देवताओं का पलायन, इन्द्र आदि के पूछने पर बृहस्पति का रुद्रदेव की अजेयता बताना, वीरभद्र का देवताओं को युद्ध के लिये ललकारना, श्रीविष्णु और वीरभद्र की बातचीत तथा विष्णु आदि का अपने लोक में जाना एवं दक्ष और यज्ञ का विनाश करके वीरभद्र का कैलास को लौटना

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! उस समय देवताओं के साथ शिवगणों का घोर युद्ध आरम्भ हो गया। उसमें सारे टेवता पराजित हुए और भागने लगे। वे एक-दूसरे का साथ छोड़कर स्वर्गलोक में चले गये। उस समय केवल महाबली इन्द्र आदि लोकपाल ही उस दारुण संग्राम में धेर्य धारण करके उत्सुकतापूर्वक खड़े रहे। तदनन्तर इन्द्र आदि सब देवता मिलकर उस समरांगण में बृहस्पतिजी को विनीत भाव से नमस्कार करके पूछने लगे।

लोकपाल बोले – गुरुदेव बृहस्पते! तात! महाप्राज्ञ! दयानिधे! शीघ्र बताइये, हम जानना चाहते हैं कि हमारी विजय कैसे होगी?

उनकी यह बात सुनकर बृहस्पति ने प्रयलपूर्वक भगवान्‌ शम्भु का स्मरण किया और ज्ञानदुर्बल महेन्द्र से कहा।

बृहस्पति बोले – इन्द्र! भगवान्‌ विष्णु ने पहले जो कुछ कहा था, वह सब इस समय घटित हो गया। मैं उसी को स्पष्ट कर रहा हूँ। सावधान होकर सुनो। समस्त कर्मों का फल देनेवाला जो कोई ईश्वर है, वह कर्ता का ही आश्रय लेता है – कर्म करनेवाले को ही उस कर्म का फल देता है। जो कर्म करता ही नहीं, उसको फल देने में वह भी समर्थ नहीं है (अतः जो ईश्वर को जानकर उसका आश्रय लेकर सत्कर्म करता है, उसी को उस कर्म का फल मिलता है, ईश्वर-द्रोही को नहीं)। न मन्त्र, न ओषधियाँ, न समस्त आभिचारिक कर्म, न लौकिक पुरुष, न कर्म, न वेद, न पूर्व और उत्तरमीमांसा तथा न नाना वेदों से युक्त अन्यान्य शास्त्र ही ईश्वर को जानने में समर्थ होते हैं – ऐसा प्राचीन विद्वानों का कथन है। अनन्यशरण भक्तों को छोड़कर दूसरे लोग सम्पूर्ण वेदों का दस हजार बार स्वाध्याय करके भी महेश्वर को भलीभाँति नहीं जान सकते – यह महाश्रुति का कथन है। अवश्य भगवान्‌ शिव के अनुग्रह से ही सर्वथा शान्त, निर्विकार एवं उत्तम दृष्टि से सदाशिव के तत्त्व का साक्षात्कार (ज्ञान) हो सकता है। सुरेश्वर! क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य, इसका विवेचन करना अभीष्ट होने पर मैं जो इसमें सिद्धि का उत्तम अंश है, उसी का प्रतिपादन करूँगा। तुम अपने हित के लिये उसे ध्यान देकर सुनो। इन्द्र! तुम लोकपालों के साथ आज नादान बनकर दक्ष-यज्ञ में आ गये। बताओ तो, यहाँ क्या पराक्रम करोगे? भगवान्‌ रुद्र जिनके सहायक हैं, ऐसे ये परम क्रोधी रुद्रणण इस यज्ञ में विघ्न डालने के लिये आये हैं और अपना काम पूरा करेंगे – इसमें संशय नहीं है। मैं सत्य-सत्य कहता हूँ कि इस यज्ञ के विघ्न का निवारण करने के लिये वस्तुतः तुममें से किसी के पास भी सर्वथा कोई उपाय नहीं है।

