हिमालय के स्थावर-जंगम द्विविध स्वरूप एवं दिव्यत्व का वर्णन, मेना के साथ उनका विवाह तथा मेना आदि को पूर्वजन्म में प्राप्त हुए सनकादि के शाप एवं वरदान का कथन

नारदजी ने पूछा – ब्रह्मन्! पिता के यज्ञ में अपने शरीर का परित्याग करके दक्षकन्या जगदम्बा सती देवि किस प्रकार गिरिराज हिमालय की पुत्री हुई? किस तरह अत्यन्त उग्र तपस्या करके उन्होंने पुनः शिव को ही पतिरूप से प्राप्त किया? यह मेरा प्रश्न है, आप इसपर भलिभाँति और विशेष रूप से प्रकाश डालिये।

ब्रह्माजी ने कहा – मुने! नारद! तुम पहले पार्वती की माता के जन्म, विवाह और अन्य भक्तिवर्धक पावन चरित्र सुनो। मुनिश्रेष्ठ! उत्तर दिशा में पर्वतों का राजा हिमवान् नामक महान् पर्वत है, जो महातेजस्वी और समृद्धिशाली है। उसके दो रूप प्रसिद्ध हैं – एक स्थावर और दूसरा जंगम। मैं संक्षेप से उसके सूक्ष्म (स्थावर) स्वरूप का वर्णन करता हूँ। वह रमणीय पर्वत नाना प्रकार के रत्नों का आकर (खान) है और पूर्व तथा पश्चिम समुद्र के भीतर प्रवेश करके इस तरह खड़ा है, मानो भूमण्डल को नापने के लिये कोई मानदण्ड हो। वह नाना प्रकार के वृक्षों से व्याप्त है और अनेक शिखरों के कारण विचित्र शोभा से सम्पन्न दिखायी देता है। सिंह, व्याघ्र आदि पशु सदा सुखपूर्वक उसका सेवन करते हैं। हिम का तो वह भंडार ही है, इसलिये अत्यन्त उग्र जान पड़ता हैं। भाँति-भाँति के आश्चर्यजनक दृश्यों से उसकी विचित्र शोभा होती है। देवता, ऋषि, सिद्ध और मुनि उस पर्वत का आश्रय लेकर रहते हैं। भगवान् शिव को वह बहुत ही प्रिय है, तपस्या करने का स्थान है। स्वरूप से ही वह अत्यन्त पवित्र और माहात्माओं को भी पावन करने वाला है। तपस्या में वह अत्यन्त शीघ्र सिद्धि प्रदान करता है। अनेक प्रकार के धातुओं की खान और शुभ है। वही दिव्य शरीर धारण करके सर्वांग-सुन्दर रमणीय देवता के रूप में भी स्थित है। भगवान् विष्णु का अविकृत अंश है, इसीलिए वह शैलराज साधू-संतों को अधिक प्रिय है।

एक समय गिरिवर हिमवान् ने अपनी कुल-परम्परा की स्थिति और धर्म की वृद्धि के लिये देवताओं तथा पितरों का हित करने की अभिलाषा से अपना विवाह करने की इच्छा की। मुनीश्वर! उस अवसर पर सम्पूर्ण देवता अपने स्वार्थ का विचार करके दिव्य पितरों के पास आकर उनसे प्रसन्नता पूर्वक बोले।

देवताओं ने कहा – पितरों! आप सब लोग प्रसन्नचित्त होकर हमारी बात सुनें और यदि देवताओं का कार्य सिद्ध करना आपको भी अभीष्ट हो तो शीघ्र वैसा ही करें। आपकी ज्येष्ठ पुत्री जो मेना नाम से प्रसिद्ध है, वह मंगलरूपिणी है। उसका विवाह आप लोग अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक हिमवान् पर्वत से कर दे। ऐसा करने पर आप सब लोगों को सर्वथा महान् लाभ होगा और देवताओं के दुःखों का निवारण भी पग-पग पर होता रहेगा।

देवताओं की यह बात सुनकर पितरों ने परस्पर विचार करके स्वीकृति दे दी और अपनी पुत्री मेना को विधिपूर्वक हिमालय के हाथ में दे दिया। उस परम मंगलमय विवाह में बड़ा उत्सव मनाया गया। मुनीश्वर नारद! मेना के साथ हिमालय के शुभ विवाह का यह सुखद प्रसंग मैंने तुमसे प्रसन्नतापूर्वक कहा है।

नारदजी ने पूछा – विधे! विद्वन! अब आदरपूर्वक मेरे सामने मेना की उत्पत्ति का वर्णन कीजिये। उसे किस प्रकार शाप प्राप्त हुआ था, वह कहिये और संदेह का निवारण कीजिये।

