गणों के मुख से और नारद से भी सती के दग्ध होने की बात सुनकर दक्ष पर कुपित हुए शिव का अपनी जटा से वीरभद्र और महाकाली को प्रकट करके उन्हें यज्ञ विध्वंस करने और विरोधियों को जला डालने की आज्ञा देना
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! वह आकाशवाणी सुनकर सब देवता आदि भयभीत तथा विस्मित हो गये। उनके मुख से कोई बात नहीं निकली। वे इस तरह खड़े या बैठे रह गये, मानो उन पर विशेष मोह छा गया हो। भृगुके मन्त्रबल से भाग जाने के कारण जो वीर शिवगण नष्ट होने से बच गये थे, वे भगवान् शिव की शरण में गये। उन सब ने अमित तेजस्वी भगवान् रुद्र को भलीभाँति सादर प्रणाम करके वहाँ यज्ञ में जो कुछ हुआ था, वह सारी घटना उनसे कह सुनायी।
गण बोले – महेश्वर! दक्ष बड़ा दुरात्मा और घमंडी है। उसने वहाँ जाने पर सती देवी का अपमान किया और देवताओं ने भी उनका आदर नहीं किया। अत्यन्त गर्व से भरे हुए उस दुष्ट दक्ष ने आपके लिये यज्ञ में भाग नहीं दिया। दूसरे देवताओं के लिये दिया और आपके विषय में उच्च स्वर से दुर्वचन कहे। प्रभो! यज्ञ में आपका भाग न देखकर सती देवी कुपित हो उठीं और पिता की बारंबार निन्दा करके उन्होंने तत्काल अपने शरीर को योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया। यह देख दस हजार से अधिक पार्षद लज्जावश शस्त्रों द्वारा अपने ही अंगों को काट-काट कर वहाँ मर गये। शेष हम लोग दक्ष पर कुपित हो उठे और सबको भय पहुँचाते हुए वेगपूर्वक उस यज्ञ का विध्वंस करने को उद्यत हो गये; परंतु विरोधी भृगु ने अपने प्रभाव से हमें तिरस्कृत कर दिया। हम उनके मन्त्रबल का सामना न कर सके। प्रभो! विश्वम्भर! वे ही हम लोग आज आपकी शरण में आये हैं। दयालो! वहाँ प्राप्त हुए भय से आप हमें बचाइये, निर्भय कीजिये। महाप्रभो! उस यज्ञ में दक्ष आदि सभी दुष्टों ने घमंड में आकर आपका विशेष रूप से अपमान किया है। कल्याणकारी शिव! इस प्रकार हमने अपना, सती देवी का और मूढ़ बुद्धिवाले दक्ष आदि का भी सारा वृत्तान्त कह सुनाया। अब आपकी जैसी इच्छा हो, वैसा करें।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! अपने पार्षदों की यह बात सुनकर भगवान् शिव ने वहाँ की सारी घटना जानने के लिये शीघ्र ही तुम्हारा स्मरण किया। देवर्षे! तुम दिव्य दृष्टि से सम्पन्न हो। अतः भगवान् के स्मरण करने पर तुम तुरंत वहाँ आ पहुँचे और शंकरजी को भक्तिपूर्वक प्रणाम करके खड़े हो गये। स्वामी शिव ने तुम्हारी प्रशंसा करके तुमसे दक्षयज्ञ में गयी हुई सती का समाचार तथा दूसरी घटनाओं को पूछा। तात! शम्भु के पूछने पर शिव में मन लगाये रखने वाले तुमने शीघ्र ही वह सारा वृत्तान्त कह सुनाया, जो दक्षयज्ञ में घटित हुआ था। मुने! तुम्हारे मुख से निकली हुई बात सुनकर उस समय महान् रौद्र पराक्रम से सम्पन्न सर्वेश्वर रुद्र ने तुरंत ही बड़ा भारी क्रोध प्रकट किया। लोक संहारकारी रुद्र ने अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक उस पर्वत के ऊपर दे मारा। मुने! भगवान् शंकर के पटकने से उस जटा के दो टुकड़े हो गये और महाप्रलय के समान भयंकर शब्द प्रकट हुआ। देवर्ष! उस जटा के पूर्व भाग से महाभयंकर महाबली वीरभद्र प्रकट हुए, जो समस्त शिवगणों के अगुआ हैं। वे भूमण्डल को सब ओर से व्याप्त करके उससे भी दस अंगुल अधिक होकर खड़े हुए। वे देखने में प्रलयाग्नि के समान जान पड़ते थे। उनका शरीर बहुत ऊँचा था। वे एक हजार भुजाओं से युक्त थे। उन सर्वसमर्थ महारुद्र के क्रोधपूर्वक प्रकट हुए निःश्वास से सौ प्रकार के ज्वर और तेरह प्रकार के संनिपात रोग पैदा हो गये। तात! उस जटा के दूसरे भाग से महाकाली उत्पन्न हुईं, जो बड़ी भयंकर दिखायी देती थीं। वे करोड़ों भूतों से घिरी हुई थीं। जो ज्वर पैदा हुए, वे सब-के-सब शरीरधारी, क्रूर और समस्त लोकों के लिये भयंकर थे। वे अपने तेज से प्रज्वलित हो सब ओर दाह उत्पन्न करते हुए-से प्रतीत होते थे। वीरभद्र बातचीत करने में बड़े कुशल थे। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर परमेश्वर शिव को प्रणाम करके कहा।