बृहस्पति की यह बात सुनकर वे इन्द्र सहित समस्त लोकपाल बड़ी चिन्ता में पड़ गये। तब महावीर रुद्रगणों से घिरे हुए वीरभद्र ने मन-ही-मन भगवान्‌ शंकर का स्मरण करके इन्द्र आदि लोकपालों को डाँटा और इसके पश्चात्‌ रुद्रगणों के नायक वीरभद्र ने रोष से भरकर तुरंत ही सम्पूर्ण देवताओं को तीखे बाणों से घायल कर दिया। उन ब्राणों की चोट खाकर इन्द्र आदि समस्त सुरेश्वर भागते हुए दसों दिशाओ में चले गये। जब लोकपाल चले गये और देवता भाग खड़े हुए तब वीरभद्र अपने गणों के साथ यज्ञशाला के समीप गये। उस समय वहाँ विद्यमान समस्त ऋषि अत्यन्त भयभीत हो परमेश्वर श्रीहरि से रक्षा की प्रार्थना करने के लिये सहसा नतमस्तक हो शीघ्र बोले – देवदेव! रमानाथ! सर्वेश्वर! महाप्रभो! आप दक्ष के यज्ञ की रक्षा कीजिये। आप ही यज्ञ हैं, इसमें संशय नहीं है। यज्ञ आपका कर्म, रूप और अंग है। आप यज्ञ के रक्षक हैं। अतः दक्ष-यज्ञ की रक्षा कीजिये। आपके सिवा दूसरा कोई इसका रक्षक नहीं है।'

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! ऋषियों का यह वचन सुनकर मेरे सहित भगवान्‌ विष्णु वीरभद्र के साथ युद्ध करने की इच्छा से चले। श्रीहरि को युद्ध के लिये उद्यत देख शत्रुमर्दन वीरभद्र, जो वीर प्रमथगणों से घिरे हुए थे, कड़े शब्दों में भगवान्‌ विष्णु को डाँटने लगे।

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! वीरभद्र की यह बात सुनकर बुद्धिमान्‌ देवेश्वर विष्णु वहाँ प्रसन्ततापूर्वक हँसते हुए बोले।

श्रीविष्णु ने कहा – वीरभद्र! आज तुम्हारे सामने मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे सुनो – मैं भगवान्‌ शंकर का सेवक हूँ, तुम मुझे रुद्रदेव से विमुख न कहो। दक्ष अज्ञानी है। कर्मकाण्ड में ही इसकी निष्ठा है। इसने मूढ़तावश पहले मुझसे बारंबार अपने यज्ञ में चलने के लिये प्रार्थना की थी। मैं भक्त के अधीन ठहरा, इसलिये चला आया। भगवान् महेश्वर भी भक्त के अधीन रहते हैं। तात! दक्ष मेरा भक्त है। इसीलिये मुझे यहाँ आना पड़ा है। रुद्र के क्रोध से उत्पन्न हुए वीर! तुम रुद्र-तेजःस्वरूप हो, उत्तम प्रताप के आश्रय हो, मेरी प्रतिज्ञा सुनो। मैं तुम्हें आगे बढ़ने से रोकता हूँ और तुम मुझे रोको। परिणाम वही होगा, जो होने वाला होगा। मैं पराक्रम करूँगा।

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! भगवान्‌ विष्णु के ऐसा कहने पर महाबाहु वीरभद्र हँसकर बोला – 'आप मेरे प्रभु के प्रिय भक्त हैं, यह जानकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है।' इतना कहकर गणनायक वीरभद्र हँस पड़ा और विनय से नतमस्तक हो बड़ी प्रसन्नता के साथ श्रीविष्णुदेव से कहने लगा।

वीरभद्र ने कहा – महाप्रभो! मैंने आपके भाव की परीक्षा के लिये कड़ी बातें कही थीं। इस समय यथार्थ बात कहता हूँ, सावधान होकर सुनो। हरे! जैसे शिव हैं, वैसे आप हैं। जैसे आप हैं, वैसे शिव हैं। ऐसा वेद कहते हैं और वेदों का यह कथन शिव की आज्ञा के अनुसार ही है। [* यथा शिवस्तथा त्वं हि यथा त्वं च तथा शिवः। इति वेदा वर्णयन्ति शिवशासनतो हरे॥ शिवपुराण रुद्रसंहिता ६६] रमानाथ! भगवान्‌ शिव की आज्ञा से हम सब लोग उनके सेवक ही हैं; तथापि मैंने जो बात कही है, वह इस वाद-विवाद के अवसर के अनुरूप ही है। आप मेरी हर बात को आपके प्रति आदर के भाव से ही कही गयी समझिये।

ब्रह्माजी कहते हैं – वीरभद्र का यह वचन सुनकर भगवान्‌ श्रीहरि हँस पड़े और उसके लिये हितकर वचन बोले।

श्रोविष्ण ने कहा – महावीर! तुम मेरे साथ निःशंक होकर युद्ध करो। तुम्हारे अस्त्रों से शरीर के भर जाने पर ही मैं अपने आश्रम को जाऊँगा।

