे वचन सुनकर कुपित हुए दक्ष ने सती की ओर क्रूर दृष्टि से देखा और इस प्रकार कहा।
दक्ष बोले – भद्रे! तुम्हारे बहुत कहने से कया लाभ। इस समय यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं है। तुम जाओ या ठहरो, यह तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है। तुम यहाँ आयी ही क्यों? समस्त विद्वान जानते हैं कि तुम्हारे पति शिव अमंगल रूप हैं। वे कुलीन भी नहीं हैं। वेद से बहिष्कृत हैं और भूतों, प्रेतों तथा पिशाचों के स्वामी हैं। वे बहुत ही कुवेष धारण किये रहते हैं। इसीलिये रुद्र को इस यज्ञ के लिये नहीं बुलाया गया है। बेटी! मैं रुद्र को अच्छी तरह जानता हूँ। अतः जान-बूझकर ही मैंने देवर्षियों की सभा में उनको आमन्त्रित नहीं किया है। रुद्र को शास्त्र के अर्थ का ज्ञान नहीं है। वे उद्दण्ड और दुरात्मा हैं। मुझ मृढ़ पापी ने ब्रह्मजी के कहने से उनके साथ तुम्हारा विवाह कर दिया था। अतः शुचिस्मिते! तुम क्रोध छोड़कर स्वस्थ (शान्त) हो जाओ। इस यज्ञ में तुम आ ही गयी तो स्वयं अपना भाग (या दहेज) ग्रहण करो।
दक्ष के ऐसा कहने पर उनकी त्रिभवन-पूजिता पुत्री सती ने शिव की निन्दा करनेवाले अपने पिता की ओर जब दृष्टिपात किया, तब उनका रोष और भी बढ़ गया। वे मन-ही-मन सोचने लगीं कि 'अब मैं शंकरजी के पास कैसे जाऊँगी। यदि शंकरजी के दर्शन की इच्छा से वहाँ गयी और उन्होंने यहाँ का समाचार पूछा तो मैं उन्हें क्या उत्तर दूँगी?' तदनन्तर तीनों लोकों की जननी सती रोषा-वेश से युक्त हो लंबी साँस खींचती हुई अपने दुष्टह्रदय पिता दक्ष से बोलीं।
सती ने कहा – जो महादेवजी की निन्दा करता है अथवा जो उनकी होती हुई निन्दा को सुनता है, वे दोनों तब तक नरक में पड़े रहते हैं, जब तक चन्द्रमा और सूर्य विद्यमान हैं। [यो निन्दति महादेवं निन्द्यमानं श्रृणोति वा। तावुभौ नरकं यातो यावच्चन्द्रदिवाकरौ।। शिवपुराण रुद्रसंहिता ३८] अतः तात! मैं अपने इस शरीर को त्याग दूँगी, जलती आग में प्रवेश कर जाऊँगी। अपने स्वामी का अनादर सुनकर अब मुझे अपने इस जीवन की रक्षा से क्या प्रयोजन। यदि कोई समर्थ हो तो वह स्वयं विशेष यत्न करके शम्भु की निन्दा करनेवाले पुरुष की जीभ को बलपूर्वक काट डाले। तभी वह शिव-निन्दा-श्रवण के पाप से शुद्ध हो सकता है, इसमें संशय नहीं है। यदि कुछ कर सकने में असमर्थ हो तो बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि वह दोनों कान बंद करके वहाँ से निकल जाय। इससे वह शुद्ध रहता है – दोष का भागी नहीं होता। ऐसा श्रेष्ठ विद्वान् कहते हैं।
इस प्रकार धर्म नीति बताने पर सती को अपने आने के कारण बड़ा पश्चात्ताप हुआ। उन्होंने व्यधित चित्त से भगवान् शंकर के वचन का स्मरण किया। फिर सती अत्यन्त कुपित हो दक्ष से, उन विष्णु आदि समस्त देवताओं से तथा मुनियों से भी निडर होकर बोलीं।
