ब्रहमाजी का शिव की क्रोधाग्नि को वडवानल की संज्ञा के समुद्र में स्थापित करके संसार के भय को दूर करना, शिव के विरह से पार्वती का शोक तथा तपस्या के लिये उपदेशपूर्वक पंचाक्षर मन्त्र की प्राप्ति
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! जब भगवान् रुद्र के तीसरे नेत्र से प्रकट हुई अग्नि ने कामदेव को शीघ्र जलाकर भस्म कर दिया, तब वह बिना किसी प्रयोजन के ही प्रज्वलित हो सब और फैलने लगी। इससे चराचर प्राणियों सहित तीनों लोकों में महान् हाहाकार मच गया। तात! सम्पूर्ण देवता और ऋषि तुरंत मेरी शरण में आये। उन सबने अत्यन्त व्याकुल होकर मस्तक झुका दोनों हाथ जोड़ मुझे प्रणाम किया और मेरी स्तुति करके वह दुःख निवेदन किया। वह सुनकर मैं भगवान् शिव का स्मरण करके उसके हेतु का भलिभाँति विचार कर तीनों लोकों की रक्षा के लिये विनीतभाव से वहाँ पहुँचा! वह अग्नि ज्वालामालाओं से अत्यन्त उद्दीप्त हो जगत् को जला देने के लिये उद्यत्त थी। परंतु भगवान् शिव की कृपा से प्राप्त हुए उत्तम तेज के द्वारा मैंने उसे तत्काल स्तम्भित कर दिया। मुने! त्रिलोकी को दग्ध करने की इच्छा रखनेवाली उस क्रोधमय अग्नि को मैंने एक ऐसे घोड़े के रूप में परिणत कर दिया, जिसके मुख से सौम्य ज्वाला प्रकट हो रही थी। भगवान् शिव की इच्छा से उस वाडव शरीर (घोड़े) वाली अग्नि को लेकर मैं लोकहित के लिये समुद्र तट पर गया। मुने! मुझे आया देख समुद्र एक दिव्य पुरुष का रूप धारण करके हाथ जोड़े हुए मेरे पास आया। मुझ सम्पूर्ण लोकों के पितामह की भलिभाँति विधिवत स्तुति-वन्दना करके सिन्धु ने मुझसे प्रसन्नतापूर्वक कहा।
सागर बोला – सर्वेश्वर ब्रह्मन्! आप यहाँ किस लिये पधारे हैं? मुझे अपना सेवक समझ इस बात को प्रीतिपूर्वक कहिये।
सागर की बात सुनकर भगवान् शंकर का स्मरण करके लोकहित का ध्यान रखते हुए मैंने उससे प्रसन्नतापूर्वक कहा – 'तात समुद्र! तुम बड़े बुद्धिमान् और सम्पूर्ण लोकों के हितकारी हो। मैं शिव की इच्छा से प्रेरित हो हार्दिक प्रीतिपूर्वक तुमसे कह रहा हूँ। यह भगवान् महेश्वर का क्रोध है, जो महान् शक्तिशाली अश्व के रूप में यहाँ उपस्थित है। यह कामदेव को दग्ध करके तुरंत ही सम्पूर्ण जगत् को भस्म करने के लिये उद्यत हो गया था। यह देख पीड़ित हुए देवताओं की प्रार्थना से मैं शंकरेच्छावश वहाँ गया और इस अग्नि को स्तम्भित किया। फिर इसने घोड़े का रूप धारण किया और इसे लेकर मैं यहाँ आया। जलाधार! मैं जगत् पर दया करके तुम्हें यह आदेश दे रहा हूँ – इस महेश्वर के क्रोध को, जो वाडव का रूप धारण करके मुख से ज्वाला प्रकट करता हुआ खड़ा है, तुम प्रलयकालपर्यन्त धारण किये रहो। सरित्पते! जब मैं यहाँ आकर वास करूँगा, तब तुम भगवान् शंकर के इस अद्भुत क्रोध को छोड़ देना। तुम्हारा जल ही प्रतिदिन इसका भोजन होगा। तुम यत्नपूर्वक इसे ऊपर ही धारण किये रहना, जिससे यह तुम्हारी अनन्त जलराशि के भीतर न चला जाय।'
