देवताओं सहित ब्रह्मा का विष्णुलोक में जाकर अपना दुःख निवेदन करना, श्रीविष्णु का उन्हें शिव से क्षमा माँगने की अनुमति दे उनको साथ ले कैलास पर जाना तथा भगवान् शिव से मिलाना
नारदजी ने कहा – विधातः! महाप्राज्ञ! आप शिवतत्त्व का साक्षात्कार कराने वाले हैं। आपने यह बड़ी अद्भुत एवं रमणीय शिवलीला सुनायी है। तात! वीर वीरभद्र जब दक्ष के यज्ञ का विनाश करके कैलास पर्वत पर चले गये, तब क्या हुआ? यह हमें बताइये।
ब्रह्माजी बोले – नारद! रुद्रदेव के सैनिकों ने जिनके अंग-भंग कर दिये थे, वे समस्त पराजित देवता और मुनि उस समय मेरे लोक में आये। वहाँ मुझ स्वयम्भू को नमस्कार करके सबने बारंबार मेरा स्तवन किया। फिर अपने विशेष क्लेश को पूर्ण रूप से सुनाया। उसे सुनकर मैं पुत्रशोक से पीड़ित हो गया और अत्यन्त व्यग्र हो व्यथित चित्त से बड़ी चिन्ता करने लगा। फिर मैंने भक्तिभाव से भगवान् विष्णु का स्मरण किया। इससे मुझे समयोचित ज्ञान प्राप्त हुआ। तदनन्तर देवताओं और मुनियों के साथ मैं विष्णुलोक में गया और वहाँ भगवान् विष्णु को नमस्कार एवं नाना प्रकार के स्तोत्रों द्वारा उनकी स्तुति करके उनसे अपना दुःख निवेदन किया। मैंने कहा – 'देव! जिस तरह भी यज्ञ पूर्ण हो, यजमान जीवित हो और समस्त देवता तथा मुनि सुखी हो जायँ, वैसा उपाय कीजिये। देवदेव! रमानाथ! देवसुखदायक विष्णो! हम देवता और मुनि निश्चय ही आपकी शरण में आये हैं।'
मुझ ब्रह्मा की यह बात सुनकर भगवान् लक्ष्मीपति विष्णु, जिनका मन सदा शिव में लगा रहता है और जिनके हृदय में कभी दीनता नहीं आती, शिव का स्मरण करके इस प्रकार बोले।
श्रीविष्णु ने कहा – देवताओं! परम समर्थ तेजस्वी पुरुष से कोई अपराध बन जाय तो भी उसके बदले में अपराध करने वाले मनुष्यों के लिये वह अपराध मंगलकारी नहीं हो सकता। विधातः! समस्त देवता परमेश्वर शिव के अपराधी हैं; क्योंकि इन्होंने भगवान् शम्भु को यज्ञ का भाग नहीं दिया। अब तुम सब लोग शुद्ध हृदय से शीघ्र ही प्रसन्न होने वाले उन भगवान् शिव के पैर पकड़ कर उन्हें प्रसन्न करो। उनसे क्षमा माँगो। जिन भगवान् के कुपित होने पर यह सारा जगत् नष्ट हो जाता है तथा जिनके शासन से लोकपालों सहित यज्ञ का जीवन शीघ्र ही समाप्त हो जाता है, वे भगवान् महादेव इस समय अपनी प्राणवल्लभा सती से बिछुड़ गये हैं तथा अत्यन्त दुरात्मा दक्ष ने अपने दुर्वचनरूपी बाणों से उनके हृदय को पहले से ही घायल कर दिया है; अतः तुम लोग शीघ्र ही जाकर उनसे अपने अपराधों के लिये क्षमा माँगो। विधे! उन्हें शान्त करने का केवल यही सबसे बड़ा उपाय है। मैं समझता हूँ ऐसा करने से भगवान् शंकर को संतोष होगा। यह मैंने सच्ची बात कही है। ब्रह्मन्! मैं भी तुम सब लोगों के साथ शिव के निवास-स्थान पर चलूँगा और उनसे क्षमा माँगूँगा।