सती ने कहा – तात! तुम! शंकर के निन्दक हो। इसके लिये तुम्हें पश्चात्ताप होगा। यहाँ महान् दुःख भोगकर अन्त में तुम्हें यातना भोगनी पड़ेगी। इस लोक में जिनके लिये न कोई प्रिय है न अप्रिय, उन निर्वैर परमात्मा शिव के प्रतिकूल तुम्हारे सिवा दूसरा कौन चल सकता है। जो दुष्ट लोग हैं, वे सदा ईर्ष्यापूर्वक यदि महापुरुषों की निन्दा करें तो उनके लिये यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। परंतु जो महात्माओं के चरणों की रज से अपने अज्ञानान्धकार को दूर कर चुके हैं, उन्हें महापुरुषों की निन्दा शोभा नहीं देती। जिनका 'शिव' यह दो अक्षरों का नाम कभी बातचीत के प्रसंग से मनुष्यों की वाणी द्वारा एक बार भी उच्चारित हो जाय तो वह सम्पूर्ण पापराशि को शीघ्र ही नष्ट कर देता है, उन्हीं पवित्र कीर्तिवाले निर्मल शिव से तुम द्वेष करते हो? आश्चर्य है। वास्तव में तुम अशिव (अमंगल) – रूप हो। महापुरुषों के मन रूपी मधुकर ब्रह्मानन्दमय रस का पान करने की इच्छा से जिनके सर्वार्थदायक चरण कमलों का निरन्तर सेवन किया करते हैं, उन्हीं से तुम मूर्खतावश द्रोह करते हो? जिन्हें तुम नाम से शिव और काम से अशिव बताते हो, उन्हें क्या तुम्हारे सिवा दूसरे विद्वान् नहीं जानते। ब्रह्मा आदि देवता, सनक आदि मुनि तथा अन्य ज्ञानी क्या उनके स्वरूप को नहीं समझते उदारबुद्धि भगवान् शिव जटा फैलाये, कपाल धारण किये शमशान में भूतों के साथ प्रसन्नतापूर्वक रहते तथा भस्म एवं नरमुण्डों की माला धारण करते हैं – इस बात को जानकर भी जो मुनि और देवता उनके चरणों से गिरे हुए निर्माल्य को बड़े आदर के साथ अपने मस्तक पर चढ़ाते हैं, इसका क्या कारण है? यही कि वे भगवान् शिव ही साक्षात् परमेश्वर हैं। प्रवृत्ति (यज्ञ-यागादि) और निवृत्ति (शम-दम आदि) – दो प्रकार के कर्म बताये गये हैं। मनीषी पुरुषों को उनका विचार करना चाहिये। वेद में विवेचनपूर्वक उनके रागी और विरागी – दो प्रकार के अलग-अलग अधिकारी बताये गये हैं। परस्पर विरोधी होने के कारण उन दोनों प्रकार के कर्मो का एक साथ एक ही कर्ता के द्वारा आचरण नहीं किया जा सकता। भगवान् शंकर तो परब्रह्म परमात्मा हैं, उनमें इन दोनों ही प्रकार के कर्मो का प्रवेश नहीं है। उन्हें कोई कर्म प्राप्त नहीं होता, उन्हें किसी भी प्रकार के कर्म करने की आवश्यकता नहीं है। पिताजी! हमारा ऐश्वर्य अव्यक्त है। उसका कोई लक्षण व्यक्त नहीं है, सदा आत्मज्ञानी महापुरुष ही उसका सेवन करते हैं। तुम्हारा पास वह ऐशवर्य नहीं है। यज्ञशालाओं में रहकर वहाँ के अन्न से तृप्त होनेवाले कर्मठ लोगों को जो भोग प्राप्त होता है, उससे वह ऐश्वर्य बहुत दूर है। जो महापुरुषों की निन्दा करनेवाला और दुष्ट है, उसके जन्म को धिक्कार है। विद्वान् पुरुष को चाहिये कि उसके सम्बन्ध को विशेष रूप से प्रयत्न करके त्याग दे! जिस समय भगवान् शिव तुम्हारे साथ मेरा सम्बन्ध दिखलाते हुए मुझे दाक्षायणी कहकर पुकारेंगे, उस समय मेरा मन सहसा अत्यन्त दुःखी हो जायगा। इसलिये तुम्हारे अंग से उत्पन्न हुए सदा शव के तुल्य घृणित इस शरीर को इस समय मैं निश्चय ही त्याग दूँगी और ऐसा करके सुखी हो जाऊँगी। हे देवताओ और मुनियो! तुम सब लोग मेरी बात सुनो। तुम्हारे हृदय में दुष्टता आ गयी है। तुम लोगों का यह कर्म सर्वथा अनुचित है। तुम सब लोग मूढ़ हो; क्योंकि शिव की निन्दा और कलह तुम्हें प्रिय है। अतः भगवान् हर से तुम्हें इस कुकर्म का निश्चय ही पूरा-पूरा दण्ड मिलेगा।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! उस यज्ञ में दक्ष तथा देवताओं से ऐसा कहकर सती देवी चुप हो गयीं और मन-ही-मन अपने प्राणवल्लभ शम्भु का स्मरण करने लगीं।
(अध्याय २९)