ब्रह्माजी बोले – मुने! मैंने अपने दक्ष नामक जिस पुत्र की पहले चर्चा की है, उनके साठ कन्याएँ हुई थीं, जो सृष्टि की उत्पत्ति में कारण बनीं। नारद! दक्ष ने कश्यप आदि श्रेष्ठ मुनियों के साथ उनका विवाह किया था, यह सब वृतान्त तो तुम्हें विदित ही है। अब प्रस्तुत विषय को सुनो। उन कन्याओं में एक स्वधा नाम की कन्या थी, जिसका विवाह उन्होंने पितरों के साथ किया। स्वधा की तीन पुत्रियाँ थीं, जो सौभाग्यशालिनी तथा धर्म की मूर्ति थीं। उनमें से ज्येष्ठ पुत्री का नाम 'मेना' था। मँझली 'धन्या' के नाम से प्रसिद्ध थी और सबसे छोटी कन्या का नाम 'कलावती' था। ये सारी कन्याएँ पितरों की मानसी पुत्रियाँ थीं – उनके मन से प्रकट हुई थीं। इनका जन्म किसी माता के गर्भ से नहीं हुआ था, अतएव ये अयोनिजा थीं; केवल लोकव्यवहार से स्वधा की पुत्री मानी जाती थीं। इनके सुन्दर नामों का कीर्तन करके मनुष्य सम्पूर्ण अभीष्ट को प्राप्त कर लेता है। ये सदा सम्पूर्ण जगत् की वन्दनीया लोकमाताएँ हैं और उत्तम अभ्युदय से सुशोभित रहती हैं। सब-की-सब परम योगिनी, ज्ञाननिधि तथा तीनों लोकों में सर्वत जा सकनेवाली हैं। मुनीश्वर! एक समय वे तीनों बहिनें भगवान् विष्णु के निवास स्थान श्वेतद्वीप में उनका दर्शन करने के लिये गयी। भगवान् विष्णु को प्रणाम और भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति करके वे उन्हीं की आज्ञा से वहाँ ठहर गयीं। उस समय वहाँ संतों का बड़ा भारी समाज एकत्र हुआ था।

मुने! उसी अवसर पर मेरे पुत्र सनकादि सिद्धगण भी वहाँ गये और श्रीहरि की स्तुति-वन्दना करके उन्हीं की आज्ञा से वहाँ ठहर गये। सनकादि मुनि देवताओं के आदिपुरुष और सम्पूर्ण लोकों में वन्दित हैं। वे जब वहाँ आकर खड़े हुए, उस समय श्वेतद्वीप के सब लोग उन्हें देख प्रणाम करते हुए उठकर खड़े हो गये। परंतु ये तीनों बहिनें उन्हें देखकर भी वहाँ नहीं उठीं। इससे सनत्कुमार ने उनको (मर्यादा-रक्षार्थ) उन्हें स्वर्ग से दूर होकर नर-स्त्री बनने का शाप दे दिया। फिर उनके प्रार्थना करने पर वे प्रसन्न हो गये और बोले।

सनत्कुमार ने कहा – पितरों की तीनों कन्याओं! तुम प्रसन्नचित्त होकर मेरी बात सुनो। यह तुम्हारे शोक का नाश करने वाली और सदा ही तुम्हें सुख देने वाली है। तुममें से जो जेष्ठ है, वह भगवान् विष्णु की अंशभूत हिमालय गिरी की पत्नी हो। उससे जो कन्या होगी, वह 'पार्वती' के नाम से विख्यात होगी। पितरों की दूसरी प्रिय कन्या, योगिनी धन्या राजा जनक की पत्नी होगी। उसकी कन्या के रूप में महालक्ष्मी अवतीर्ण होगी, जिनका नाम 'सीता' होगा। इसी प्रकार पितरों की छोटी पुत्री कलावती द्वापर के अंतिम भाग में वृषभानु वैश्य की पत्नी होगी और उसकी प्रिय पुत्री 'राधा' के नाम से विख्यात होगी। योगिनी मेनका (मेना) पार्वतीजी के वरदान से अपने पति के साथ उसी शरीर से कैलास नामक परम पद को प्राप्त हो जायगी। धन्या तथा उनके पति, जनककुल में उत्पन्न हुए जीवन्मुक्त महायोगी राजा सीरध्वज, लक्ष्मीस्वरूपा सीता के प्रभाव से वैकुण्ठ धाम में जायँगे। वृषभानु के साथ वैवाहिक मंगलकृत्य सम्पन्न होने के कारण जीवन्मुक्त योगिनी कलावती भी अपनी कन्या राधा के साथ गोलोक धाम में जायगी – इसमें संशय नहीं है। विपत्ति में पड़े बिना कहाँ किनकी महिमा प्रकट होती है। उत्तम कर्म करने वाले पुण्यात्मा पुरुषों का संकट जब टल जाता है, तब उन्हें दुर्लभ सुख की प्राप्ति होती है। अब तुम लोग प्रसन्नतापूर्वक मेरी दूसरी बात भी सुनो, जो सदा सुख देने वाली है। मेना की पुत्री जगदम्बा पार्वती देवि अत्यन्त दुस्सह तप करके भगवान् शिव की प्रिय पत्नी बनेंगी। धन्या की पुत्री सीता भगवान् श्रीरामजी की पत्नी होगी और लोकाचार का आश्रय ले श्रीराम के साथ विहार करेंगी। साक्षात् गोलोक धाम में निवास करने वाली राधा ही कलावती की पुत्री होंगी। वे गुप्त स्नेह में बँधकर श्रीकृष्ण की प्रियतमा बनेंगी।

ब्रहमाजी कहते हैं – नारद! इस प्रकार शाप के ब्याज के दुर्लभ वरदान देकर सबके द्वारा प्रशंसित भगवान् सनत्कुमार मुनि भाइयों सहित वहीं अन्तर्धान हो गये। तात! पितरों की मानसी पुत्री वे तीनों बहिनें इस प्रकार शापमुक्त हो सुख पाकर तुरंत अपने घर को चली गयीं।

(अध्याय १ - २)