देवताओं द्वारा भगवान् शिव की स्तुति, भगवान् शिव का देवता आदि के अंगों के ठीक होने और दक्ष के जीवित होने का वरदान देना, श्रीहरि आदि के साथ यज्ञ मण्डप में पधारकर शिव का दक्ष को जीवित करना तथा दक्ष और विष्णु आदि के द्वारा उनकी स्तुति
देवताओं ने भगवान् शिवजी की अत्यन्त विनय के साथ स्तुति करते हुए अन्त में कहा – आप पर (उत्कृष्ट), परमेश्वर, परात्पर तथा परात्परतर हैं। आप सर्वव्यापी विश्वमूर्ति महेश्वर को नमस्कार है। आप विष्णुकलत्र, विष्णुक्षेत्र, भानु, भैरव, शरणागतवत्सल, त्र्यम्बक तथा विहरणशील हैं। आप मृत्युंजय हैं। शोक भी आपका ही रूप है, आप त्रिगुण एवं गुणात्मा हैं। चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि आप के नेत्र हैं। आप सबके कारण तथा धर्ममर्यादा स्वरूप हैं। आपको नमस्कार है। आपने अपने ही तेज से सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त कर रखा है। आप निर्विकार, प्रकाशपूर्ण, चिदानन्दस्वरुप, परब्रह्म परमात्मा हैं। महेश्वर! ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र और चन्द्र आदि समस्त देवता तथा मुनि आपसे ही उत्पन्न हुए है। चूँकि आप अपने शरीर को आठ भागों में विभक्त करके समस्त संसार का पोषण करते हैं, इसलिये अष्टमूर्ति कहलाते हैं। आप ही सबके आदिकारण करुणामय ईश्वर है। आपके भय से यह वायु चलती है। आपके भय से अग्नि जलाने का काम करती है, आपके भय से अग्नि जलानेका काम करती है, आपके भय से सूर्य तपता है और आपके ही भय से मृत्यु सब ओर दौड़ती फिरती है। दयासिन्धो! महेशान! परमेश्वर! प्रसन्न होइये। हम नष्ट और अचेत हो रहे हैं। अतः सब ही हमारी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। नाथ! करुणानिधे! शम्भो! आपने अब तक नाना प्रकार की आपत्तियों से जिस तरह हमें सदा सुरक्षित रखा है, उसी तरह आज भी आप हमारी रक्षा कीजिये। नाथ! दुर्गेश! आप शीघ्र कृपा करके इस अपूर्ण यज्ञ का और प्रजापति दक्ष का भी उद्धार कीजिये। भग को अपनी आँखे मिल जायँ, यजमान दक्ष जीवित हो जायँ, पूषा के दाँत जम जायँ और भृगु की दाढ़ी-मूँछ पहले-जैसी हो जाय। शंकर! आयुधों और पत्थरों की वर्षा से जिनके अंग-भंग हो गये हैं, उन देवता आदि पर आप सर्वथा अनुग्रह करें, जिससे उन्हें पूर्णतः आरोग्य लाभ हो। नाथ! यज्ञकर्म पूर्ण होने पर जो कुछ शेष रहे, वह सब आपका पूरा-पूरा भाग हो (उसमें और कोई हस्तक्षेप न करे)। रुद्रदेव! आपके भाग से ही यज्ञ पूर्ण हो, अन्यथा नहीं।
ऐसा कहकर मुझ ब्रह्मा के साथ सभी देवता अपराध क्षमा कराने के लिये उद्यत हो हाथ जोड़ भूमि पर दण्ड के समान पड़ गये।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! मुझ ब्रह्मा, लोकपाल, प्रजापति तथा मुनियों सहित श्रीपति विष्णु के अनुनय-विनय करने पर परमेश्वर शिव प्रसन्न हो गये। देवताओं को आश्वासन दे हँसकर उनपर परम अनुग्रह करते हुए करुणानिधान परमेश्वर शिव ने कहा।
