भगवान् शिव का गंगावतरण तीर्थ में तपस्या के लिये आना, हिमवान् द्वारा उनका स्वागत, पूजन और स्तवन तथा भगवान् शिव की आज्ञा के अनुसार उनका उस स्थान पर दूसरों को न जाने देने की व्यवस्था करना

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! हिमवान् की पुत्री लोकपूजित शक्तिस्वरूपा पार्वती हिमालय के घर में रहकर बढ़ने लगीं। जब उनकी अवस्था आठ वर्ष की हो गयी, तब सती के विरह से कातर हुए शम्भु को उनके जन्म का समाचार मिला। नारद! उस अद्भुत बालिका पार्वती को हृदय में रखकर वे मन-ही-मन बड़े आनन्द का अनुभव करने लगे। इसी बीच में लौकिक गति का आश्रय ले शम्भु ने अपने मन को एकाग्र करने के लिये तप करने का विचार किया। नन्दी आदि कुछ शान्त पार्षदों को साथ ले वे हिमालय के उत्तम शिखर पर 'गंगावतार' (गंगोतरी) नामक तीर्थ में चले आये, जहाँ पूर्वकाल में ब्रह्मधाम से च्युत होकर समस्त पापराशि का विनाश करने के लिये चली हुई परम पावनी गंगा पहले-पहल भूतल पर अवतीर्ण हुई थीं। जितेन्द्रिय हर ने वही रहकर तपस्या आरम्भ की। वे आलस्यरहित हो चेतन, ज्ञानस्वरूप, नित्य ज्योतिर्मय, निरामय, जगन्मय, चिदानन्दस्वरूप, द्वैतहीन तथा आश्रयरहित अपने आत्मभूत परमात्मा का एकाग्र भाव से चिन्तन करने लगे। भगवान् हर के ध्यानपरायण होने पर नन्दी-भृंगी आदि कुछ अन्य पार्षदगण भी ध्यान में तत्पर हो गये। उस समय कुछ ही प्रमथगण परमात्मा शम्भु की सेवा करते थे। वे सब-के-सब मौन रहते और एक शब्द भी नहीं बोलते थे। कुछ द्वारपाल हो गये थे।

इसी समय गिरिराज हिमवान् उस ओषधि-बहुल शिखर पर भगवान् शंकर का शुभागमन सुनकर उनके प्रति आदर की भावना से वहाँ आये। आकर सेवकों सहित गिरिराज ने भगवान् रुद्र को प्रणाम किया, उनकी पूजा की और अत्यन्त प्रसन्न हो हाथ जोड़ उनका सुन्दर स्तवन किया। फिर हिमालय ने कहा – 'प्रभो! मेरे सौभाग्य का उदय हुआ है, जो आप यहाँ पधारे हैं। आपने मुझे सनाथ कर दिया। क्यों न हो, महात्माओं ने यह ठीक ही वर्णन किया है कि आप दिनवत्सल हैं। आज मेरा जन्म सफल हो गया। आज मेरा जीवन सफल हुआ और आज मेरा सब कुछ सफल हो गया; क्योंकि आपने यहाँ पदार्पण करने का कष्ट उठाया है। महेश्वर! आप मुझे अपना दास समझकर शान्तभाव से मुझे सेवा के लिये आज्ञा दीजिये। मैं बड़ी प्रसन्नता से अनन्यचित्त होकर आपकी सेवा करूँगा।'

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! गिरिराज का यह वचन सुनकर महेश्वर ने किंचित् आँखे खोलीं और सेवकों सहित हिमवान् को देखा। सेवकों सहित गिरिराज को उपस्थित देख ध्यानयोग में स्थित हुए जगदीश्वर वृषभध्वज ने मुसकराते हुए-से कहा।

महेश्वर बोले – शैलराज! मैं तुम्हारे शिखर पर एकान्त में तपस्या करने के लिये आया हूँ। तुम ऐसा प्रबन्ध करो, जिससे कोई भी मेरे निकट न आ सके। तुम महात्मा हो, तपस्या के धाम हो तथा मुनियों, देवताओं, राक्षसों और अन्य महात्माओं को भी सदा आश्रय देने वाले हो। द्विज आदि का तुम्हारे ऊपर सदा ही निवास रहता है। तुम गंगा से अभिषिक्त होकर सदा के लिये पवित्र हो गये हो। दूसरों का उपकार करने वाले तथा सम्पूर्ण पर्वतों के सामर्थ्यशाली राजा हो। गिरिराज! मैं यहाँ गंगावतरण-स्थल में तुम्हारे आश्रित होकर आत्मसंयमपूर्वक बड़ी प्रसन्नता के साथ तपस्या करूँगा। शैलराज! गिरिश्रेष्ठ! जिस साधन से यहाँ मेरी तपस्या बिना किसी विघ्न-बाधा के चालु रह सके, उसे इस समय प्रयत्नपूर्वक करो। पर्वतप्रवर! मेरी यही सबसे बड़ी सेवा है। तुम अपने घर जाओ और मैंने जो कुछ कहा है, उसका उत्तम प्रीति से यत्नपूर्वक प्रबन्ध करो।

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! ऐसा कहकर सृष्टिकर्ता जगदीश्वर भगवान् शम्भु चुप हो गये। उस समय गिरिराज ने शम्भु से प्रेमपूर्वक वह बात कही – 'जगन्नाथ! परमेश्वर! आज मैंने अपने प्रदेश में स्थित हुए आपका स्वागतपूर्वक पूजन किया है, यही मेरे लिये महान् सौभाग्य की बात है। अब आपसे और क्या प्रार्थना करूँ। महेश्वर! कितने ही देवता बड़े-बड़े यत्न का आश्रय ले महान् तप करके भी आपको नहीं पाते। वे ही आप यहाँ स्वयं उपस्थित हो गये। मुझसे बढ़कर श्रेष्ठ सौभाग्यशाली और पुण्यात्मा दूसरा कोई नहीं है; क्योंकि आप मेरे पृष्ठभाग पर तपस्या के लिये उपस्थित हुए हैं। परमेश्वर! आज मैं अपने को देवराज इन्द्र से भी अधिक भाग्यवान् मानता हूँ; क्योंकि सेवकों सहित आपने यहाँ आकर मुझे अनुग्रह का भागी बना दिया। देवेश आप स्वतन्त्र हैं। यहाँ बिना किसी विघ्न-बाधा के उत्तम तपस्या कीजिये। प्रभो! मैं आपका दास हूँ। अतः सदा आपकी आज्ञा के अनुसार सेवा करूँगा।'

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! ऐसा कहकर गिरिराज हिमालय तुरंत अपने घर को लौट आये। उन्होंने अपनी प्रिय मेना को बड़े आदर से वह सारा वृतान्त कह सुनाया। तत्पश्चात् शैलराज ने साथ जाने वाले परिजनों तथा समस्त सेवक-गणों को बुलाकर उन्हें ठीक-ठीक समझाया।

हिमालय बोले – आज से कोई भी गंगावतरण नामक स्थान में, जो मेरे पृष्ठभाग में ही है, मेरी आज्ञा मानकर न जाय। यह मैं सच्ची बात कहता हूँ। यदि कोई वहाँ जायगा तो उस महादुष्ट को मैं विशेष दण्ड दूँगा। मुने! इस प्रकार अपने समस्त गणों को शीघ्र ही नियंत्रित करके हिमवान् ने विघ्ननिवारण के लिये जो सुन्दर प्रयत्न किया, वह तुम्हें बताता हूँ।

(अध्याय ११)