इन्द्र द्वारा काम का स्मरण, उसके साथ उनका बातचीत तथा उनके कहने से काम का शिव को मोहने के लिये प्रस्थान
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! देवताओं के चले जाने पर दुरात्मा तारक दैत्य से पीड़ित हुए इन्द्र ने कामदेव का स्मरण किया। कामदेव तत्काल वहाँ आ पहुँचा। तब इन्द्र ने मित्रता का धर्म बतलाते हुए काम से कहा – 'मित्र! कालवशात् मुझ पर असाध्य दुःख आ पड़ा है। उसे तुम्हारे बिना कोई भी दूर नहीं कर सकता। दाता की परीक्षा दुर्भिक्ष में, शूरवीर की परीक्षा रणभूमि में, मित्र की परीक्षा आपत्तिकाल में तथा स्त्रियों के कुल की परीक्षा पति के असमर्थ हो जाने पर होती है। तात! संकट पड़ने पर विनय की परीक्षा होती है और परोक्ष में सत्य एवं उत्तम स्नेह की, अन्यथा नहीं। यह मैंने सच्ची बात कही है। मित्रवर! इस समय मुझ पर जो विपत्ति आयी है, उसका निवारण दूसरे किसी से नहीं हो सकता। अतः आज तुम्हारी परीक्षा हो जायगी। यह कार्य केवल मेरा ही है और मुझे ही सुख देने वाला है, ऐसी बात नहीं। अपितु यह समस्त देवता आदि का कार्य है, इसमें संशय नहीं है।'
इन्द्र की यह बात सुनकर कामदेव मुसकराया और प्रेमपूर्ण गम्भीर वाणी में बोला।
काम ने कहा – देवराज! आप ऐसी बात क्यों कहते हैं? मैं आपको उत्तर नहीं दे रहा हूँ (आवश्यक निवेदन मात्र कर रहा हूँ)। लोक में कौन उपकारी मित्र है और कौन बनावटी – यह स्वयं देखने की वस्तु है, कहने की नहीं। जो संकट के समय बहुत बातें करता है, वह काम क्या करेगा? तथापि महाराज! प्रभो! मैं कुछ कहता हूँ, उसे सुनिये। मित्र! जो आपके इन्द्रपद को छीनने के लिये दारुण तपस्या कर रहा है, आपके उस शत्रु को मैं सर्वथा तपस्या से भ्रष्ट कर दूँगा। जो काम जिससे पूरा हो सके, बुद्धिमान् पुरुष उसे उसी काम में लगाये। मेरे योग्य जो कार्य हो, वह सब आप मेरे जिम्मे कीजिये।
बह्माजी कहते है – कामदेव का यह कथन सुनकर इन्द्र बड़े प्रसन्न हुए। वे कामिनियों को सुख देने वाले काम को प्रणाम करके उससे इस प्रकार बोले।
इन्द्र ने कहा – तात! मनोभव! मैंने अपने मन में जिस कार्य को पूर्ण करने का उद्देश्य रखा है, उसे सिद्ध करने में केवल तुम्हीं समर्थ हो। दूसरे किसी से उस कार्य का होना सम्भव नहीं है। मित्रवर! मनोभव काम! जिसके लिये आज तुम्हारे सहयोग की अपेक्षा हुई है, उसे ठीक-ठीक बता रहा हूँ; सुनो। तारक नाम से प्रसिद्ध जो महान् दैत्य है, वह ब्रह्माजी का अद्भुत वर पाकर अजेय हो गया है और सभी को दुःख दे रहा है। वह सारे संसार को पीड़ा दे रहा है। उसके द्वारा बारंबार धर्म का नाश हुआ है। इससे सब देवता और समस्त ऋषि दुःखी हुए हैं। सम्पूर्ण देवताओं ने पहले उसके साथ अपनी पूरी शक्ति लगाकर युद्ध किया था; परंतु उसके ऊपर सबके अस्त्र-शस्त्र निष्फल हो गये। जल के स्वामी वरुण का पाश टूट गया। श्रीहरि का सुदर्शनचक्र भी वहाँ सफल नहीं हुआ। श्रीविष्णु ने उसके कण्ठ पर चक्र चलाया, किंतु वह वहाँ कुण्ठित हो गया। ब्रह्माजी ने महायोगीश्वर भगवान् शम्भु के वीर्य से उत्पन्न हुए बालक के हाथ से इस दुरात्मा दैत्य की मृत्यु बतायी है। यह कार्य तुम्हें अच्छी तरह और प्रयत्नपूर्वक करना है। मित्रवर! उसके हो जाने से हम देवताओं को बड़ा सुख मिलेगा। भगवान् शम्भु गिरिराज हिमालय पर उत्तम तपस्या में लगे हैं। वे हमारे भी प्रभु हैं, कामना के वश में नहीं हैं, स्वतन्त्र परमेश्वर हैं। मैंने सुना है कि गिरिराजनन्दिनी पार्वती पिता की आज्ञा पाकर अपनी दो सखियों के साथ उनके समीप रहकर उनकी सेवा में रहती हैं। उनक यह प्रयत्न महादेवजी को पतिरूप में प्राप्त करने के लिये ही है। परंतु भगवान् शिव अपने मन को संयम-नियम से वश में रखते हैं। मार! जिस तरह भी उनकी पार्वती में अत्यन्त रूचि हो जाय, तुम्हें वैसा ही प्रयत्न करना चाहिये। यही कार्य करके तुम कृतार्थ हो जाओगे और हमारा सारा दुःख नष्ट हो जायगा। इतना ही नहीं, लोक में तुम्हारा स्थायी प्रताप फैल जायगा।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! इन्द्र के ऐसा कहने पर कामदेव का मुखारविन्द प्रसन्नता से खिल उठा। उसने देवराज से प्रेमपूर्वक कहा – 'मैं इस कार्य को करूँगा। इसमें संशय नहीं है।' ऐसा कहकर शिव की माया से मोहित हुए काम ने उस कार्य के लिये स्वीकृति दे दी और शीघ्र ही उसका भार ले लिया। वह अपनी पत्नी रति और वसन्त को साथ ले बड़ी प्रसन्नता के साथ उस स्थान पर गया, जहाँ साक्षात् योगीश्वर शिव उत्तम तपस्या कर रहे थे।
(अध्याय १७)