श्रीशिव की आराधना के लिये पार्वतीजी की दुष्कर तपस्या
ब्रह्माजी कहते हैं – देवर्षे! तुम्हारे चले जाने पर प्रफुल्लचित्त हुई पार्वती ने महादेवजी को तपस्या से ही साध्य माना और तपस्या के लिये ही मन में निश्चय किया। तब उन्होंने अपनी सखी जया और विजया के द्वारा पिता हिमाचल और माता मेना से आज्ञा माँगी। पिता ने तो स्वीकार कर लिया; परंतु माता मेना ने स्नेहवश अनेक प्रकार से समझाया और घर से दूर वन में जाकर तप करने से पुत्री को रोका। मेना ने तपस्या के लिये वन में जाने से रोकते हुए 'उ', 'मा' (बाहर न जाओ) ऐसा कहा; इसलिये उस समय शिवा का नाम उमा हो गया। मुने! शैलराज की प्यारी पत्नी मेना ने रोकने से शिवा को दुःखी हुई जान अपना विचार बदल दिया और पार्वती को तपस्या के लिये जाने की आज्ञा दे दी। मुनिश्रेष्ठ! माता की वह आज्ञा पाकर उत्तम व्रत का पालन करने वाली पार्वती ने भगवान् शंकर का स्मरण करके अपने मन में बड़े सुख का अनुभव किया। माता-पिता को प्रसन्नतापूर्वक प्रणाम करके शिव के स्मरणपूर्वक दोनों सखियों के साथ वे तपस्या करने के लिये चली गयीं। अनेक प्रकार के प्रिय वस्त्रों का परित्याग करके पार्वती ने कटि प्रदेश में सुन्दर मूँज की मेखला बाँध शीघ्र ही वल्कल धारण कर लिये। हार का परिहार करके उत्तम मृगचर्म को हृदय से लगाया। तत्पश्चात् वे तपस्या के लिये गंगावतरण (गंगोत्तरी) तीर्थ की ओर चलीं।
जहाँ ध्यान लगाते हुए भगवान् शंकर ने कामदेव को दग्ध किया था, हिमालय का वह शिखर गंगावतरण के नाम से प्रसिद्ध है। वहाँ परम उत्तम शृंगीतीर्थ में पार्वती ने तपस्या प्रारम्भ की। गौरी के तप करने से ही उसका 'गौरी-शिखर' नाम हो गया। मुने! शिवा ने अपने तप की परीक्षा के लिये वहाँ बहुत-से सुन्दर एवं पवित्र वृक्ष लगाये, जो फल देने वाले थे। सुन्दरी पार्वती ने पहले भूमि-शुद्ध करके वहाँ एक वेदी का निर्माण किया। तदनन्तर ऐसी तपस्या आरम्भ की, जो मुनियों के लिये भी दुष्कर थी। वे मन सहित सम्पूर्ण इन्द्रियों को शीघ्र ही काबू में करके उस वेदी पर उच्चकोटि की तपस्या करने लगीं। ग्रीष्म ऋतू में अपने चारों ओर दिन-रात आग जलाये रखकर वे बीच में बैठतीं और निरन्तर पंचाक्षर-मन्त्र का जप करती रहती थीं। वर्ष-ऋतू में वेदी पर सुस्थिर आसन से बैठ कर अथवा किसी पत्थर की चट्टान पर ही आसन लगाकर वे निरन्तर वर्षा की जलधारा से भीगती रहती थीं। शीतकाल में निराहार रहकर भगवान् शंकर के भजन में तत्पर हो वे सदा शीतल जल के भीतर खड़ी रहतीं तथा रात भर बरफ की चट्टानों पर बैठा करती थीं। इस प्रकार तप करती हुई पंचाक्षर-मन्त्र के जप में संलग्न हो शिवा सम्पूर्ण मनोवांछित फलों के दाता शिव का ध्यान करती थीं। प्रतिदिन अवकाश मिलने पर वे सखियों के साथ अपने लगाये हुए वृक्षों को प्रसन्नतापूर्वक सींचतीं और वहाँ पधारे हुए अतिथि का आतिथ्य-सत्कार भी करती थीं।