श्रीमहादेवजी बोले – सुरश्रेष्ठ ब्रह्मा और विष्णुदेव! आप दोनों सावधान होकर मेरी बात सुनें, मैं सच्ची बात कहता हूँ। तात! आप दोनों की सभी बातों को मैंने सदा माना है। दक्ष के यज्ञ का यह विध्वंस मैंने नहीं किया है। दक्ष स्वयं ही दूसरों से द्वेष करते हैं। दूसरों के प्रति जैसा बर्ताव किया जायगा, वह अपने लिये ही फलित होगा। अतः ऐसा कर्म कभी नहीं करना चाहिये, जो दूसरों को कष्ट देने वाला हो। [* परं द्वेष्टि परेषां यदात्मनस्तद्भविष्यति ॥ परेषां क्लेदनं कर्म न कार्यं तत्कदाचन। शिवपुराण रुद्रसंहिता ५-६] दक्ष का मस्तक जल गया है, इसलिये इनके सिर के स्थान में बकरे का सिर जोड़ दिया जाय; भग देवता मित्र की आँख से अपने यज्ञ भाग को देखें। तात! पूषा नामक देवता, जिनके दाँत टूट गये हैं, यजमान के दाँतों से भली-भांति पिसे गये यज्ञान्न का भक्षण करें। यह मैंने सच्ची बात बतायी है। मेरा विरोध करने वाले भृगु की दाढ़ी के स्थान में बकरे की दाढ़ी लगा दी जाय। शेष सभी देवताओं के, जिन्होंने मुझे यज्ञ भाग के रूप में यज्ञ की अविशिष्ट वस्तुएँ दी हैं, सारे अंग पहले की भाँति ठीक हो जायँ। अध्वर्यु आदि याज्ञिकों में से, जिनकी भुजाएँ टूट गयी हैं, वे अश्विनीकुमारों की भुजाओं से और जिनके हाथ नष्ट हो गये है, वे पूषा के हाथों से अपने काम चलायें। यह मैंने आप लोगों के प्रेमवश कहा है।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! ऐसा कहकर वेद का अनुसरण करने वाले सुरसम्राट् चराचरपति दयालु परमेश्वर महादेवजी चुप हो गये। भगवान् शंकर का वह भाषण सुनकर श्रीविष्णु और ब्रह्मा सहित सम्पूर्ण देवता संतुष्ट हो उन्हें तत्काल साधुवाद देने लगे। तदनन्तर भगवान् शम्भु को आमन्त्रित करके मुझ ब्रह्मा और देवर्षियों के साथ श्रीविष्णु अत्यन्त हर्षपूर्वक पुनः दक्ष की यज्ञशाला की ओर चले। इस प्रकार उनकी प्रार्थना से भगवान् शम्भु विष्णु आदि देवताओं के साथ कनखल में स्थित प्रजापति दक्ष की यज्ञशाला में पधारे। उस समय रुद्रदेव ने वहाँ यज्ञ का और विशेषतः देवताओं तथा ऋषियों का जो वीरभद्र के द्वारा विध्वंस किया गया था, उसे देखा। स्वाहा, स्वधा, पूषा, तुष्टि, धृति, सरस्वती, अन्य समस्त ऋषि, पितर, अग्नि तथा अन्यान्य बहुत-से यक्ष, गन्धर्व और राक्षस वहाँ पड़े थे। उनमें से कुछ लोगों के अंग तोड़ डाले गए थे, कुछ लोगों के बाल नोच लिये गए थे और कितने ही उस समरांगण में अपने प्राणों से हाथ धो बैठे थे। उस यज्ञ की वैसी दुरवस्था देखकर भगवान् शंकर ने अपने गणनायक महापराक्रमी वीरभद्र को बुलाकर हँसते हुए कहा – 'महाबाहू वीरभद्र! यह तुमने कैसा काम किया? तात! तुमने थोड़ी ही देर में देवता तथा ऋषि आदि को बड़ा भारी दण्ड दे दिया। वत्स! जिसने ऐसा द्रोह्पूर्ण कार्य किया, इस विलक्षण यज्ञ का आयोजन किया और जिसे ऐसा फल मिला, उस दक्ष को तुम शीघ्र यहाँ ले आओ।'
भगवान् शंकर के ऐसा कहने पर वीरभद्र ने बड़ी उतावली के साथ दक्ष का धड़ लाकर उनके सामने डाल दिया। दक्ष के उस शव को सिर से रहित देख लोककल्याणकारी भगवान् शंकर ने आगे खड़े हुए वीरभद्र से हँसकर पूछा – 'दक्ष का सिर कहाँ है?' तब प्रभावशाली वीरभद्र ने कहा – 'प्रभो शंकर! मैंने तो उसी समय दक्ष के सिर को आग में होम दिया था।' वीरभद्र की यह बात सुनकर भगवान् शंकर ने देवताओं को प्रसन्नतापूर्वक वैसी ही आज्ञा दी, जो पहले दे रखी थी। भगवान् भव ने उस समय जो कुछ कहा, उसकी मेरे द्वारा पूर्ति कराकर श्रीहरि आदि सब देवताओं ने भृगु आदि सबको शीघ्र ही ठीक कर दिया। तदनन्तर शम्भु के आदेश से प्रजापति के धड़ के साथ यज्ञपशु बकरे का सिर जोड़ दिया गया। उस सिर के जोड़े जाते ही शम्भु की शुभ दृष्टि पड़ने से प्रजापति के शरीर में प्राण आ गये और वे तत्काल सोकर जगे हुए पुरुष की भाँति उठकर खड़े हो गये। उठते ही उन्होंने अपने सामने करुणानिधि भगवान् शंकर को देखा। देखते ही दक्ष के हृदय में प्रेम उमड़ आया। उस प्रेम ने उनके अन्तःकरण को निर्मल एवं प्रसन्न कर दिया। पहले महादेवजी से द्वेष करने के कारण उनका अन्तःकरण मलिन हो गया था। परंतु उस समय शिव के दर्शन से वे तत्काल शरद्ऋतु के चन्द्रमा की भाँति निर्मल हो गये। उनके मन में भगवान् शिव की स्तुति करने का विचार उत्पन्न हुआ। परंतु वे अनुरागाधिक्य के कारण तथा अपनी मरी हुई पुत्री का स्मरण करके व्याकुल हो जाने के कारण तत्काल उनका सस््तवन न कर सके। थोड़ी देर बाद मन स्थिर होने पर दक्ष ने लज्जित हो लोकशंकर शिवशंकर को प्रणाम किया और उनकी स्तुति आरम्भ की। उन्होंने भगवान् शंकर की महिमा गाते हुए बारंबार उन्हें प्रणाम किया। फिर अन्त में कहा –
'परमेश्वर! आपने ब्रह्मा होकर सबसे पहले आत्मतत्त्व का ज्ञान प्राप्त करने के लिये अपने मुख से विद्या, तप और व्रत धारण करनेवाले ब्राह्मणों को उत्पन्न किया था। जैसे ग्वाला लाठी लेकर गौओं की रक्षा करता है, उसी प्रकार मर्यादा का पालन करनेवाले आप परमेश्वर दण्ड धारण किये उन साधु ब्राह्मणों की सभी विपत्तियों से रक्षा करते हैं। मैंने दुर्वचनरूपी बाणों से आप परमेश्वर को बींध डाला था। फिर भी आप मुझ पर अनुग्रह करने के लिये यहाँ आ गये। अब मेरी ही तरह अत्यन्त दैन्यपूर्ण आशावाले इन देवताओं पर भी कृपा कीजिये। भक्तवत्सल! दीनबन्धो! शम्भो! मुझमें आपको प्रसन्न करने के लिये कोई गुण नहीं है। आप षड्विध ऐश्वर्य से सम्पन्न परात्पर परमात्मा हैं। अतः अपने ही बहुमूल्य उदारतापूर्ण बर्ताव से मुझ पर संतुष्ट हों।'
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद ! इस प्रकार लोककल्याणकारी महाप्रभु महेश्वर शंकर की स्तुति करके विनीतचित्त प्रजापति दक्ष चुप हो गये। तदनन्तर श्रीविष्णुने हाथ जोड़ भगवान् वृषभध्वज को प्रणाम करके प्रसन्नतापूर्ण हृदय और वाष्पगद्गद वाणी द्वारा उनकी स्तुति प्रारम्भ को।
तदनन्तर मैंने कहा – देवदेव! महादेव! करुणासागर! प्रभो! आप स्वतन्त्र परमात्मा हैं, अद्वितीय एवं अविनाशी परमेश्वर हैं। देव! ईश्वर! आपने मेरे पुत्र पर अनुग्रह किया। अपने अपमान की ओर कुछ भी ध्यान न देकर दक्ष के यज्ञ का उद्धार कीजिये। देवेश्वर! आप प्रसन्न होइये और समस्त शापों को दूर कर दीजिये। आप सज्ञान हैं। अतः आप ही मुझे कर्तव्य की ओर प्रेरित करने वाले हैं और आप ही अकर्तव्य से रोकनेवाले हैं।
महामुने! इस प्रकार परम महेश्वर की स्तुति करके मैं दोनों हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर खड़ा हो गया। तब सुन्दर विचार रखने वाले इन्द्र आदि देवता और लोकपाल शंकरदेव की स्तुति करने लगे। उस समय भगवान् शिव का मुखारविन्द प्रसन्नता से खिल उठा था। इसके बाद प्रसन्नचित्त हुए समस्त देवताओं, दूसरे-दूसरे सिद्धों, ऋषियों और प्रजापतियों ने भी शंकरजी का सहर्ष स्तवन किया। इसके अतिरिक्त उपदेवों, नागों, सदस्यों तथा ब्राह्मणों ने पृथक्-पृथक् प्रणामपूर्वक बड़े भक्तिभाव से उनकी स्तुति की।
(अध्याय ४१ - ४२)