आकाशवाणी द्वारा दक्ष की भर्त्सना, उनके विनाश की सूचना तथा समस्त देवताओं को यज्ञमण्डप से निकल जाने की प्रेरणा
ब्रह्माजी कहते हैं – मुनीश्वर! इसी बीच में वहाँ दक्ष तथा देवता आदि के सुनते हुए आकाशवाणी ने यह यथार्थ बात कही – "रे-रे दुराचारी दक्ष! ओ दम्भाचारपरायण महामूढ़! यह तूने कैसा अनर्थकारी कर्म कर डाला? ओ मूर्ख! शिवभक्तराज दधीचि के कथन को भी तूने प्रामाणिक नहीं माना, जो तेरे लिये सब प्रकार से आनन्ददायक और मंगलकारी था। वे ब्राह्मण देवता तुझे दुस्सह शाप देकर तेरी यज्ञशाला से निकल गये तो भी तुझ मूढ़ ने अपने मन में कुछ भी नहीं समझा। उसके बाद तेरे घर में मंगलमयी सती देवी स्वतः पधारीं, जो तेरी अपनी ही पुत्री थीं; किंतु तूने उनका भी परम आदर नहीं किया! ऐसा क्यों हुआ? ज्ञानदुर्बल दक्ष! तूने सती और महादेवजी की पूजा नहीं की, यह क्या किया? 'मैं ब्रह्माजी का बेटा हूँ' ऐसा समझकर तू व्यर्थ ही घमंड में भरा रहता है और इसीलिये तुझ पर मोह छा गया है। वे सती देवी ही सत्पुरुषों की आराध्या देवी हैं अथवा सदा आराधना करने के योग्य हैं, वे समस्त पुण्यों का फल देने वाली, तीनों लोकों की माता, कल्याणस्वरूपा और भगवान् शंकर के आधे अंग में निवास करने वाली हैं। वे सती देवी ही पूजित होने पर सदा सम्पूर्ण सौभाग्य प्रदान करने वाली हैं। वे ही महेश्वर की शक्ति हैं और अपने भक्तों को सब प्रकार के मंगल देती हैं। वे सती देवी ही पूजित होने पर सदा संसार का भय दूर करती हैं, मनोवांछित फल देती हैं तथा वे ही समस्त उपद्रवों को नष्ट करने वाली देवी हैं। वे सती ही सदा पूजित होने पर कीर्ति और सम्पत्ति प्रदान करती हैं। वे ही पराशक्ति तथा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली परमेश्वरी हैं। वे सती ही जगत् को जन्म देने वाली माता, जगत् की रक्षा करने वाली अनादि शक्ति और प्रलयकाल में जगत् का संहार करने वाली हैं। वे जगन्माता सती ही भगवान् विष्णु की माता रूप से सुशोभित होने वाली तथा ब्रह्मा, इन्द्र, चन्द्र, अग्नि एवं सूर्यदेव आदि की जननी मानी गयी हैं। वे सती ही तप, धर्म और दान आदि का फल देने वाली हैं। वे ही शम्भुशक्ति महादेवी हैं तथा दुष्टों का हनन करने वाली परात्पर शक्ति हैं। ऐसी महिमावाली सती देवी जिनकी सदा प्रिय धर्मपत्नी हैं, उन भगवान् महादेव को तूने यज्ञ में भाग नहीं दिया! अरे! तू कैसा मूढ़ और कुविचारी है।
"भगवान् शिव ही सबके स्वामी तथा परात्पर परमेश्वर हैं। वे समस्त देवताओं के सम्यक् सेव्य हैं और सबका कल्याण करनेवाले हैं। इन्हीं के दर्शन की इच्छा से सिद्ध पुरुष तपस्या करते हैं और इन्हीं के साक्षात्कार की अभिलाषा मन में लेकर योगी लोग योग-साधना में प्रवृत्त होते हैं। अनन्त धन-धान्य और यज्ञ-याग आदि का सबसे महान् फल यही बताया गया है कि भगवान् शंकर का दर्शन सुलभ हो। शिव ही जगत् का धारण-पोषण करनेवाले हैं। वे ही समस्त विद्याओं के पति एवं सब कुछ करने में समर्थ हैं। आदिविद्या के श्रेष्ठ स्वामी और समस्त मंगलों के भी मंगल वे ही हैं। दुष्ट दक्ष! तूने उनकी शक्ति का आज सत्कार नहीं किया है। इसीलिये इस यज्ञ का विनाश हो जायगा। पूजनीय व्यक्तियों की पूजा न करने से अमंगल होता ही है। तुने परम पूज्य शिवस्वरूपा सती का पूजन नहीं किया है। शेषनाग अपने सहस्त्र मस्तकों से प्रतिदिन प्रसन्नतापूर्वक जिनके चरणों की रज धारण करते हैं, उन्हीं भगवान् शिव की शक्ति सती देवी थीं। जिनके चरण कमलों का निरन्तर ध्यान और सादर पूजन करके ब्रह्माजी ब्रह्मत्व को प्राप्त हुए हैं, उन्हीं भगवान् शिव की प्रिय पत्नी सती देवी थीं। जिनके चरण कमलों का निरन्तर ध्यान और सादर पूजन करके इन्द्र आदि लोकपाल अपने-अपने उत्तम पद को प्राप्त हुए हैं, वे भगवान् शिव सम्पूर्ण जगत् के पिता हैं और शक्तिस्वरूपा सती देवी जगत् की माता कही गयी हैं। मूढ़ दक्ष! तूने उन माता-पिता का सत्कार नहीं किया, फिर तेरा कल्याण कैसे होगा।
"तुझ पर दुर्भाग्य का आक्रमण हो गया और विपत्तियाँ टूट पड़ीं; क्योंकि तूने उन भवानी सती और भगवान् शंकर की भक्तिभाव से आराधना नहीं की। 'कल्याणकारी शम्भु का पूजन न करके भी मैं कल्याण का भागी हो सकता हूँ' यह तेरा कैसा गर्व है? वह दुर्वार गर्व आज नष्ट हो जायगा। इन देवताओं में से कौन ऐसा है, जो सर्वेश्वर शिव से विमुख होकर तेरी सहायता करेगा? मुझे तो ऐसा कोई देवता नहीं दिखायी देता। यदि देवता इस समय तेरी सहायता करेंगे तो जलती आग से खेलनेवाले पतंगों के समान नष्ट हो जायँगे। आज तेरा मुँह जल जाय, तेरे यज्ञ का नाश हो जाय और जितने तेरे सहायक हैं वे भी आज शीघ्र ही जल मरें। इस दुरात्मा दक्ष की जो सहायता करनेवाले हैं, उन समस्त देवताओं के लिये आज शपथ है। वे तेरे अमंगल के लिये ही तेरी सहायता से विरत हो जायँ। समस्त देवता आज इस यज्ञमण्डप से निकलकर अपने-अपने स्थान को चले जायँ, अन्यथा सब लोगों का सब प्रकार से नाश हो जायगा। अन्य सब मुनि और नाग आदि भी इस यज्ञ से निकल जायँ, अन्यथा आज सब लोगों का सर्वथा नाश हो जायगा। श्रीहरे! और विधातः! आप लोग भी इस यज्ञमण्डप से शीघ्र निकल जाइये।''
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! सम्पूर्ण यज्ञशाला में बैठे हुए लोगों से ऐसा कहकर सबका कल्याण करने वाली वह आकाशवाणी मौन हो गयी।
(अध्याय ३१)