भगवान् शिव का दक्ष को अपनी भक्तवत्सलता, ज्ञानी भक्त की श्रेष्ठता तथा तीनों देवताओं की एकता बताना, दक्ष का अपने यज्ञ को पूर्ण करना, सब देवता आदि का अपने-अपने स्थान को जाना, सतीखण्ड का उपसंहार और माहात्म्य
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! इस प्रकार श्रीविष्णु के, मेरे, देवताओं और ऋषियों के तथा अन्य लोगों के स्तुति करने पर महादेवजी बड़े प्रसन्न हुए। फिर उन शम्भु ने समस्त ऋषियों, देवता आदि को कृपादृष्टि से देखकर तथा मुझ ब्रह्मा और विष्णु का समाधान करके दक्ष से इस प्रकार कहा।
महादेवजी बोले – प्रजापति दक्ष! मैं जो कुछ कहता हूँ, सुनो। मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। यद्यपि मैं सबका ईश्वर और स्वतन्त्र हूँ तो भी सदा ही अपने भक्तों के अधीन रहता हूँ। चार प्रकार के पुण्यात्मा पुरुष मेरा भजन करते हैं। दक्ष प्रजायते! उन चारों भक्तों में पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं। उनमें पहला आर्त, दूसरा जिज्ञासु, तीसरा अर्थार्थी और चौथा ज्ञानी है। पहले के तीन तो सामान्य श्रेणी के भक्त हैं। किंतु चौथा का अपना विशेष महत्व है। उन सब भक्तों में चौथा ज्ञानी ही मुझे अधिक प्रिय है। वह मेरा रूप माना गया है। उससे बढ़कर दूसरा कोई मुझे प्रिय नहीं है, यह मैं सत्य-सत्य कहता हूँ। मैं आत्मज्ञ हूँ। वेद-वेदान्त के पारगामी विद्वान् ज्ञान के द्वारा मुझे जान सकते हैं। जिनकी बुद्धि मन्द है, वे ही ज्ञान के बिना मुझे पाने का प्रयत्न करते हैं। कर्म के अधीन हुए मूढ़ मानव मुझे वेद, यज्ञ, दान और तपस्या द्वारा भी कभी नहीं पा सकते।
अतः दक्ष! आज में तुम बुद्धि के द्वारा मुझ परमेश्वर को जानकर ज्ञान का आश्रय ले समाहितचित्त होकर कर्म करो। प्रजापते! तुम उत्तम बुद्धि के द्वारा मेरी दूसरी बात भी सुनो। मैं अपने सगुण स्वरूप के विषय में भी इस गोपनीय रहस्य को धर्म की दृष्टि से तुम्हारे सामने प्रकट करता हूँ। जगत् का परम कारणरूप मैं ही ब्रह्मा और विष्णु हूँ। मैं सबका आत्मा ईश्वर और साक्षी हूँ। स्वयम्प्रकाश तथा निर्विशेष हूँ। मुने! अपनी त्रिगुणात्मिका माया को स्वीकार करके मैं ही जगत् की सृष्टि, पालन और संहार करता हुआ उन क्रियाओं के अनुरूप ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र नाम धारण करता हूँ। उस अद्वितीय (भेदरहित) केवल (विशुद्ध) मुझ परब्रह्म परमात्मा में ही अज्ञानी पुरुष ब्रह्म, ईश्वर तथा अन्य समस्त जीवों को भिन्न रूप से देखता है। जैसे मनुष्य अपने सिर और हाथ आदि अंगों में 'ये मुझसे भिन्न हैं' ऐसी परकीय बुद्धि कभी नहीं करता, उसी तरह मेरा भक्त प्राणिमात्र में मुझसे भिन्नता नहीं देखता। दक्ष! मैं, ब्रह्मा और विष्णु तीनों स्वरूपतः एक ही हैं तथा हम ही सम्पूर्ण जीवरूप हैं – ऐसा समझकर जो हम तीनों देवताओं में भेद नहीं देखता, वही शान्ति प्राप्त करता है। जो नराधम हम तीनों देवताओं में भेदबुद्धि रखता है, वह निश्चय ही जब तक चन्द्रमा और तारे रहते है, तब तक नरक में निवास करता है। दक्ष! यदि कोई विष्णुभक्त होकर मेरी निन्दा करेगा और मेरा भक्त होकर विष्णु की निन्दा करेगा तो तुम्हें दिये हुए पूर्वोक्त सारे शाप उन्हीं दोनों को प्राप्त होंगे और निश्चय ही उन्हें तत्त्वज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती।
ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! भगवान् महेश्वर के इस सुखदायक वचन को सुनकर सब देवता, मुनि आदि को उस अवसर पर बड़ा हर्ष हुआ। कुटुम्ब सहित दक्ष बड़ी प्रसन्नता के साथ शिवभक्ति में तत्पर हो गया। वे देवता आदि भी शिव को ही सर्वेश्वर जानकर भगवान् शिव के भजन में लग गये। जिसने जिस प्रकार परमात्मा शम्भु की स्तुति की थी, उसे उसी प्रकार संतुष्टचित्त हुए शम्भु ने वर दिया। मुने! तदनन्तर भगवान् शिव की आज्ञा पाकर प्रसन्नचित्त हुए शिवभक्त दक्ष ने शिव के ही अनुग्रह से अपना यज्ञ पूरा किया। उन्होंने देवताओं को तो यज्ञ भाग दिये ही, शिव को भी पूर्ण भाग दिया। साथ ही ब्राह्मणों को दान दिया! इस तरह उन्हें शम्भु का अनुग्रह प्राप्त हुआ। इस प्रकार महादेवजी के उस महान् कर्म का विधिपूर्वक वर्णन किया गया। प्रजापति ने ऋत्विजों के सहयोग से उस यज्ञकर्म को विधिवत् समाप्त किया। मुनीश्वर! इस प्रकार परब्रह्मस्वरूप शंकर के प्रसाद से वह दक्ष का यज्ञ पूरा हुआ। तदनन्तर सब देवता और ऋषि संतुष्ट हो भगवान् शिव के यश का वर्णन करते हुए अपने-अपने स्थान को चले गये। दूसरे लोग भी उस समय वहाँ से सुखपूर्वक विदा हो गये। मैं और श्रीविष्णु भी अत्यन्त प्रसन्न हो भगवान् शिव के सर्वमंगलदायक सुयश का निरन्तर गान करते हुए अपने-अपने स्थान को सानन्द चले आये। सत्पुरुषों के आश्रयभूत महादेवजी भी दक्ष से सम्मानित हो प्रीती और प्रसन्नता के साथ गणों सहित अपने निवास-स्थान कैलास पर्वत को चले गये। अपने पर्वत पर आकर शम्भु ने अपनी प्रिया सती का स्मरण किया और प्रधान-प्रधान गणों से उनकी कथा कही।
इस प्रकार दक्षकन्या सती यज्ञ में अपने शरीर को त्याग कर फिर हिमालय की पत्नी मेना के गर्भ से उत्पन्न हुईं, यह बात प्रसिद्ध है। फिर वहाँ तपस्या करके गौरी शिवा ने भगवान् शिव का पतिरूप में वरण किया। वे उनके वामांग में स्थान पाकर अद्भुत लीलाएँ करने लगीं। नारद! इस तरह मैंने तुमसे सती के परम अद्भुत दिव्य चरित्र का वर्णन किया है, जो भोग और मोक्ष को देने वाला तथा सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। यह उपाख्यान पाप को दूर करने वाला, पवित्र एवं परम पावन है। स्वर्ग, यश तथा आयु को देने वाला तथा पुत्र-पौत्र-रूप फल प्रदान करने वाला है। तात! जो भक्तिमान पुरुष भक्तिभाव से लोगों को यह कथा सुनाता है, वह इस लोक में सम्पूर्ण कर्मों का फल पाकर परलोक में परमगति को प्राप्त कर लेता है।
(अध्याय ४३)