ब्रह्माजी कहते हैं – ऐसा कहकर भगवान्‌ विष्णु चुप हो गये और युद्ध के लिये कमर कसकर डट गये। महाबली वीरभद्र भी अपने गणों के साथ युद्ध के लिये तैयार हो गये।

नारद! तदनन्तर भगवान्‌ विष्णु और वीरभद्र में घोर युद्ध हुआ। अन्त में वीरभद्र ने भगवान्‌ विष्णु के चक्र को स्तम्भित कर दिया तथा शार्ङग्धनुष के तीन टुकड़े कर डाले। तब मेरे द्वारा एवं सरस्वती द्वारा बोधित हुए श्रीविष्णु ने उस महान्‌ गणनायक वीरभद्र को असह् तेज से सम्पन्न जानकर वहाँ से अन्तर्धान होने का विचार किया। दूसरे देवता भी यह जान गये कि सती के प्रति जो अन्याय हुआ है, उसी का यह सब भावी परिणाम है। दूसरों के लिये इस संकट का सामना करना अत्यन्त कठिन है। यह जानकर वे सब देवता अपने सेवकों के साथ स्वतन्त्र सर्वेश्वर शिव का स्मरण करके अपने-अपने लोक को चले गये। मैं भी पुत्र के दुःख से पीड़ित हो सत्यलोक में चला आया और अत्यन्त दुःख से आतुर हो सोचने लगा कि अब मुझे क्या करना चाहिये। मेरे तथा विष्णु के चले जाने पर मुनियों सहित समस्त यज्ञ के आधार रहनेवाले देवता शिवगणों द्वारा पराजित हो भाग गये। उस उपद्रव को देखकर और उस महामख का विध्वंस निकट जानकर वह यज्ञ भी अत्यन्त भयभीत हो मृग का रूप धारण करके वहाँ से भागा। मृग के रूप में आकाश की ओर भागते देख वीरभद्र ने उसे पकड़ लिया और उसका मस्तक काट डाला। फिर उन्होंने मुनियों तथा देवताओं के अंग भंग कर दिये और बहुतों को मार डाला। प्रतापी मणिभद्र ने भृगु को उठाकर पटक दिया और उनकी छाती को पैर से दबाकर तत्काल उनकी दाढ़ी-मूँछ नोच ली। चण्ड ने बड़े वेग से पूषा के दाँत उखाड़ लिये; क्योंकि पूर्वकाल में जिस समय महादेवजी को दक्ष के द्वारा गालियाँ दी जा रही थीं, उस समय वे दाँत दिखा-दिखा कर हुँसे थे। नन्दी ने भृगु को रोषपूर्वक पृथ्वी पर दे मारा और उनकी दोनों आँखें निकाल लीं; क्योंकि जब दक्ष शिवजी को शाप दे रहे थे, उस समय वे आँखों के संकेत से अपना अनुमोदन सूचित कर रहे थे। वहाँ रुद्रगणनायकों ने स्वधा, स्वाहा और दक्षिणा देवियों की बड़ी विडम्बना (दुर्दशा) की। वहाँ जो मन्त्र-तन्त्र तथा दूसरे लोग थे, उनका भी बहुत तिरस्कार किया। ब्रह्मपुत्र दक्ष भय के मारे अन्तर्वेदी के भीतर छिप गये। वीरभद्र उनका पता लगाकर उन्हें बलपूर्वक पकड़ लाये। फिर उनके दोनों गाल पकड़ कर उन्होंने उनके मस्तक पर तलवार से आघात किया। परंतु योग के प्रभाव से दक्ष का सिर अभेद्य हो गया था, इसलिये कट नहीं सका। जब वीरभद्र को ज्ञात हुआ कि सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों से इनके मस्तक का भेदन नहीं हो सकता, तब उन्होंने दक्ष की छाती पर पैर रखकर दबाया और दोनों हाथों से गर्दन मरोड़ कर तोड़ डाली। फिर शिवद्रोही दुष्ट दक्ष के उस सिर को गणनायक वीरभद्र ने अग्निकुण्ड में डाल दिया। तदनन्तर जैसे सूर्य घोर अन्धकार-राशि का नाश करके उदयाचल पर आरूढ़ होते हैं, उसी प्रकार वीरभद्र दक्ष और उनके यज्ञ का विध्वंस करके कृतकार्य हो तुरंत ही वहाँ से उत्तम कैलास परवत को चले गये। वीरभद्र को काम पूरा करके आया देख परमेश्वर शिव मन-ही-मन बहुत संतुष्ट हुए और उन्होने उन्हें वीर प्रमथगणों का अध्यक्ष बना दिया।

(अध्याय ३६ - ३७)