पार्वती और शिव का दार्शनिक संवाद, शिव का पार्वती को अपनी सेवा के लिये आज्ञा देना तथा पार्वती द्वारा भगवान् की प्रतिदिन सेवा

भवानी ने कहा – योगिन्! आपने तपस्वी होकर गिरिराज से यह क्या बात कह डाली? प्रभो! आप ज्ञानविशारद हैं, तो भी अपनी बात का उत्तर मुझसे सुनिये। शम्भो! आप तपःशक्ति से सम्पन्न होकर ही बड़ा भारी तप करते हैं। उस शक्ति के कारण ही आप महात्मा को तपस्या करने का विचार हुआ है। सभी कर्मों को करने की जो वह शक्ति है। सभी कर्मों को करने की जो वह शक्ति है, उसे ही प्रकृति जानना चाहिये। प्रकृति से ही सबकी सृष्टि, पालन और संहार होते हैं। भगवन्! आप कौन हैं? और सूक्ष्म प्रकृति क्या है? इसका विचार कीजिये। प्रकृति के बिना लिंगरूपी महेश्वर कैसे हो सकते हैं? आप सदा प्राणियों के लिये जो अर्चनीय, वन्दनीय और चिन्तनीय हैं, वह प्रकृति के ही कारण हैं। इस बात को हृदय से विचार कर ही आपको जो कहना हो, वह सब कहिये।

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! पार्वतीजी के इस वचन को सुनकर महती लीला करने में लगे हुए प्रसन्नचित्त महेश्वर हँसते हुए बोले।

महेश्वर ने कहा – मैं उत्कृष्ट तपस्या द्वारा ही प्रकृति का नाश करता हूँ और तत्त्वतः प्रकृतिरहित शम्भु के रूप में स्थित होता हूँ। अतः सत्पुरुषों को कभी या कहीं प्रकृति का संग्रह नहीं करना चाहिये। लोकाचार से दूर एवं निर्विकार रहना चाहिये।

नारद! जब शम्भु ने लौकिक व्यवहार के अनुसार यह बात कही, तब काली मन-ही-मन हँसकर मधुर वाणी में बोली।

काली ने कहा – कल्याणकारी प्रभो! योगिन्! आपने जो बात कही है, क्या वह वाणी प्रकृति नहीं है? फिर आप उससे परे क्यों नहीं हो गये? (क्यों प्रकृति का सहारा लेकर बोलने लगे?) इन सब बातों को विचार करके तात्त्विक दृष्टि से जो यथार्थ बात हो, उसी को कहना चाहिये। यह सब कुछ सदा प्रकृति से बँधा हुआ है। इसलिये आपको न तो बोलना चाहिये और न कुछ करना ही चाहिये; क्योंकि कहना और करना – सब व्यवहार प्राकृत ही है। आप अपनी बुद्धि से इसको समझिये। आप जो कुछ सुनते, खाते, देखते और करते हैं, वह सब प्रकृति का ही कार्य है। झूठे वाद-विवाद करना व्यर्थ है। प्रभो! शम्भो! यदि आप प्रकृति से परे हैं तो इस समय इस हिमवान् पर्वत पर आप तपस्या किस लिये करते हैं? हर! प्रकृति ने आपको निगल लिया है। अतः आप यदि अपने स्वरूप को जानते हैं तो किस लिये तप करते हैं? योगिन्! मुझे आपके साथ वाद-विवाद करने की क्या आवश्यकता है? प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध होने पर विद्वान् पुरुष अनुमान प्रमाण को नहीं मानते। जो कुछ प्राणियों की इन्द्रियों का विषय होता है, वह सब ज्ञानी पुरुषों को बुद्धि से विचार कर प्राकृत ही मानना चाहिये। योगीश्वर! बहुत कहने से क्या लाभ? मेरी उत्तम बात सुनिये। मैं प्रकृति हूँ। आप पुरुष हैं। यह सत्य है, सत्य है। इसमें संशय नहीं है। मेरे अनुग्रह से ही आप सगुण और साकार माने गये हैं। मेरे बिना तो आप निरीह हैं। कुछ भी नहीं कर सकते हैं। आप जितेन्द्रिय होने पर भी प्रकृति के अधीन हो सदा नाना प्रकार के कर्म करते रहते हैं। फिर निर्विकार कैसे हैं? और मुझसे लिप्त कैसे नहीं? शंकर! यदि आप प्रकृति से परे हैं और यदि आपका यह कथन सत्य है तो आपको मेरे समीप रहने पर भी डरना नहीं चाहिये।

ब्रह्माजी कहते हैं – पार्वती का यह सांख्य-शास्त्र के अनुसार कहा हुआ वचन सुनकर भगवान् शिव वेदान्तमत में स्थित हो उनसे यों बोले।

श्रीशिव ने कहा – सुन्दर भाषण करने वाली गिरिजे! यदि तुम सांख्य-मत को धारण करके ऐसी बात कहती हो तो प्रतिदिन मेरी सेवा करो; परंतु वह सेवा शास्त्रनिषिद्ध नहीं होनी चाहिये।

गिरिजा से ऐसा कहकर भक्तों पर अनुग्रह और उनका मनोरंजन करने वाले भगवान् शिव हिमवान् से बोले।

शिव ने कहा – गिरिराज! मैं यहीं तुम्हारे अत्यन्त रमणीय श्रेष्ठ शिखर की भूमि पर उत्तम तपस्या तथा अपने आनन्दमय परमार्थस्वरूप का विचार करता हुआ विचरूँगा। पर्वतराज! आप मुझे यहाँ तपस्या करने की अनुमति दें। आपकी अनुज्ञा के बिना कोई तप नहीं किया जा सकता।

देवाधिदेव शूलधारी भगवान् शिव का यह कथन सुनकर हिमवान् ने उन्हें प्रणाम करके कहा – 'महादेव! देवता, असुर और मनुष्यों सहित सम्पूर्ण जगत् तो आपका ही है। मैं तुच्छ होकर आपसे क्या कहूँ?'

