तारकासुर के सताये हुए देवताओं का ब्रह्माजी को अपनी कष्टकथा सुनाना, ब्रह्माजी का उन्हें पार्वति के साथ शिव के विवाह के लिये उद्योग करने का आदेश देना, ब्रह्माजी के समझाने से तारकासुर का स्वर्ग को छोड़ना और देवताओं का वहाँ रहकर लक्ष्यसिद्धि के लिये यत्नशील होना
सूतजी कहते हैं – तदनन्तर नारदजी के पूछने पर पार्वती के विवाह के विस्तृत प्रसंग को उपस्थित करते हुए ब्रह्माजी ने तारकासुर की उत्पत्ति, उसके उग्र तप, मनोवांछित वरप्राप्ति तथा देवता और असुर – सबको जीत कर स्वयं इन्द्रपद पर प्रतिष्ठित हो जाने की कथा सुनायी।
तत्पश्चात् ब्रह्माजी ने कहा – तारकासुर तीनों लोकों को अपने वश में करके जब स्वयं इन्द्र हो गया, तब उसके समान दूसरा कोई शासक नहीं रह गया। वह जितेन्द्रिय असुर त्रिभुवन का एकमात्र स्वामी होकर अद्भुत ढंग से राज्य का संचालन करने लगा। उसने समस्त देवताओं को निकालकर उनकी जगह दैत्यों को स्थापित कर दिया और विद्याधर आदि देवयोनियों को स्वयं अपने कर्म में लगाया। मुने! तदनन्तर तारकासुर के सताये हुए इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता अत्यन्त व्याकुल और अनाथ होकर मेरी शरण में आये। उन सब ने मुझ प्रजापति को प्रणाम करके बड़ी भक्ति से मेरा स्तवन किया और अपने दारुण दुःख की बातें बताकर कहा – 'प्रभो! आप ही हमारी गति हैं। आप ही हमें कर्तव्य का उपदेश देने वाले हैं और आप ही हमारे धाता एंव उद्धारक हैं। हम सब देवता तारकासुर नामक अग्नि में जलकर अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं। जैसे संनिपात रोग में प्रबल औषधें भी निर्बल हो जाती हैं, उसी प्रकार उस असुर ने हमारे सभी क्रूर उपायों को बलहीन बना दिया है। भगवान् विष्णु के सुदर्शन चक्र पर ही हमारी विजय की आशा अवलम्बित रहती है। परंतु वह भी उसके कण्ठ पर कुण्ठित हो गया। उसके गले में पड़कर वह ऐसा प्रतीत होने लगा था, मानो उस असुर को फुल की माला पहनायी गयी हो।
मुने! देवताओं को यह कथन सुनकर मैंने उन सबसे समयोचित बात कही – 'देवताओं! मेरे ही वरदान से दैत्य तारकासुर इतना बढ़ गया है। अतः मेरे हाथों ही उसका वध होना उचित नहीं। जो जिससे पलकर बढ़ा हो, उसका उसी के द्वारा वध होना योग्य कार्य नहीं है। विष के वृक्ष को भी यदि स्वयं सींचकर बड़ा किया हो तो उसे स्वयं काटना अनुचित माना गया है। तुम लोगों का सारा कार्य करने के योग्य भगवान् शंकर हैं। किंतु वे तुम्हारे कहने पर भी स्वयं उस असुर का सामना नहीं कर सकते। तारक दैत्य स्वयं अपने पाप से नष्ट होगा। मैं जैसा उपदेश करता हूँ, तुम वैसा कार्य करो। मेरे वर के प्रभाव से न मैं तारकासुर का वध कर सकता हूँ, न भगवान् विष्णु कर सकते हैं और न भगवान् शंकर ही उसका वध कर सकते हैं। दूसरा कोई वीर पुरुष अथवा सारे देवता मिलकर भी उसे नहीं मार सकते, यह मैं सत्य कहता हूँ। देवताओं! यदि शिवजी के वीर्य से कोई पुत्र उत्पन्न हो तो वही तारक दैत्य का वध कर सकता है, दूसरा