सती का योगाग्नि से अपने शरीर को भस्म कर देना, दर्शकों का हाहाकार शिवपार्षदों का प्राणत्याग तथा दक्ष पर आक्रमण, ऋभुओं द्वारा उनका भगाया जाना तथा देवताओं की चिन्ता
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! मौन हुई सती देवी अपने पति का सादर स्मरण करके शांतचित्त हो सहसा उत्तर दिशा में भूमि पर बैठ गयीं। उन्होंने विधिपूर्वक जल का आचमन करके वस्त्र ओढ़ लिया और पवित्र भाव से आँखें मूँदकर पति का चिन्तन करती हुई वे योग मार्ग में स्थित हो गयीं। उन्होंने आसन को स्थिर कर प्राणायाम द्वारा प्राण और अपान को एक रूप करके नाभिचक्र में स्थित किया। फिर उदान वायु को बलपूर्वक नाभिचक्र से ऊपर उठाकर बुद्धि के साथ हृदय में स्थापित किया। तत्पश्च्यात शंकर की प्राणवल्लभा अनिन्दिता सती उस हृदय स्थित वायु को कण्ठमार्ग से भ्रुकुटियों के बीच में ले गयीं। इस प्रकार दक्ष पर कुपित हो सहसा अपने शरीर को त्यागने की इच्छा से सती ने अपने सम्पूर्ण अंगों में योगमार्ग के अनुसार वायु और अग्नि की धारणा की। तदनन्तर अपने पति के चरणारविन्दों का चिन्तन करती हुई सती ने अन्य सब वस्तुओं का ध्यान भुला दिया। उनका चित्त योगमार्ग में स्थित हो गया था। इसलिये वहाँ उन्हें पति के चरणों के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिखायी दिया। मुनिश्रेष्ठ! सती का निष्पाप शरीर तत्काल गिरा और उनकी इच्छा के अनुसार योगाग्नि से जलकर उसी क्षण भस्म हो गया। उस समय वहाँ आये हुए देवता आदि ने जब यह घटना देखी, तब वे बड़े जोर से हाहाकार करने लगे। उनका वह महान्, अद्भुत, विचित्र एवं भयंकर हाहाकार आकाश में और पृथ्वीतल पर सब ओर फैल गया। लोग कह रहे थे – 'हाय! महान् देवता भगवान् शंकर की परम प्रेयसी सती देवी ने किस दुष्ट के दुर्व्यवहार से कुपित हो अपने प्राण त्याग दिये। अहो! ब्रह्माजी के पुत्र इस दक्ष की बड़ी भारी दुष्टता तो देखो। सारा चराचर जगत् जिसकी संतान है, उसी की पुत्री मनस्विनी सती देवी, जो सदा ही मान पाने के योग्य थीं, उसके द्वारा ऐसी निरादिृत हुईं कि प्राणों से ही हाथ धो बैठीं। भगवान् वृषभध्वज की प्रिया सती सदा सभी सत्पुरुषों के द्वारा निरन्तर सम्मान पाने की अधिकारिणी थीं। वास्तव में उसका हृदय बड़ा ही असहिष्णु है। वह प्रजापति दक्ष ब्राह्मणद्रोही है। इसलिये सारे संसार में उसे महान् अपयश प्राप्त होगा। उसकी अपनी ही पुत्री उसी के अपराध से जब प्राण त्याग करने को उद्यत ही गयी, तब भी उस महानरकभोगी शंकर द्रोही ने उसे रोका तक नहीं!'
जिस समय सब लोग ऐसा कह रहे थे, उसी समय शिवजी के पार्षद सती का यह अद्भुत प्राणत्याग देख तुरंत ही क्रोधपूर्वक अस्त्र-शस्त्र ले दक्ष को मारने के लिये उठ खड़े हुए। यज्ञ मण्डप के द्वार पर खड़े हुए वे भगवान् शंकर के समस्त साथ हजार पार्षद, जो बड़े भारी बलवान् थे, अत्यन्त रोष से भर गये और 'हमें धिक्कार है, धिक्कार है', ऐसा कहते हुए भगवान् शंकर के गणों के वे सभी वीर यूथपति बारंबार उच्च स्वर से हाहाकार करने लगे। देवर्षे! कितने ही पार्षद तो वहाँ शोक से ऐसे व्याकुल हो गये कि वे अत्यन्त तीखे प्राणनाशक शस्त्रों द्वारा अपने ही मस्तक और मुख आदि अंगों पर आघात करने लगे। इस प्रकार बीस हजार पार्षद उस समय दक्षकन्या सती के साथ ही नष्ट हो गये। यह एक अद्भुत-सी बात हुई। नष्ट होने से बचे हुए महात्मा शंकर के वे प्रमथगण क्रोध युक्त दक्ष को मारने के लिये हथियार लिये उठ खड़े हुए। मुने! उन आक्रमणकारी पार्षदों का वेग देखकर भगवान् भृगु ने यज्ञ में विघ्न डालनेवालों का नाश करने के लिये नियत 'अपह्ता असुराः रक्षाँसि वेदिषदः' इस यजुर्मन्त्र से दक्षिणाग्नि से आहुति दी। भृगु के आहुति देते ही यज्ञकुंड से ऋभु नामक सहस्त्रों महान् देवता, जो बड़े प्रबल वीर थे, वहाँ प्रकट हो गये। मुनीश्वर! उन सबके हाथ में जलती हुई लकड़ियाँ थीं। उनके साथ प्रमथगणों का अत्यन्त विकट युद्ध हुआ, जो सुननेवालों के भी रोंगटे खड़े कर देनेवाला था। उन ब्रह्मतेज से सम्पन्न महावीर ऋभुओं की सब ओर से ऐसी मार पड़ी, जिससे प्रमथगण बिना अधिक प्रयास के ही भाग खड़े हुए। इस प्रकार उन देवताओं ने उन शिवगणों को तुरंत मार भगाया। यह अद्भुत सी घटना भगवान् शिव की महाशक्तिमती इच्छा से ही हुई। वह सब देखकर ऋषि, इन्द्रादि देवता, मरुद्गगण, विश्वेदेव, अश्विनीकुमार और लोकपाल चुप ही रहे। कोई सब ओर से आ-आकर वहाँ भगवान् विष्णु से प्रार्थना करते थे कि किसी तरह विघ्न टल जाय। वे उद्विग्न हो बारंबार विघ्न-निवारण के लिये आपस में सलाह करने लगे। प्रमथगणों के नाश होने और भगाये जाने से जो भावी परिणाम होने वाला था, उसका भली-भांति विचार करके उत्तम बुद्धिवाले श्रीविष्णु आदि देवता अत्यन्त उद्विग्न हो उठे थे। मुने! इस प्रकार दुरात्मा शंकर-द्रोही ब्रह्मबन्धू दक्ष के यज्ञ के उस समय बड़ा भारी विघ्न उपस्थित हो गया।
(अध्याय ३०)