दक्ष के यज्ञ की रक्षा के लिये भगवान् विष्णु से प्रार्थना, भगवान् का शिवद्रोह जनित संकट को टालने में अपनी असमर्थता बताते हुए दक्ष को समझाना तथा सेना सहित वीरभद्र का आगमन
दक्ष बोले – देवदेव! हरे! विष्णो! दीनबन्धो! कृपानिधे! आपको मेरी और मेरे यज्ञ की रक्षा करनी चाहिये। प्रभो! आप ही यज्ञ के रक्षक हैं, यज्ञ ही आपका कर्म है और आप यज्ञस्वरूप हैं। आपको ऐसी कृपा करनी चाहिये, जिससे यज्ञ का विनाश न हो।
ब्रह्माजी कहते हैं – मुनीएवर! इस तरह अनेक प्रकार से सादर प्रार्थना करके दक्ष भगवान् श्रीहरि के चरणों में गिर पड़े। उनका चित्त भय से व्याकुल हो रहा था। तब जिनके मन में घबराहट आ गयी थी, उन प्रजापति दक्ष को उठाकर और उनकी पूर्वोक्त बात सुनकर भगवान् विष्णु ने देवाधिदेव शिव का स्मरण किया। अपने प्रभु एवं महान् ऐएवर्य से युक्त परमेश्वर शिव का स्मरण करके शिवतत्त्व के ज्ञाता श्रीहरि दक्ष को समझाते हुए बोले।
श्रीहरि ने कहा – दक्ष! मैं तुमसे तत्त्व की बात बता रहा हूँ। तुम मेरी बात ध्यान देकर सुनो। मेरा यह वचन तुम्हारे लिये सर्वथा हितकर तथा महामन्त्र के समान सुखदायक होगा। दक्ष! तुम्हें तत्त्व का ज्ञान नहीं है। इसलिये तुमने सबके अधिपति परमात्मा शंकर की अवहेलना की है। ईश्वर की अवहेलना से सारा कार्य सर्वथा निष्फल हो जाता है। केवल इतना ही नहीं, पग-पग पर विपत्ति भी आती है। जहाँ अपुज्य पुरुषों की पूजा होती है और पूजनीय पुरुष की पूजा नहीं की जाती, वहाँ दरिद्रता, मृत्यु तथा भय – ये तीन संकट अवश्य प्राप्त होंगे। [* ईश्वरावज्ञया सर्वं॑ कार्यं॑ भवति सर्वथा। विफलं केवलं नैव विपत्तिश्व पदे पदे॥ अपूज्या यत्र पूज्यन्ते पूजनीयो न पूज्यते। त्रीणि तत्र भविष्यन्ति दारिद्रयं मरणं भयम्॥ शिवपुराण रुद्रसंहिता ८-९] इसलिये सम्पूर्ण प्रयत्न से तुम्हें भगवान् वृषभध्वज का सम्मान करना चाहिये। महेश्वर का अपमान करने से ही तुम्हारे ऊपर महान् भय उपस्थित हुआ है। हम सब लोग प्रभु होते हुए भी आज तुम्हारी दुर्नीति के कारण जो संकट आया है, उसे टालने में समर्थ नहीं हैं। यह मैं तुमसे सच्ची बात कहता हूँ।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! भगवान् विष्णु का यह वचन सुनकर दक्ष चिन्ता में डूबे गये। उनके चेहरे का रंग उड़ गया और वे चुपचाप पृथ्वी पर खड़े रह गये। इसी समय भगवान् रुद्र के भेजे हुए गणनायक वीरभद्र अपनी सेना के साथ यज्ञस्थल में जा पहुँचे। वे सब-के-सब बड़े शूरवीर, निर्भय तथा रुद्र के समान ही पराक्रमी थे। भगवान् शंकर की आज्ञा से आये हुए उन गणों की गणना असम्भव थी। वे वीरशिरोमणि रुद्रसैनिक जोर-जोर से सिंहनाद करने लगे। उनके उस महानाद से तीनों लोक गूँज उठे। आकाश धूल से ढक गया और दिशाएँ अन्धकार से आवृत हो गयीं। सातों द्वीपों से युक्त पृथ्वी अत्यन्त भय से व्याकुल हो पर्वत, वन और काननों सहित काँपने लगी तथा सम्पूर्ण समुद्रों में ज्वार आ गया। इस प्रकार समस्त लोकों का विनाश करने में समर्थ उस विशाल सेना को देखकर समस्त देवता आदि चकित हो गये। सेना के उद्योग को देख दक्ष के मुँह से खून निकल आया। वे अपनी स्त्री को साथ ले भगवान् विष्णु के चरणों में दण्ड की भाँति गिर पड़े और इस प्रकार बोले।