नहीं। सुरश्रेष्ठगण! इसके लिये जो उपाय मैं बताता हूँ, उसे करो। महादेवजी की कृपा से वह उपाय अवश्य सिद्ध होगा। पूर्वकाल में जिस दक्षकन्या सती ने दक्ष के यज्ञ में अपने शरीर को त्याग दिया था, वही इस समय हिमालयपत्नी मेनका के गर्भ से उत्पन्न हुई है। यह बात तुम्हें भी विदित ही है। महादेवजी उस कन्या का पाणिग्रहण अवश्य करेंगे, तथापि देवताओं! तुम स्वयं भी इसके लिये प्रयत्न करो। तुम अपने यत्न से ऐसा उद्योग करो, जिससे मेनकाकुमारी पार्वती में भगवान् शंकर अपने वीर्य का आधान कर सकें। भगवान् शंकर ऊर्ध्वरेता हैं (उनका वीर्य ऊपर की ओर उठा हुआ है), उनके वीर्य को प्रस्खलित करने में केवल पार्वती ही समर्थ हैं। दूसरी कोई अबला अपनी शक्ति से ऐसा नहीं कर सकती। गिरिराज की पुत्री वे पार्वती इस समय युवावस्था में प्रवेश कर चुकी हैं और हिमालय पर तपस्या में लगे हुए महादेवजी की प्रतिदिन सेवा करती हैं। अपने पिता हिमवान् के कहने से काली शिवा अपनी दो सखियों के साथ ध्यानपरायण परमेश्वर शिव की साग्रह सेवा करती हैं। तीनों लोकों में सबसे अधिक सुन्दरी पार्वती शिव के सामने रहकर प्रतिदिन उनकी पूजा करती हैं, तथापि वे ध्यानमग्न महेश्वर मन से भी ध्यानहिन् स्थिति में नहीं आते। अर्थात् ध्यान भंग करके पार्वती की ओर देखने का विचार भी मन में नहीं लाते। देवताओं! चन्द्रशेखर शिव जिस प्रकार काली को अपनी भार्या बनाने की इच्छा करें, वैसी चेष्टा तुम लोग शीघ्र ही प्रयत्नपूर्वक करो। मैं उस दैत्य के स्थान पर जाकर तारकासुर को बुरे हठ से हटाने की चेष्टा करूँगा। अतः अब तुम लोग अपने स्थान को जाओ।'
नारद! देवताओं से ऐसा कहकर मैं शीघ्र ही तारकासुर से मिला और बड़े प्रेम से बुलाकर मैंने उससे इस प्रकार कहा –
'तारक! यह स्वर्ग हमारे तेज का सारतत्त्व है। परंतु तुम यहाँ के राज्य का पालन कर रहे हो। जिसके लिये तुमने उत्तम तपस्या की थी, उससे अधिक चाहने लगे हो। मैंने तुम्हें इससे छोटा ही वर दिया था। स्वर्ग का राज्य कदापि नहीं दिया था। इसलिये तुम स्वर्ग को छोड़कर पृथ्वी पर राज्य करो। असुरश्रेष्ठ! देवताओं के योग्य जितने भी कार्य हैं, वे सब तुम्हें वहीं सुलभ होंगे। इसमें अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है।'
ऐसा कहकर उस असुर को समझाने के बाद मैं शिवा और शिव का स्मरण करके वहाँ से अदृश्य हो गया। तारकासुर भी स्वर्ग को छोड़कर पृथ्वी पर आ गया और शोणितपुर में रहकर वह राज्य करने लगा। फिर सब देवता भी मेरी बात सुनकर मुझे प्रणाम करके इन्द्र के साथ प्रसन्नतापूर्वक बड़ी सावधानी के साथ इन्द्रलोक में गये। वहाँ जाकर परस्पर मिलकर आपस में सलाह करके वे सब देवता इन्द्र से प्रेमपूर्वक बोले – 'भगवन्! शिव की शिवा में जैसे भी काममूलक रूचि हो, वैसा ब्रह्माजी का बताया हुआ सारा प्रयत्न आपको करना चाहिये।'
इस प्रकार देवराज इन्द्र से सम्पूर्ण वृतान्त निवेदन करके वे देवता प्रसन्नतापूर्वक सब ओर अपने-अपने स्थान पर चले गये।
(अध्याय १४ - १६)