उमा देवी का दिव्य रूप से देवताओं को दर्शन देना, देवताओं का उनसे अपना अभिप्राय निवेदन करना और देवी का अवतार लेने की बात स्वीकार करके देवताओं को आश्वासन देना

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! देवताओं के इस प्रकार स्तुति करने पर दुर्गम पीड़ा का नाश करने वाली जगज्जननी देवी दुर्गा उनके सामने प्रकट हुईं। वे परम अद्भुत दिव्य रत्नमय रथ पर बैठी हुई थीं। उस श्रेष्ठ रथ में घुँघुरु लगे हुए थे और मुलायम बिस्तर बिछे थे। उनके श्रीविग्रह का एक-एक अंग करोड़ों सुर्यों से भी अधिक प्रकाशमान और रमणीय था। ऐसे अवयवों से वे अत्यन्त उद्भासित हो रही थीं। सब ओर फैली हुई अपनी तेजोराशि के मध्य-भाग में वे विराजमान थीं। उनका रूप बहुत ही सुन्दर था और उनकी छवि की कहीं तुलना नहीं थी। सदाशिव के साथ विलास करने वाली उन महामाया की किसी के साथ समानता नहीं थी। शिवलोक में निवास करने वाली वे देवी त्रिविध चिन्मय गुणों से युक्त थीं। प्राकृत गुणों का अभाव होने से उन्हें निर्गुणा कहा जाता है। वे नित्यरुपा हैं। वे दुष्टों पर प्रचण्ड कोप करने के कारण चण्डी कहलाती हैं, परंतु स्वरूप से शिवा (कल्याणमयी) हैं। सबकी सम्पूर्ण पीड़ाओं का नाश करने वाली तथा सम्पूर्ण जगत् की माता हैं। वे ही प्रलयकाल में महानिद्रा होकर सबको अपने अंग में सुला लेती हैं तथा वे समस्त स्वजनों (भक्तों)-का संसार-सागर से उद्धार कर देती हैं। शिवादेवी की तेजोराशि के प्रभाव से देवता उन्हें अच्छी तरह देख न सके। तब उनके दर्शन की अभिलाषा से देवताओं ने फिर उनका स्तवन किया। तदनन्तर दर्शन की इच्छा रखने वाले विष्णु आदि सब देवता उन जगदम्बा की कृपा पाकर वहाँ उनका सुस्पष्ट दर्शन कर सके।

इसके बाद देवता बोले – अम्बिके! महादेवि! हम सदा आपके दास हैं। आप प्रसन्नतापूर्वक हमारा निवेदन सुनें। पहले आप दक्ष की पुत्री रूप से अवतीर्ण हो लोक में रुद्रदेव की वल्लभा हुई थीं। उस समय आपने ब्रह्माजी के तथा दूसरे देवताओं के महान् दुःख का निवारण किया था। तदनन्तर पिता से अनादर पाकर अपनी की हुई प्रतिज्ञा के अनुसार आपने शरीर को त्याग दिया और स्वधाम में पधार आयीं। इससे भगवान् हर को भी बड़ा दुःख हुआ। महेश्वरि! आपके चले आने से देवताओं का कार्य पूरा नहीं हुआ। अतः हम देवता और मुनि व्याकुल होकर आपकी शरण में आये हैं। महेशानि! शिवे! आप देवताओं का मनोरथ पूर्ण करें, जिससे सनत्कुमार का वचन सफल हो। देवि! आप भूतल पर अवतीर्ण हो पुनः रुद्रदेव की पत्नी होइये और यथायोग्य ऐसी लीला कीजिये, जिससे देवताओं को सुख प्राप्त हो। देवि! इससे कैलास पर्वत पर निवास करने वाले रुद्रदेव भी सुखी होंगे। आप ऐसी कृपा करें, जिससे सब सुखी हों और सबका सारा दुःख नष्ट हो जाय।

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! ऐसा कहकर विष्णु आदि सब देवता प्रेम में मग्न हो गये और भक्ति से विनम्र होकर चुपचाप खड़े रहे। देवताओं की यह स्तुति सुनकर शिवादेवी को भी बड़ी प्रसन्नता हुई। उसके हेतु का विचार करके अपने प्रभु शिव का स्मरण करती हुई भक्तवत्सला दयामयी उमादेवी उस समय विष्णु आदि देवताओं को सम्बोधित करके हँसकर बोलीं।

उमा ने कहा – हे हरे! हे विधे! और हे देवताओं तथा मुनियों! तुम सब लोग अपने मन से व्यथा को निकाल दो और मेरी बात सुनो। मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, इसमें संशय नहीं है। सब लोग अपने-अपने स्थान को जाओ और चिरकाल तक सुखी रहो। मैं अवतार ले मेना की पुत्री होकर उन्हें सुख दूंगी और रुद्रदेव की पत्नी हो जाऊँगी। यह मेरा अत्यन्त गुप्त मत है। भगवान् शिव की लीला अद्भुत है। वह ज्ञानियों को भी मोह में डालनेवाली है। देवताओं! उस यज्ञ में जाकर पिता के द्वारा अपने स्वामी का अनादर देख जबसे मैंने दक्षजनित शरीर को त्याग दिया है, तभी से वे मेरे स्वामी कालाग्नि रुद्रदेव तत्काल दिगम्बर हो गये। वे मेरी ही चिन्ता में डूबे रहते हैं। उनके मन में यह विचार उठा करता है कि धर्म को जाननेवाली सती मेरा रोष देखकर पिता के यज्ञ में गयी और वहाँ मेरा अनादर देख मुझमें प्रेम होने के कारण उसने अपना शरीर त्याग दिया। यही सोचकर वे घर-बार छोड़ अलौकिक वेष धारण करके योगी हो गये। मेरी स्वरूपभूता सती के वियोग को वे महेश्वर सहन न कर सके। देवताओं! भगवान् रुद्र की भी यह अत्यन्त इच्छा है कि भूतल पर मेना और हिमाचल के घर में मेरा अवतार हो; क्योंकि वे पुनः मेरा पाणिग्रहण करने की अधिक अभिलाषा रखते हैं। अतः मैं रुद्रदेव के संतोष के लिये अवतार लूँगी और लौकिक गति का आश्रय लेकर हिमालय-पत्नी मेना पुत्री होऊँगी।

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! ऐसा कहकर जगदम्बा शिवा उस समय समस्त देवताओं के देखते-देखते ही अदृश्य हो गयीं और तुरंत अपने लोक में चली गयीं। तदनन्तर हर्ष से भरे हुए विष्णु आदि समस्त देवता और मुनि उस दिशा को प्रणाम करके अपने-अपने धाम में चले गये।

(अध्याय ४)