वीरभद्र बोले – महारुद्र! सोम, सूर्य और अग्नि को तीन नेत्रों के रूप में धारण करनेवाले प्रभो! शीघ्र आज्ञा दीजिये। मुझे इस समय कौन-सा कार्य करना होगा? ईशान! क्या मुझे आधे ही क्षण में सारे समुद्रों को सुखा देना है? या इतने ही समय में सम्पूर्ण पर्वतों को पीस डालना है? हर! मैं एक ही क्षण में ब्रह्माण्ड को भस्म कर डालूँ या समस्त देवताओं और मुनीश्वरों को जलाकर राख कर दूँ? शंकर! ईशान! क्या मैं समस्त लोकों को उलट-पलट दूं या सम्पूर्ण प्राणियों का विनाश कर डालूँ? महेश्वर! आपकी कृपा से कहीं कोई भी ऐसा कार्य नहीं है, जिसे मैं न कर सकूं। पराक्रम के द्वारा मेरी समानता करनेवाला वीर न पहले कभी हुआ है और न आगे होगा। शंकर! आप किसी तिनके को भेज दें तो वह भी बिना किसी यत्न के क्षण भर में बड़े-से-बड़ा कार्य सिद्ध कर सकता है, इसमें संशय नहीं है। शम्भो! यद्यपि आपकी लीला मात्र से सारा कार्य सिद्ध हो जाता है, तथापि जो मुझे भेजा जा रहा है, यह मुझ पर आपका अनुग्रह ही है। शम्भो! मुझमें भी जो ऐसी शक्ति है, वह आपकी कृपा से ही प्राप्त हुई है। शंकर! आपकी कृपा के बिना किसी में भी कोई शक्ति नहीं हो सकती। वास्तव में आपकी आज्ञा के बिना कोई तिनके आदि को भी हिलाने में समर्थ नहीं है, यह निस्संदेह कहा जा सकता है। महादेव! मैं आपके चरणों में बारंबार प्रणाम करता हूँ। हर! आप अपने अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिये आज मुझे शीघ्र भेजिये। शम्भो! मेरे दाहिने अंग बारंबार फड़क रहे हैं। इससे सूचित होता है कि मेरी विजय अवश्य होगी। अतः प्रभो! मुझे भेजिये। शंकर! आज मुझे कोई अभूतपूर्व एवं विशेष हर्ष तथा उत्साह का अनुभव हो रहा है और मेरा चित्त आपके चरण कमल में लगा हुआ है। अतः पग-पग पर मेरे लिये शुभ परिणाम का विस्तार होगा। शम्भो! आप शुभ के आधार हैं। जिसकी आप में सुदृढ़ भक्ति है उसी को सदा विजय प्राप्त होती है और उसी का दिनों-दिन शुभ होता है।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! उसकी यह बात सुनकर सर्वमंगला के पति भगवान् शिव बहुत संतुष्ट हुए और 'वीरभद्र! तुम्हारी जय हो' ऐसा आशीर्वाद देकर वे फिर बोले।
महेश्वर ने कहा – मेरे पार्षदों में श्रेष्ठ वीरभद्र! ब्रह्माजी का पुत्र दक्ष बड़ा दुष्ट है। उस मूर्ख को बड़ा घमंड हो गया है। अतः इन दिनों वह विशेष रूप से मेरा विरोध करने लगा है। दक्ष इस समय एक यज्ञ करने के लिये उद्यत है। तुम याग-परिवार सहित उस यज्ञ को भस्म करके फिर शीघ्र मेरे स्थान पर लौट आओ। यदि देवता, गन्धर्व, यक्ष अथवा अन्य कोई तुम्हारा सामना करने के लिये उद्यत हों तो उन्हें भी आज ही शीघ्र और सहसा भस्म कर डालना। दधीचि की दिलायी हुई मेरी शपथ का उल्लंघन करके जो देवता आदि वहाँ ठहरे हुए हैं, उन्हें तुम निश्चय ही प्रयलपूर्वक जलाकर भस्म कर देना। जो मेरी शपथ का उल्लंघन करके गर्वयुक्त हो वहाँ ठहरे हुए हैं, वे सब-के-सब मेरे द्रोही हैं। अतः उन्हें अग्निमयी माया से जला डालो। दक्ष की यज्ञशाला में जो अपनी पत्नियों और सारभूत उपकरणों के साथ बैठे हों, उन सबको जलाकर भस्म कर देने के पश्चात् फिर शीघ्र लौट आना। तुम्हारे वहाँ जाने पर विश्वदेव आदि देवगण भी यदि सामने आ तुम्हारी सादर स्तुति करें तो भी तुम उन्हें शीघ्र आग की ज्वाला से जलाकर ही छोड़ना। वीर! वहाँ दक्ष आदि सब लोगों को पत्नी और बन्धु-बान्धवों सहित जलाकर (कलशों में रखे हुए) जल को लीलापूर्वक पी जाना।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! जो वैदिक मर्यादा के पालक, काल के भी शत्रु तथा सबके ईश्वर हैं, वे भगवान् रुद्र रोष से लाल आँखें किये महावीर वीरभद्र से एसा कहकर चुप हो गये।
(अध्याय ३२)