श्रीविष्णु और देवताओं से अपराजित दधीचि का उनके लिये शाप और क्षुव पर अनुग्रह

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! भक्तवत्सल भगवान् विष्णु राजा क्षुव का हित-साधन करने के लिये ब्राह्मण का रूप धारण कर दधीचि के आश्रम पर गये। वहाँ उन जगदगुरु श्रीहरि ने शिवभक्तशिरोमणि ब्रह्मर्षि दधीचि को प्रणाम करके क्षुव के कार्य की सिद्धि के लिये उद्यत हो उनसे यह बात कही।

श्रीविष्णु बोले – भगवान् शिव की आराधना में तत्पर रहने वाले अविनाशी ब्रह्मर्षि दधीचि! मैं तुमसे एक वर माँगता हूँ। उसे तुम मुझे दे दो।

क्षुव के कार्य की सिद्धि चाहनेवाले देवाधिदेव श्रीहरि के इस प्रकार याचना करने पर शैवशिरोमणि दधीचि ने शीघ्र ही भगवान् विष्णु से इस प्रकार कहा –

दधीचि बोले – ब्रह्मन्! आप क्या चाहते हैं, यह मुझे ज्ञात हो गया। आप क्षुव का काम बनाने के लिये साक्षात् भगवान् श्रीहरि ही ब्राह्मण का रूप धारण करके यहाँ आये हैं। इसमें संदेह नहीं कि आप पुरे मायावी हैं। किंतु देवेश! जनार्दन! मुझे भगवान् रुद्र की कृपा से भूत, भविष्य और वर्तमान – तीनों कालों का ज्ञान सदा ही बना रहता है। सुव्रत! मैं आपको जानता हूँ। आप पापहारी श्रीहरि एवं विष्णु हैं। यह ब्राह्मण का वेश छोड़िये। दुष्ट बुद्धिवाले राजा क्षुव ने आपकी आराधना की है। (इसीलिये आप पधारे हैं) भगवन्! हरे! आपकी भक्तवत्सलता को भी मैं जानता हाँ। यह छल छोड़िये। अपने रूप को ग्रहण कीजिये और भगवान् शंकर के स्मरण में मन लगाइये। मैं भगवान् शंकर की आराधना में लगा रहता हूँ। ऐसी दशा में भी यदि मुझसे किसी को भय हो तो आप उसे यत्नपूर्वक सत्य की शपथ के साथ कहिये। मेरा मन शिव के स्मरण में ही लगा रहता है। मैं कभी झूठ नहीं बोलता। इस संसार में किसी देवता या दैत्य से भी मझे भय नहीं होता।

श्रीविष्णु बोले – उत्तम व्रत का पालन करने वाले दधीचि! तुम्हारा भय सर्वथा नष्ट ही है; क्योंकि तुम शिव की आराधना में तत्पर रहते हो। इसलिये सर्वज्ञ हो। परंतु मेरे कहने से तुम एक बार अपने प्रतिद्वन्द्वी राजा क्षुव से जाकर कह दो कि 'राजेन्द्र! मैं तुमसे डरता हूँ।'

भगवान् विष्णु का यह वचन सुनकर भी शैवशिरोमणि महामुनि दधीचि निर्भय ही रहे और हँसकर बोले।

दधीचि ने कहा – मैं देवाधिदेव पिनाकपाणि भगवान् शम्भु के प्रसाद से कहीं, कभी किसी से और किंचिन्मात्र भी नहीं डरता – सदा ही निर्भय रहता हूँ।

इसपर श्रीहरि ने मुनि को दबाने की चेष्टा की। देवताओं ने भी उनका साथ दिया; किंतु सबके सभी अस्त्र कुण्ठित हो गये। तदनन्तर भगवान् श्रीविष्णु ने अगणित गणों की सृष्टि की। परंतु महर्षि ने उनको भी भस्म कर दिया। तब भगवान् ने अपनी अनन्त विष्णुमूर्ति प्रकट की। यह सब देखकर च्यवनकुमार ने वहाँ जगदीश्वर भगवान् विष्णु से कहा –

