रुद्र की नेत्राग्नि से काम का भस्म होना, रति का विलाप, देवताओं की प्रार्थना से शिव का काम को द्वापर में प्रद्युम्नरूप से नूतन शरीर की प्राप्ति का वर देना और रति का शम्बर-नगर में जाना
ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! काम अपने साथी वसन्त आदि को लेकर वहाँ पहुँचा। उसने भगवान् शिव पर अपने बाण चलाये। तब शंकरजी के मन में पार्वती के प्रति आकर्षण होने लगा और उनका धैर्य छूटने लगा। अपने धैर्य का ह्रास होता देख महायोगी महेश्वर अत्यन्त विस्मित हो मन-ही-मन इस प्रकार चिन्तन करने लगे।
शिव बोले – मैं तो उत्तम तपस्या कर रहा था, उसमें विघ्न कैसे आ गये? किस कुकर्मी ने यहाँ मेरे चित्त में विकार पैदा कर दिया?
इस तरह विचार करके सत्पुरुषों के आश्रयदाता महायोगी परमेश्वर शिव शंकायुक्त हो सम्पूर्ण दिशाओं की ओर देखने लगे। इसी समय वामभाग में बाण खींचे खड़े हुए काम पर उनकी दृष्टि पड़ी। वह मूढचित्त मदन अपनी शक्ति के घमंड में आकर पुनःअपना बाण छोड़ना ही चाहता था। नारद! इस अवस्था में काम पर दृष्टि पड़ते ही परमात्मा गिरीश को तत्काल रोष चढ़ आया। मुने! उधर आकाश में बाणसहित धनुष लिये खड़े हुए काम ने भगवान् शंकर पर अपना अमोघ अस्त्र छोड़ दिया, जिसका निवारण करना बहुत कठिन था। परंतु परमात्मा शिव पर वह अमोघ अस्त्र भी मोघ (व्यर्थ) हो गया, कुपित हुए परमेश्वर के पास जाते ही शान्त हो गया। भगवान् शिव पर अपने अस्त्र के व्यर्थ हो जाने पर मन्मथ (काम) को बड़ा भय हुआ। भगवान् मृत्युंजय को सामने देखकर वह काँप उठा और इन्द्र आदि समस्त देवताओं का स्मरण करने लगा। मुनिश्रेष्ठ! अपना प्रयास निष्फल हो जाने पर काम भय से व्याकुल हो उठा था। मुनीश्वर! कामदेव के स्मरण करने पर वे इन्द्र आदि सब देवता वहाँ आ पहुँचे और शम्भु को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे।
देवता स्तुति कर ही रहे थे कि कुपित हुए भगवान् हर के ललाट के मध्य-भाग में स्थित तृतीय नेत्र से बड़ी भारी आग तत्काल प्रकट होकर निकली। उसकी ज्वालाएँ ऊपर की ओर उठ रही थीं। वह आग धू-धू करके जलने लगी। उसकी प्रभा प्रलयाग्नि के समान जान पड़ती थी। वह आग तुरंत ही आकाश में उछली और पृथ्वी पर गिर पड़ी। फिर अपने चारों ओर चक्कर काटती हुई धराशायिनी हो गयी। साधो! 'भगवन्! क्षमा कीजिये, क्षमा कीजिये' यह बात जब तक देवताओं के मुख से निकले, तब तक ही उस आग ने कामदेव को जलाकर भस्म कर दिया। उस वीर कामदेव के मारे जाने पर देवताओं को बड़ा दुःख हुआ। वे व्याकुल हो 'हाय! यह क्या हुआ?' ऐसा कह-कहकर जोर-जोर से चीत्कार करते हुए रोने-बिलखने लगे।
उस समय विकृतचित्त हुई पार्वती का सारा शरीर सफेद पड़ गया – काटो तो खून नहीं। वे सखियों को साथ ले अपने भवन को चली गयीं। कामदेव के जल जाने पर रति वहाँ एक क्षण तक अचेत पड़ी रही। पति की मृत्यु के दुःख से वह इस तरह पड़ी थी, मानो मर गयी हो। थोड़ी देर में जब होश हुआ, तब अत्यन्त व्याकुल हो रति उस समय तरह-तरह की बातें कहकर विलाप करने लगी।
रति बोली – हाय! मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? देवताओं ने यह क्या किया। मेरे उद्दण्ड स्वामी को बुलाकर नष्ट करा दिया। हाय! हाय! नाथ! स्मर! स्वामिन्! प्राणप्रिय! हा मुझे सुख देने वाले प्रियतम! हा प्राणनाथ! यह यहाँ क्या हो गया?
