प्रमथगणों सहित वीरभद्र और महाकाली का दक्षयज्ञ-विध्वंस के लिये प्रस्थान, दक्ष तथा देवताओं को अपशकुन एवं उत्पातसूचक लक्षणों का दर्शन एवं भय होना
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! महेश्वर के इस वचन को आदरपूर्वक सुनकर वीरभद्र बहुत संतुष्ट हुए। उन्होंने महेश्वर को प्रणाम किया। तत्पश्चात् उन देवाधिदेव शूली की उपर्युक्त आज्ञा को शिरोधार्य करके वीरभद्र वहाँ से शीघ्र ही दक्ष के यज्ञमण्डप की ओर चले। भगवान् शिव ने केवल शोभा के लिये उनके साथ करोड़ों महावीर गणों को भेज दिया, जो प्रलयाग्नि के समान तेजस्वी थे। वे कौतृहलकारी प्रबल वीर प्रमथगण वीरभद्र के आगे और पीछे भी चल रहे थे। काल के भी काल भगवान् रुद्र के वीरभद्र सहित जो लाखों पार्षदगण थे, उन सबका स्वरूप रुद्र के ही समान था। उन गणों के साथ महात्मा वीरभद्र भगवान् शिव के समान ही वेश-भूषा धारण किये रथ पर बैठकर यात्रा कर रहे थे। उनके एक सहस्त्र भुजाएँ थीं। शरीर में नागराज लिपटे हुए थे। वीरभद्र बड़े प्रबल और भयंकर दिखायी देते थे। उनका रथ बहुत ही विशाल था। उसमें दस हजार सिंह जोते जाते थे, जो प्रयतपूर्वक उस रथ को खींचते थे। उसी प्रकार बहुत-से प्रबल सिंह, शार्दूल, मगर, मत्स्य और सहस्त्रों हाथी उस रथ के पार्श्वभाग की रक्षा करते थे। काली, कात्यायनी, ईशानी, चामुण्डा, मुण्डमर्दिनी, भद्रकाली, भद्रा, त्वरिता तथा वैष्णवी – इन नव दुर्गाओं के साथ तथा समस्त भूतगणों के साथ महाकाली दक्ष का विनाश करने के लिये चलीं। डाकिनी, शाकिनी, भूत, प्रमथ, गुह्मक, कूष्माण्ड, पर्पट, चटक, ब्रह्मराक्षस, भौरव तथा क्षेत्रपाल आदि – ये सभी वीर भगवान् शिव की आज्ञा का पालन एवं दक्ष के यज्ञ का विनाश करने के लिये तुरंत चल दिये। इनके सिवा चौंसठ गणों के साथ योगिनियों का मण्डल भी सहसा कुपित हो दक्षयज्ञ का विनाश करने के लिये वहाँ से प्रस्थित हुआ। इस प्रकार कोटि-कोटि गण एवं विभिन्न प्रकार के गणाधीश वीरभद्र के साथ चले। उस समय भेरियों की गम्भीर ध्वनि होने लगी। नाना प्रकार के शब्द करनेवाले शंख बज उठे। भिन्न-भिन्न प्रकार की सींगें बजने लगीं। महामुने! सेना सहित वीरभद्र की यात्रा के समय वहाँ बहुत-से सुखद शकुन होने लगे।
इस प्रकार जब प्रमथगणों सहित वीरभद्र ने प्रस्थान किया, तब उधर दक्ष तथा देबलाओं को बहुत-से अशुभ लक्षण दिखायी देने लगे। देवर्षे यज्ञ विध्वंस की सूचना देने वाले त्रिविध उत्पात प्रकट होने लगे। दक्ष की बायीं आँख, बायीं भुजा और बायीं जाँघ फड़कने लगी। तात! वाम अंगों का वह फड़कना सर्वथा अशुभ सूचक था और नाना प्रकार के कष्ट मलने की सूचना दे रहा था। उस समय दक्ष की यज्ञशाला में धरती डोलने लगी। दक्ष को दोप्हर के समय दिन में ही अद्भुत तारे दीखने लगे। दिशाएँ मलिन हो गयीं। सूर्यमण्डल चितकबरा दीखने लगा। उस पर हजारों घेरे पड़ गये, जिससे वह भयंकर जान पड़ता था। बिजली और अग्नि के समान दीप्तिमान् तारे टूट-टूट कर गिरने लगे तथा और भी बहुत-से भयानक अपशकुन होने लगे।
इसी बीच में वहाँ आकाशवाणी प्रकट हुई जो सम्पूर्ण देवताओं और विशेषतः दक्ष को अपनी बात सुनाने लगी।
आकाशवाणी बोली – ओ दक्ष! आज तेरे जन्म को धिक्कार है! तू महामूढ़ और पापात्मा है। भगवान् हर की ओर से आज तुझे महान् दुःख प्राप्त होगा, जो किसी तरह टल नहीं सकता। अब यहाँ तेरा हाहाकार भी नहीं सुनायी देगा। जो मूढ़ देवता आदि तेरे यज्ञ में स्थित हैं, उनको भी महान् दुःख होगा – इसमें संशय नहीं है।
ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! आकाशवाणी की यह बात सुनकर और पूर्वोक्त अशुभसूचक लक्षणों को देखकर दक्ष तथा दूसरे देवता आदि को भी अत्यन्त भय प्राप्त हुआ। उस समय दक्ष मन-ही-मन अत्यन्त व्याकुल हो काँपने लगे और अपने प्रभु लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु की शरण में गये। वे भय से अधीर हो बेसुध हो रहे थे। उन्होंने स्वजन वत्सल देवाधिदेव भगवान् विष्णु को प्रणाम किया और उनकी स्तुति करके कहा।
(अध्याय ३३ - ३४)