देवता आदि सहित मुझ ब्रह्मा को इस प्रकार आदेश देकर श्रीहरि ने देवगणों के साथ कैलास पर्वत पर जाने का विचार किया। तदनन्तर देवता, मुनि और प्रजापति आदि जिनके स्वरूप ही हैं, वे श्रीहरि उन सबको साथ ले अपने वैकुण्ठधाम से भगवान् शिव के शुभ निवास गिरिश्रेष्ठ कैलास को गये। कैलास भगवान् शिव को सदा ही अत्यन्त प्रिय है। मनुष्यों से भिन्न किंनर, अप्सराएँ और योगसिद्ध महात्मा पुरुष उसका भली-भांति सेवन करते हैं तथा वह पर्वत बहुत ही ऊँचा हैं। उसके निकट रुद्रदेव के मित्र कुबेर की अलका नामक महादिव्य एवं रमणीय पूरी है, जिसे सब देवताओं ने देखा। उस पूरी के पास ही सौगन्धिक वन भी देवताओं की दृष्टि में आया, जो सब प्रकार के वृक्षों से हरा-भरा एवं दिव्य था। उसके भीतर सर्वत्र सुगंध फैलानेवाले सौगन्धिक नामक कमल खिले हुए थे। उसके बाहरी भाग में नन्दा और अलकनन्दा – ये दो अत्यन्त पावन दिव्य सरिताएँ बहती हैं, जो दर्शन मात्र से प्राणियों के पाप हर लेती है। यक्षराज कुबेर की अलकापुरी और सौगन्धिक वन को पीछे छोड़कर आगे बढ़ते हुए देवताओं ने थोड़ी ही दूर पर शंकरजी के वटवृक्ष को देखा। उसने चारों ओर अपनी अविचल छाया फैला रखी थी। वह वृक्ष सौ योजन ऊँचा था और उसकी शाखाएँ पचहत्तर योजन तक फैली हुई थी। उस पर कोई घोंसला नहीं था और ग्रीष्म का ताप तो उससे सदा दूर ही रहता था। बड़े पुण्यात्मा पुरुषों को ही उसका दर्शन हो सकता है। वह परम रमणीय और अत्यन्त पावन है। वह दिव्य वृक्ष भगवान् शम्भु का योगस्थल है। योगियों के द्वारा सेव्य और परम उत्तम है। मुमुक्षुओं के आश्रयभूत उस महायोगमय वटवृक्ष के नीचे विष्णु आदि सब देवताओं ने भगवान् शंकर को विराजमान देखा। मेरे पुत्र महासिद्ध सनकादि, जो सदा शिव-भक्ति में तत्पर रहने वाले और शान्त हैं, बड़ी प्रसन्नता के साथ उनकी सेवा में बैठे थे। भगवान् शिव का श्रीविग्रह परम शान्त दिखायी देता था। उनके सखा कुबेर, जो गुह्यकों और राक्षसों के स्वामी हैं, अपने सेवक गणों तथा कुटुम्बीजनों के साथ सदा विशेष रूप से उनकी सेवा किया करते हैं। वे परमेश्वर शिव उस समय तपस्वीजनों को परमप्रिय लगनेवाला सुन्दर रूप धारण किये बैठे थे। भस्म आदि से उनके अंगों की बढ़ी शोभा हो रही थी। भगवान् शिव अपने वत्सल स्वभाव के कारण सारे संसार के सुह्रद् हैं। नारद! उस दिन वे एक कुशासन पर बैठे थे और सब संतों के सुनते हुए तुम्हारे प्रश्न करने पर तुम्हें उत्तम ज्ञान का उपदेश दे रहे थे। वे बायाँ चरण अपनी दायी जाँघ पर और बायाँ हाथ बायें घुटने पर रखे, कलाई में रुद्राक्ष की माला डाले सुन्दर तर्कमुद्रा [* तर्जनी को अँगूठे से जोड़कर और अन्य अँगुलियों को आपस में मिलाकर फैला देने से जो बन्ध सिद्ध जो बन्ध सिद्ध होता है, उसे 'तर्कमुद्रा' कहते हैं। इसीका नाम ज्ञानमुद्रा भी है।] से विराजमान थे।
इस रूप में भगवान् शिव का दर्शन करके उस समय विष्णु आदि सब देवताओं ने दोनों हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर तुरंत उनके चरणों में प्रणाम किया। मेरे साथ भगवान् विष्णु को आया देख सत्पुरुषों के आश्रयदाता भगवान् रुद्र उठकर खड़े हो गये और उन्होंने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम भी किया। फिर विष्णु आदि सब देवताओं ने जब भगवान् शिव को प्रणाम कर लिया, तब उन्होंने मुझे नमस्कार किया – ठीक उसी तरह, जैसे लोकों को उत्तम गति प्रदान करने वाले भगवान् विष्णु प्रजापति कश्यप को प्रणाम करते हैं। तत्पश्चात् देवताओं, सिद्धों, गणाधीशों और महर्षियों से नमस्कृत तथा स्वयं भी (श्रीविष्णु को ऐंव मुझको) नमस्कार करने वाले भगवान् शिव से श्रीहरि ने आदरपूर्वक वार्तालाप आरम्भ किया।
(अध्याय ४०)