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! इस प्रकार रोती, बिलखती और अनेक प्रकार की बातें कहती हुई रति हाथ-पैर पटकने और अपने सिर के बालों को नोचने लगी। उस समय उसका विलाप सुनकर वहाँ रहने वाले समस्त वनवासी जीव तथा वृक्ष आदि स्थावर प्राणी भी बहुत दुःखी हो गये। इसी बीच में इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता महादेवजी का स्मरण करते हुए, रति को आश्वासन दे इस प्रकार बोले।
देवताओं ने कहा – तुम काम के शरीर का थोड़ा-सा भस्म लेकर उसे यत्नपूर्वक रखो और भय छोड़ो। हम सबके स्वामी महादेवजी कामदेव को पुनः जीवित कर देंगे और तुम फिर अपने प्रियतम को प्राप्त कर लोगी। कोई किसी को न तो सुख देने वाला है और न कोई दुःख ही देने वाला है। सब लोग अपनी-अपनी करनी का फल भोगते हैं। तुम देवताओं को दोष देकर व्यर्थ ही शोक करती हो।
इस प्रकार रति को आश्वासन दे सब देवता भगवान् शिव के पास आये और उन्हें भक्तिभाव से प्रसन्न करके यों बोले।
देवताओं ने कहा – भगवन्! शरणागत-वत्सल महेश्वर! आप कृपा करके हमारे इस शुभ वचन को सुनिये। शंकर! आप कामदेव की करतूत पर भलिभाँति प्रसन्नतापूर्वक विचार कीजिये। महेश्वर! काम ने जो यह कार्य किया है, इसमें इसका कोई स्वार्थ नहीं था। दुष्ट तारकासुर से पीड़ित हुए हम सब देवताओं ने मिलकर उससे यह काम कराया है। नाथ! शंकर! इसे आप अन्यथा न समझें। सब कुछ देने वाले देव! गिरीश! सती-साध्वी रति अकेली अति दुःखी होकर विलाप कर रही है। आप उसे सान्त्वना प्रदान करें। शंकर! यदि इस क्रोध के द्वारा आपने कामदेव को मार डाला तो हम यही समझेंगे कि आप देवताओं सहित समस्त प्राणियों का अभी संहार कर डालना चाहते हैं। रति का दुःख देखकर देवता नष्टप्राय हो रहे हैं; इसलिये रति का शोक दूर कर देना चाहिये।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! सम्पूर्ण देवताओं का यह वचन सुनकर भगवान् शिव प्रसन्न हो उनसे इस प्रकार बोले –
शिव ने कहा – देवताओं और ऋषियों! तुम सब आदरपूर्वक मेरी बात सुनो। मेरे क्रोध से जो कुछ हो गया है, वह तो अन्यथा नहीं हो सकता, तथापि रति का शक्तिशाली पति कामदेव तभी तक अनंग (शरीररहित) रहेगा, जब तक रुक्मिणीपति श्रीकृष्ण का धरती पर अवतार नहीं हो जाता। जब श्रीकृष्ण द्वारका में रहकर पुत्रों को उत्पन्न करेंगे; तब वे रुक्मिणी के गर्भ से काम को भी जन्म देंगे। उस काम का ही नाम उस समय 'प्रद्युम्न' होगा – इसमें संशय नहीं है। उस पुत्र के जन्म लेते ही शम्बरासुर उसे वर लेगा। हरण के पश्चात् दानवशिरोमणि शम्बर उस शिशु को समुद्र में डाल देगा। फिर वह मूढ़ उसे मरा हुआ समझकर अपने नगर को लौट जायगा। रते! उस समय तक तुम्हें शम्बरासुर के नगर में सुखपूर्वक निवास करना चाहिये। वहीं तुम्हें अपने पति प्रद्युम्न की प्राप्ति होगी। वहाँ तुमसे मिलकर काम युद्ध में शम्बरासुर का वध करेगा और सुखी होगा। देवताओं! प्रद्यम्न नामधारी काम अपनी कामिनी रति को तथा शम्बरासुर के धन को लेकर उसके साथ पुनः नगर में जायगा। मेरा यह कथन सर्वथा सत्य होगा।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! भगवान् शिव की यह बात सुनकर देवताओं के चित्त में कुछ उल्लास हुआ और वे उन्हें प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़ विनीत भाव से बोले।
देवताओं ने कहा – देवदेव! महादेव! करुणासागर! प्रभो! आप कामदेव को शीघ्र जीवन-दान दें तथा रति के प्राणों की रक्षा करें।
देवताओं की यह बात सुनकर सबके स्वामी करुणासागर परमेश्वर शिव पुनः प्रसन्न होकर बोले – 'देवताओं! मैं बहुत प्रसन्न हूँ। मैं काम को सबके हृदय में जीवित कर दूँगा। वह सदा मेरा गण होकर विहार करेगा। अब अपने स्थान को जाओ। मैं तुम्हारे दुःख का सर्वथा नाश करूँगा।'
ऐसा कहकर रुद्रदेव उस समय स्तुति करने वाले देवताओं के देखते-देखते अन्तर्धान हो गये। देवताओं का विस्मय दूर हो गया और वे सब-के-सब प्रसन्न हो गये। मुने! तदनन्तर रुद्र की बात पर भरोसा करके स्थिर रहने वाले देवता रति को उनका कथन सुनाकर आश्वासन दे अपने-अपने स्थान को चले गये। मुनीश्वर! कामपत्नी रति शिव के बताये हुए शम्बरनगर को चली गयी तथा रुद्रदेव ने जो समय बताया था, उसकी प्रतीक्षा करने लगी।
(अध्याय १८ - १९)