हिमवान् का पार्वती को शिव की सेवा में रखने के लिये उनसे आज्ञा माँगना और शिव का कारण बताते हुए इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देना
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! तदनन्तर शैलराज हिमालय उत्तम फल-फुल लेकर अपनी पुत्री के साथ हर्षपूर्वक भगवान् हर के समीप गये। वहाँ जाकर उन्होंने ध्यान-परायण त्रिलोकीनाथ शिव को प्रणाम किया और अपनी अद्भुत कन्या काली को हृदय से उनकी सेवा में अर्पित कर दिया। फल-फुल आदि सारी सामग्री उनके सामने रखकर पुत्री को आगे करके शैलराज ने श्म्भु से कहा – 'भगवन्! मेरी पुत्री आप भगवान् चन्द्रशेखर की सेवा करने के लिये उत्सुक है। अतः आपके आराधन की इच्छा से मैं इसको साथ लाया हूँ। यह अपनी दो सखियों के साथ सदा आप शंकर की ही सेवा में रहे। नाथ! यदि आपका मुझ पर अनुग्रह है तो इस कन्या को सेवा के लिये आज्ञा दीजिये।'
तब भगवान् शंकर ने उस परम मनोहर कामरूपिणी कन्या को देखकर आँखे मूँद लीं और अपने त्रिगुणातीत, अविनाशी, परमतत्त्वमय उत्तम रूप का ध्यान आरम्भ किया। उस समय सर्वेश्वर एवं सर्वव्यापी जटाजूटधारी वेदान्तवेद्य चन्द्रकलाविभूषण शम्भु उत्तम आसन पर बैठ कर नेत्र बंद किये तप (ध्यान) में ही लग गये। यह देख हिमाचल ने मस्तक झुकाकर पुनः उनके चरणों में प्रणाम किया। यद्यपि उनके हृदय में दीनता नहीं थी, तो भी वे उस समय उस संशय में पड़ गये कि न जाने भगवान् मेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगे या नहीं। वक्ताओं में श्रेष्ठ गिरिराज हिमवान् ने जगत् के एकमात्र बन्धू भगवान् शिव से इस प्रकार कहा।
हिमालय बोले – देवदेव! महादेव! करुणाकर! शंकर! विभो! मैं आपकी शरण में आया हूँ। आँखे खोलकर मेरी ओर देखिये। शिव! शर्व! महेशान! जगत् को आनन्द प्रदान करने वाले प्रभो! महादेव! आप सम्पूर्ण आपत्तियों का निवारण करने वाले हैं। मैं आपको प्रणाम करता हूँ। स्वामिन्! प्रभो! मैं अपनी इस पुत्री के साथ प्रतिदिन आपका दर्शन करने के लिये आऊँगा। इसके लिये आदेश दीजिये।
उनकी यह बात सुनकर देवदेव महेश्वर ने आँखे खोलकर ध्यान छोड़ दिया और कुछ सोच-विचार कर कहा।
महेश्वर बोले – गिरिराज! तुम अपनी इस कुमारी कन्या को घर में रखकर ही नित्य मेरे दर्शन को आ सकते हो, अन्यथा मेरा दर्शन नहीं हो सकता।
महेश्वर की ऐसी बात सुनकर शिवा के पिता हिमवान् मस्तक झुकाकर उन भगवान् शिव से बोले – 'प्रभो! यह तो बताइये, किस कारण से मैं इस कन्या के साथ आपके दर्शन के लिये नहीं आ सकता। क्या यह आपकी सेवा के योग्य नहीं है? फिर इसे नहीं लाने का क्या कारण है, यह मेरी समझ में नहीं आता।'
यह सुनकर भगवान् वृषभध्वज शम्भु हँसने लगे और विशेषतः दुष्ट योगियों को लोकाचार का दर्शन कराते हुए वे हिमालय से बोले – 'शैलराज! यह कुमारी सुन्दर कटिप्रदेश से सुशोभित, तन्वंगी, चन्द्रमुखी और शुभ लक्षणों से सम्पन्न है। इसलिये इसे मेरे समीप तुम्हें नहीं लाना चाहिये। इसके लिये मैं तुम्हें बारंबार रोकता हूँ। वेद के पारंगत विद्वानों ने नारी को मायारूपिणी कहा है। विशेषतः युवती स्त्री तो तपस्वीजनों के तप में विघ्न डालनेवाली ही होती है। गिरिश्रेष्ठ! मैं तपस्वी, योगी और सदा माया से निर्लिप्त रहनेवाला हूँ। मुझे युवती स्त्री से क्या प्रयोजन है। तपस्वियों के श्रेष्ठ आश्रय हिमालय! इसलिये फिर तुम्हें ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये, क्योंकि तुम वेदोक्त धर्म में प्रवीण, ज्ञानियों में श्रेष्ठ और विद्वान् हो। अचलराज! स्त्री के संग से मन में शीघ्र ही विषयवासना उत्पन्न हो जाती है। उससे वैराग्य नष्ट होता है और वैराग्य न होने से पुरुष उत्तम तपस्या से भ्रष्ट हो जाता है। इसलिये शैल! तपस्वी को स्त्रियों का संग नहीं करना चाहिये, क्योंकि स्त्री महाविषय-वासना की जड़ एवं ज्ञान-वैराग्य का विनाश करने वाली होती है।'
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! इस तरह की बहुत-सी बातें कहकर महयोगिशिरोमणि भगवान् महेश्वर चुप हो गये। देवर्षे! शम्भु का यह निरामय, निःस्पृह और निष्ठुर वचन सुनकर काली के पिता हिमवान् चकित, कुछ-कुछ व्याकुल और चुप हो गये। तपस्वी शिव की कही हुई बात सुनकर और गिरिराज हिमवान् को चकित हुआ जानकर भवानी पार्वती उस समय भगवान् शिव को प्रणाम करके विशद वचन बोलीं।
(अध्याय १२)