दक्ष ने कहा – विष्णो! महाप्रभो! आपके बल से ही मैंने इस महान् यज्ञ का आरम्भ किया है। सत्कर्म की सिद्धि के लिये आप ही प्रमाण माने गये हैं। विष्णो! आप कर्मो के साक्षी तथा यज्ञों के प्रतिपालक हैं। महाप्रभो! आप वेदोक्त धर्म तथा ब्रह्माजीके रक्षक हैं। अतः प्रभो! आपको मेरे इस यज्ञ की रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि आप सबके प्रभु हैं।
ब्रह्माजी कहते हैं – दक्ष की अत्यन्त दीनतापूर्ण बात सुनकर भगवान् विष्णु उस समय शिवतत्त्व से विमुख हुए दक्ष को समझाने के लिये इस प्रकार बोले।
श्रीविष्ण ने कहा – दक्ष! इसमें संदेह नहीं कि मुझे तुम्हारे यज्ञ की रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि धर्म-परिपालन विषयक जो मेरी सत्य प्रतिज्ञा है, वह सर्वत्र विख्यात है। परंतु दक्ष! मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे तुम सुनो। इस समय अपनी क्रूरतापूर्ण बुद्धि को त्याग दो। देवताओं के क्षेत्र नैमिषारण्य में जो अद्भुत घटना घटित हुई थी, उसका तुम्हें स्मरण नहीं हो रहा है। क्या तुम अपनी कुबुद्धि के कारण उसे भूल गये? यहाँ कौन भगवान् रुद्र के कोप से तुम्हारी रक्षा करने में समर्थ है। दक्ष! तुम्हारी रक्षा किसको अभिमत नहीं है? परंतु जो तुम्हारी रक्षा करने को उद्यत होता है, वह अपनी दुर्बुद्धि का ही परिचय देता है। दुर्मते! क्या कर्म है और क्या अकर्म, इसे तुम नहीं समझ पा रहे हो। केवल कर्म ही कभी कुछ करने में समर्थ नहीं हो सकता। जिसके सहयोग से कर्म में कुछ करने का सामर्थ्य आती है, उसी को तुम स्वकर्म समझो। भगवान् शिव के बिना दूसरा कोई कर्म में कल्याण करने की शक्ति देनेवाला नहीं है। जो शान्त हो ईश्वर में मन लगाकर उनकी भक्तिपूर्वक कार्य करता है, उसी को भगवान् शिव तत्काल उस कर्म का फल देते हैं। जो मनुष्य केवल ज्ञान का सहारा ले अनीश्वरवादी हो जाते या ईश्वर को नहीं मानते हैं, वे शतकोटि कल्पों तक नरक में ही पड़े रहते हैं। [* केवलं ज्ञानमाश्रित्य निरीश्वरपर परा नराः। निरयं ते च गच्छन्ति कल्पकोटिशतानि च॥ शिवपुराण रुद्रसंहिता ३१] फिर वे कर्मपाश में बँधे हुए जीव प्रत्येक जन्म में नरकों की यातना भोगते हैं; क्योंकि वे केवल सकाम कर्म के ही स्वरूप का आश्रय लेनेवाले होते हैं।
ये शत्रुमर्दन वीरभद्र, जो यज्ञशाला के आँगन में आ पहुँचे हैं, भगवान् रुद्र की क्रोधाग्नि से प्रकट हुए हैं। इस समय समस्त रुद्रगणों के नायक ये ही हैं। ये हम लोगों के विनाश के लिये आये हैं, इसमें संशय नहीं है। कोई भी कार्य क्यों न हो; वस्तुतः इनके लिये कुछ भी अशक्य है ही नहीं। ये महान् सामर्थ्यशाली वीरभद्र सब देवताओं को अवश्य जलाकर ही शान्त होंगे – इसमें संशय नहीं जान पड़ता। मैं भ्रम से महादेवजी की शपथ का उल्लंघन करके जो यहाँ ठहरा रहा, उसके कारण तुम्हारे साथ मुझे भी इस कष्ट का सामना करना ही पड़ेगा।
भगवान् विष्णु इस प्रकार कह ही रहे थे कि वीरभद्र के साथ शिवगणों की सेना का समुद्र उमड़ आया। समस्त देवता आदि ने उसे देखा।
(अध्याय ३५)