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! मेरे ऐसा कहने पर समुद्र ने रुद्र की क्रोधाग्निरूप वडवानल को धारण करना स्वीकार कर लिया, जो दूसरे के लिये असम्भव था। तदनन्तर वह वडवाग्नि समुद्र में प्रविष्ट हुई और ज्वालामालाओं से प्रदीप्त हो सागर की जलराशि का दहन करने लगी। मुने! इससे संतुष्टचित्त होकर मैं अपने लोक को चला आया और वह दिव्यरुपधारी समुद्र मुझे प्रणाम करके अदृश्य हो गया। महामुने! रुद्र की उस क्रोधाग्नि के भय से छूटकर सम्पूर्ण जगत् स्वस्थता का अनुभव करने लगा और देवता तथा मुनि सुखी हो गये।
नारदजी बोले – दयानिधे! मदन-दहन के पश्चात् गिरिराजनन्दिनी पार्वती देवी ने क्या किया? वे अपनी दोनों सखियों के साथ कहाँ गयीं? यह सब मुझे बताइये।
बह्माजी ने कहा – भगवान् शंकर के नेत्र से उत्पन्न हुई आग ने जब कामदेव को दग्ध किया, तब वहाँ महान् अद्भुत शब्द प्रकट हुआ, जिससे सारा आकाश गूँज उठा। उस महान् शब्द के साथ ही कामदेव को दग्ध हुआ देख भयभीत और व्याकुल हुई पार्वती दोनों सखियों के साथ अपने घर चली गयीं। उस शब्द से परिवार सहित हिमवान् भी बड़े विस्मय में पड़ गये और वहाँ गयी हुई अपनी पुत्री का स्मरण करके उन्हें बड़ा क्लेश हुआ। इतने में ही पार्वती दूर से आती हुई दिखायी दीं। वे शम्भु के विरह से रो रही थीं। अपनी पुत्री को अत्यन्त विह्वल हुई देख शैलराज हिमवान् को बड़ा शोक हुआ और वे शीघ्र ही उसके पास जा पहुँचे। वे फिर हाथ से उसकी दोनों आँखे पोछकर बोले – 'शिवे! डरो मत, रोओ मत।' ऐसा कहकर अचलेश्वर हिमवान् ने अत्यन्त विह्वल हुई पार्वती को शीघ्र ही गोद में उठा लिया और उसे सान्त्वना देते हुए वे अपने घर ले आये।
कामदेव का दाह करके महादेवजी अदृश्य हो गये थे। अतः उनके विरह से पार्वती अत्यन्त व्याकुल हो उठी थीं। उन्हें कही भी सुख या शान्ति नहीं मिलती थी। पिता के घर जाकर जब वे अपनी माता से मिलीं, उस समय पार्वती शिवा ने अपना नया जन्म हुआ माना। वे अपने रूप की निन्दा करने लगीं और बोलीं – 'हाय! मैं मारी गयी।' सखियों के समझाने पर भी वे गिरिराजकुमारी कुछ समझ नहीं पाती थीं। वे सोते-जागते, खाते-पीते, नहाते-धोते, चलते-फिरते और सखियों के बीच में खड़े होते समय भी कभी किंचिन्मात्र भी सुख का अनुभव नहीं करती थीं। 'मेरे स्वरूप को तथा जन्म-कर्म को भी धिक्कार है' ऐसा कहती हुई वे सदा महादेवजी को प्रत्येक चेष्टा का चिन्तन करती थीं। इस प्रकार पार्वती भगवान् शिव के विरह से मन-ही-मन अत्यन्त क्लेश का अनुभव करती और किंचिन्मात्र भी सुख नहीं पाती थीं। वे सदा 'शिव, शिव' का जप किया करती थीं। शरीर से पिता के घर में रहकर भी वे चित्त से पिनाकपाणि भगवान् शंकर के पास पहुँची रहती थीं। तात! शिवा शोकमग्न हो बारंबार मुर्च्छित हो जाती थीं। शैलराज हिमवान् उनकी पत्नी मेनका तथा उनके मैनाक आदि सभी पुत्र, जो बड़े उदारचेता थे, उन्हें सदा सान्त्वना देते रहते थे। तथापि वे भगवान् शंकर को भूल न सकीं।
बुद्धिमान् देवर्षे! तदनन्तर एक दिन इन्द्र की प्रेरणा से इच्छानुसार घूमते हुए तुम हिमालय पर्वत पर आये। उस समय महात्मा हिमवान् ने तुम्हारा स्वागत-सत्कार किया और कुशल-मंगल पूछा। फिर तुम उनके दिये हुए उत्तम आसन पर बैठे। तदनन्तर शैलराज ने अपनी कन्या के चरित्र का आरम्भ से ही वर्णन किया। किस तरह उसने महादेवजी की सेवा आरम्भ की और किस तरह उनके द्वारा कामदेव का दहन हुआ – यह सब कुछ बताया। मुने! यह सब सुनकर तुमने गिरिराज से कहा – 'शैलेश्वर! भगवान् शिव का भजन करो।' फिर उनसे विदा लेकर तुम उठे और मन-ही-मन शिव का स्मरण करके शैलराज को छोड़ शीघ्र ही एकान्त में काली के पास आ गये। मुने! तुम लोकोपकारी, ज्ञानी तथा शिव के प्रिय भक्त हो; समस्त ज्ञानवानों के शिरोमणि हो, अतः काली के पास आ उसे सम्बोधित करके उसी के हित में स्थित हो उससे सादर यह सत्य वचन बोले।