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! गिरिराज हिमवान् के ऐसा कहने पर लोककल्याणकारी भगवान् शंकर हँस पड़े और आदरपूर्वक उनसे बोले – 'अब तुम जाओ।' शंकर की आज्ञा पाकर हिमवान् अपने घर लौट गये। वे गिरिराज के साथ प्रतिदिन उनके दर्शन के लिये आते थे। काली अपने पिता के बिना भी दोनों सखियों के साथ नित्य शंकरजी के पास जातीं और भक्तिपूर्वक उनकी सेवा में लगी रहतीं। नन्दीश्वर आदि कोई भी गण उन्हें रोकता नहीं था। तात! महेश्वर के आदेश से ही ऐसा होता था। प्रत्येक गण पवित्रतापूर्वक रहकर उनकी आज्ञा का पालन करता था। जो विचार करने से परस्पर अभिन्न सिद्ध होते है, उन्हीं शिवा और शिव ने सांख्य और वेदान्त-मत में स्थित हो जो कल्याणदायक संवाद किया, वह सर्वदा सुख देने वाला है। वह संवाद मैंने यहाँ कह सुनाया। इन्द्रियातीत भगवान् शंकर ने गिरिराज के कहने से उनका गौरव मानकर उनकी पुत्री को अपने पास रहकर सेवा करने के लिये स्वीकार कर लिया।

काली अपनी दो सखियों के साथ चन्द्रशेखर महादेवजी की सेवा के लिये प्रतिदिन आती-जाती रहती थीं। वे भगवान् शंकर के चरण धोकर उस चरणामृत का पान करती थीं। आग से तपाकर शुद्ध किये हुए वस्त्र से (अथवा गरम जल से धोये हुए वस्त्र के द्वारा) उनके शरीर का मार्जन करतीं, उसे मलती-पोंछती थीं। फिर सोलह उपचारों से विधिवत हर की पूजा करके बारंबार उनके चरणों में प्रणाम करने के पश्चात् प्रतिदिन पिता के घर लौट जाती रहीं। मुनिश्रेष्ठ! इस प्रकार ध्यानपरायण शंकर की सेवा में लगी हुई शिवा का महान् समय व्यतीत हो गया, तो भी वे अपनी इन्द्रियों को संयम में रखकर पूर्ववत् उनकी सेवा करती रहीं। महादेवजी ने जब फिर उन्हें अपनी सेवा में नित्य तत्पर देखा, तब वे दया से द्रवित हो उठे और इस प्रकार विचार करने लगे – 'यह काली जब तपश्चर्याव्रत करेगी और इसमें गर्व का बीज नहीं रह जायगा, तभी मैं इसका पाणिग्रहण करूँगा।'

ऐसा विचार करके महालीला करने वाले महायोगिश्वर भगवान् भूतनाथ तत्काल ध्यान में स्थित हो गये। मुने! परमात्मा शिव जब ध्यान में लग गये, तब उनके हृदय में दूसरी कोई चिन्ता नहीं रह गयी। काली प्रतिदिन महात्मा शिव के रूप का निरन्तर चिन्तन करती हुई उत्तम भक्तिभाव से उनकी सेवा में लगी रही। ध्यानपरायण भगवान् हर शुद्ध भाव से वहाँ रहती हुई काली को नित्य देखते थे। फिर भी पूर्व चिन्ता को भुलाकर उन्हें देखते हुए भी नहीं देखते थे।

इसी बीच में इन्द्र आदि देवताओं तथा मुनियों ने ब्रह्माजी की आज्ञा से कामदेव को वहाँ आदरपूर्वक भेजा। वे काम की प्ररेणा से काली का रुद्र के साथ संयोग कराना चाहते थे। उनके ऐसा करने में कारण यह था कि महापराक्रमी तारकासुर से वे बहुत पीड़ित थे (और शंकरजी से किसी महान् बलवान् पुत्र की उत्पत्ति चाहते थे)। कामदेव ने वहाँ पहुँचकर अपने सब उपायों का प्रयोग किया, परंतु महादेवजी के मन में तनिक भी क्षोम नहीं हुआ। उलटे उन्होंने कामदेव को जलाकर भस्म कर दिया। मुने! तब सती पार्वती ने भी गर्वरहित हो उनकी आज्ञा से बहुत बड़ी तपस्या करके शिव को पति रूप में प्राप्त किया। फिर वे पार्वती और परमेश्वर परस्पर अत्यन्त प्रेम से और प्रसन्नतापूर्वक रहने लगे। उन दोनों ने परोपकार में तत्पर रहकर देवताओं का महान् कार्य सिद्ध किया।

(अध्याय १३)