दधीचि बोले – महाबाहो! माया को त्याग दीजिये। विचार करने से यह प्रतिभास मात्र प्रतीत होती है। माधव! मैंने सहस्त्रों दुर्विज्ञेय वस्तुओं को जान लिया है। आप मुझमें अपने सहित सम्पूर्ण जगत् को देखिये। निरालस्य होकर मुझमें ब्रह्मा एवं रुद्र का भी दर्शन कीजिये। मैं आपको दिव्य दृष्टि देता हूँ।

ऐसा कहकर भगवान् शिव के तेज से पूर्ण शरीरवाले च्यवनकुमार दधीचि मुनि ने अपनी देह में समस्त ब्रह्माण्ड का दर्शन कराया। तब भगवान् विष्णु ने उनपर पुनः कोप करना चाहा। इतने में ही मेरे साथ राजा क्षुव वहाँ आ पहुँचे। मैंने निश्चेष्ट खड़े हुए भगवान् पद्मनाभ को तथा देवताओं को क्रोध करने से रोका। मेरी बात सुनकर इन लोगों ने ब्राह्मण दधीचि को परास्त नहीं किया। श्रीहरि उनके पास गये और उन्होंने मुनि को प्रणाम किया। तदनन्तर क्षुव अत्यन्त दीन हो उन मुनीश्वर दधीचि के निकट गये और उन्हें प्रणाम करके प्रार्थना करने लगे।

क्षुव बोले – मुनिश्रेष्ठ! शिवभक्त शिरोमणे! मुझ पर प्रसन्न होइये। परमेश्वर! आप दुर्जनों की दृष्टि से दूर रहने वाले हैं। मुझ पर कृपा कीजिये।

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! राजा क्षुव की यह बात सुनकर तपस्या की निधि ब्राह्मण दधीचि ने उन पर अनुग्रह किया। तत्पश्चात् श्रीविष्णु आदि को देखकर वे मुनि क्रोध से व्याकुल हो गये और मन-ही-मन शिव का स्मरण करके विष्णु तथा देवताओं को शाप देने लगे।

दधीचि ने कहा – देवराज इन्द्र सहित देवताओं और मुनीश्वरो! तुम लोग रुद्र की क्रोधाग्नि से श्रीविष्णु तथा अपने गणों सहित पराजित और ध्वस्त हो जाओ।

देवताओं को इस तरह शाप दे क्षुव की ओर देखकर देवताओं और राजाओं के पूजनीय द्विजश्रेष्ठ दधीचि ने कहा – 'राजेन्द्र! ब्राह्मण ही बली और प्रभावशाली होते हैं।' ऐसा स्पष्ट रूप से कहकर ब्राह्मण दधीचि अपने आश्रम में प्रविष्ट हो गये। फिर दधीचि को नमस्कार मात्र करके क्षुव अपने घर चले गये। तत्पश्चात् भगवान् विष्णु देवताओं के साथ जैसे आये थे, उसी तरह अपने वैकुण्ठ लोक को लौट गये। इस प्रकार वह स्थान स्थानेश्वर नामक तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हो गया। स्थानेश्वर की यात्रा करके मनुष्य शिव का सायुज्य प्राप्त कर लेता है। तात! मैंने तुम्हें संक्षेप से क्षुव और दधीचि के विवाद की कथा सुनायी और भगवान् शंकर को छोड़कर केवल ब्रह्मा और विष्णु को ही जो शाप प्राप्त हुआ, उसका भी वर्णन किया। जो क्षुव और दधीचि के विवाद सम्बन्धी इस प्रसंग का नित्य पाठ करता है, वह अपमृत्यु को जीत कर देहत्याग के पश्चात् ब्रह्मलोक में जाता है। जो इसका पाठ करके रणभूमि में प्रवेश करता है, उसे कभी मृत्यु का भय नहीं होता तथा वह निश्चय ही विजयी होता है।

(अध्याय ३९)