नारदजी (तुमने) कहा – कालिके! तुम मेरी बात सुनो। मैं दयावश सच्ची बात कह रहा हूँ। मेरा वचन तुम्हारे लिये सर्वथा हितकर, निर्दोष तथा उत्तम काम्य वस्तुओं को देने वाला होगा। तुमने यहाँ महादेवजी की सेवा अवश्य की थी, परंतु वह बिना तपस्या के गर्वयुक्त होकर की थी। दीनों पर अनुग्रह करने वाले शिव ने तुम्हारे उसी गर्व को नष्ट किया है। शिवे! तुम्हारे स्वामी महेश्वर विरक्त और महायोगी हैं। उन्होंने केवल कामदेव को जलाकर जो तुम्हें सकुशल छोड़ दिया है, उसमें यही कारण है कि वे भगवान् भक्तवत्सल हैं। अतः तुम उत्तम तपस्या में संलग्न हो चिरकाल तक महेश्वर की आराधना करो। तपस्या से तुम्हारा संस्कार हो जाने पर रुद्रदेव तुम्हें अपनी सहधर्मिणी बनायेंगे और तुम भी कभी उन कल्याणकारी शम्भु का परित्याग नहीं करोगी। देवि! तुम हठपूर्वक शिव को अपनाने का यत्न करो। शिव के सिवा दूसरे किसी को अपना पति स्वीकार न करना।
ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! तुम्हारी यह बात सुनकर गिरिराजकुमारी काली कुछ उल्लसित हो तुमसे हाथ जोड़ प्रसन्नतापूर्वक बोली।
शिवा ने कहा – प्रभो! आप सर्वज्ञ तथा जगत् का उपकार करने वाले हैं। मुने! मुझे रुद्रदेव की आराधना के लिये कोई मन्त्र दीजिये।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! पार्वती का यह वचन सुनकर तुमने पंचाक्षर शिवमन्त्र (नमः शिवाय) का उन्हें विधिपूर्वक उपदेश किया। साथ ही उस मन्त्रराज में श्रद्धा उत्पन्न करने के लिये तुमने उसका सबसे अधिक प्रभाव बताया।
नारद बोले – देवि! इस मन्त्र का परम अद्भुत प्रभाव सुनो। इसके श्रवण मात्र से भगवान् शंकर प्रसन्न हो जाते हैं। यह मन्त्र सब मन्त्रों का राजा और मनोवांछित फल को देने वाला है। भगवान् शंकर को बहुत ही प्रिय है तथा साधक को भोग और मोक्ष देने में समर्थ है। सौभाग्यशालिनि! इस मन्त्र का विधिपूर्वक जप करने से तुम्हारे द्वारा आराधित हुए भगवान् शिव अवश्य और शीघ्र तुम्हारी आँखों के सामने प्रकट हो जायँगे। शिवे! शौच-संतोषादि नियमों में तत्पर रहकर भगवान् शिव के स्वरूप का चिन्तन करती हुई तुम पंचाक्षर-मन्त्र का जप करो। इससे आराध्यदेव शिव शीघ्र ही संतुष्ट होंगे। साध्वी! इस तरह तपस्या करो। तपस्या से महेश्वर वश में हो सकते हैं। तपस्या से ही सबको मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है, अन्यथा नहीं।
बह्माजी कहते है – नारद! तुम भगवान् शिव के प्रिय भक्त और इच्छानुसार विचरनेवाले हो। तुमने काली से उपर्युक्त बात कहकर देवताओं के हित में तत्पर हो स्वर्गलोक को प्रस्थान किया। तुम्हारी बात सुनकर उस समय पार्वती बहुत प्रसन्न हुईं। उन्हें परम उत्तम पंचाक्षर-मन्त्र प्राप्त हो गया था।
(अध्याय २० - २१)