शुद्ध चित्तवाली पार्वती ने प्रचण्ड आँधी, कड़ाके की सर्दी, अनेक प्रकार की वर्षा तथा दुस्सह धुप का भी सेवन किया। उनके ऊपर वहाँ नाना प्रकार के दुःख आये, परंतु उन्होंने उन सबको कुछ नहीं गिना। मुने! वे केवल शिव में मन लगाकर वहाँ सुस्थिरभाव से खड़ी या बैठी रहती थीं। उनका पहला वर्ष फलाहार में बीता और दूसरा वर्ष उन्होंने केवल पत्ते चबाकर बिताया! इस तरह तपस्या करती हुई देवी पार्वती ने क्रमशः अंसख्य वर्ष व्यतीत कर दिये। तदनन्तर हिमवान् की पुत्री शिवादेवी पत्ते खाना भी छोड़कर सर्वथा निराहार रहने लगीं, तो भी तपश्चर्या में उनका अनुराग बढ़ता ही गया। हिमाचलपुत्री शिवा ने भोजन के लिये पर्ण का भी परित्याग कर दिया। इसलिये देवताओं ने उनका नाम 'अपर्णा' रख दिया। इसके बाद पार्वती भगवान् शिव के स्मरणपूर्वक एक पैर से खड़ी हो पंचाक्षर-मन्त्र का जप करती हुई बड़ी भारी तपस्या करने लगीं। उनके अंग चीर और वल्कल से ढके थे। मस्तक पर जटाओं का समूह धारण किये रहती थीं। इस प्रकार शिव के चिन्तन में लगी हुई पार्वती ने अपनी तपस्या के द्वारा मुनियों को जीत लिया। उस तपोवन में महेश्वर के चिन्तनपूर्वक तपस्या करती हुई काली के तीन हजार वर्ष बीत गये।
तदनन्तर जहा महादेवजी ने साठ हजार वर्षों तक तप किया था, उस स्थान पर क्षण भर ठहरकर शिवादेवी इस प्रकार चिन्ता करने लगी – 'क्या महादेवजी इस समय यह नहीं जानते कि मैं उनके लिये नियमों के पालन में तत्पर हो तपस्या कर रही हूँ? फिर क्या कारण है कि सुदीर्घकाल से तपस्या में लगी हुई मुझ सेविका के पास वे नहीं आये? लोक में, वेद में और मुनियों द्वारा सदा गिरीश की महिमा का गान किया जाता है। सब यही कहते हैं कि भगवान् शंकर सर्वज्ञ, सर्वात्मा, सर्वदर्शी, समस्त ऐश्वर्यों के दाता, दिव्य शक्तिसम्पन्न, सब के मनोभावों को समझ लेने वाले, भक्तों को उनकी अभीष्ट वस्तु देने वाले और सदा समस्त क्लेशों का निवारण करने वाले हैं। यदि मैं समस्त कामनाओं का परित्याग करके भगवान् वृषभध्वज में अनुरक्त हुई हूँ तो वे कल्याणकारी भगवान् शिव यहाँ मुझ पर प्रसन्न हों। यदि मैंने नारदतन्त्रोक्त शिवपंचाक्षर-मन्त्र का सदा उत्तम भक्तिभाव से विधिपूर्वक जप किया हो तो भगवान् शंकर मुझ पर प्रसन्न हों। यदि मैं सर्वेश्वर शिव की भक्ति से युक्त एवं निर्विकार होऊं तो भगवान् शंकर मुझ पर अत्यन्त प्रसन्न हों।'
इस तरह नित्य चिन्तन करती हुई जटा-वल्कलधारिणी निर्विकारा पार्वती मूँह नीचे किये सुदीर्घकालतक तपस्या में लगी रहीं। उन्होंने ऐसी तपस्या की, जो मुनियों के लिये भी दुष्कर थी। वहाँ उस तपस्या का स्मरण करके पुरुषों को बड़ा विस्मय हुआ। महर्षे! पार्वती की तपस्या का जो दूसरा प्रभाव पड़ा था, उसे भी इस समय सुनो। जगदम्बा पार्वती का वह महान् तप परम आश्चर्यजनक था। जो स्वभावतः एक-दूसरे के विरोधी थे, ऐसे प्राणी भी उस आश्रम के पास जाकर उनकी तपस्या के प्रभाव से विरोधरहित हो जाते थे। सिंह और गौ आदि सदा रागादि दोषोसे संयुक्त रहने वाले पशु भी पार्वती के तप की महिमा से वहाँ परस्पर बाधा नहीं पहुँचाते थे। मुनिश्रेष्ठ! इनके अतिरिक्त जो स्वभावतः एक-दूसरे के वैरी हैं, वे चूहे-बिल्ली आदि दूसरे-दूसरे जीव भी उस आश्रम पर कभी रोष आदि विकारों से युक्त नहीं होते थे। वहाँ के सभी वृक्षों में सदा फल लगे रहते थे। भाँति-भाँति के तृण और विचित्र पुष्प उस वन की शोभा बढ़ाते थे। वहाँ का सारा वनप्रान्त कैलास के समान हो गया। पार्वती के तप की सिद्धि का साकार रूप बन गया।
(अध्याय २२)