पार्वती की तपस्याविषयक दृढ़ता, उनका पहले से भी उग्र तप,उससे त्रिलोकी का संतप्त होना तथा समस्त देवताओं के साथ ब्रह्मा और विष्णु का भगवान् शिव के स्थान पर जाना
ब्रह्माजी कहते हैं – मुनिश्वर! शिव की प्राप्ति के लिये इस प्रकार तपस्या करती हुई पार्वती के बहुत वर्ष बीत गये, तो भी भगवान् शंकर प्रकट नहीं हुए। तब हिमाचल, मेना, मेरु और मन्दराचल आदि ने आकर पार्वती को समझाया और शिव की प्राप्ति को अत्यन्त दुष्कर बताकर ऊनसे यह अनुरोध किया कि तुम तपस्या छोड़कर घर को लौट चलो।
तब उन सबकी बात सुनकर पार्वती ने कहा – पिताजी! माताजी! तथा मेरे सभी बान्धव! मैंने पहले जो बात कही थी, उसे क्या आप लोगों ने भुला दिया है? अस्तु, इस समय भी मेरी जो प्रतिज्ञा है, उसे आप लोग सुन लें। जिन्होंने रोष से कामदेव को जलाकर भस्म कर दिया है वे महादेवजी यद्यपि विरक्त हैं, तो भी मैं अपनी तपस्या से उन भक्तवत्सल भगवान् शंकर को अवश्य सतुंष्ट करूँगी। आप सब लोग प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने घर को जायँ; महादेवजी संतुष्ट होंगे ही, इसमें अन्यथा विचार की आवश्यकता नहीं है। जिन्होंने कामदेव को जलाया है, जिन्होंने इस पर्वत के वन को भी जलाकर भस्म कर दिया है, उन भगवान् शंकर को मैं केवल तपस्या से यही बुलाऊँगी। महाभागगण! आप यह जान लें कि महान् तपोबल से ही भगवान् सदाशिव की सेवा सुलभ हो सकती है। यह मैं आप लोगों से सत्य, सत्य कहती हूँ।
सुमधुर भाषण करने वाली पर्वतराज कुमारी शिवा माता मेनका, भाई मैनाक, पिता हिमालय और मन्दराचल आदि से उपर्युक्त बात कहकर शीघ्र ही चुप हो गयीं। शिवा के ऐसा कहने पर वे चतुर-चालाक पर्वत, गिरिराज सुमेरु आदि गिरिजा की बारंबार प्रशंसा करते हुए अत्यन्त विस्मित हो जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये। उन सबके चले जाने पर सखियों से घिरी हुई पार्वती मन में यथार्थ निश्चय करके पहले से भी अधिक उग्र तपस्या करने लगी। मुनिश्रेष्ठ! देवताओं, असुरों, मनुष्यों और चराचर प्राणियों सहित समस्त त्रिलोकी उस महती तपस्या से संतप्त हो उठी। उस समय समस्त देवता, असुर, यक्ष, किन्नर, चारण, सिद्ध, साध्य, मुनि, विद्याधर, बड़े-बड़े नाग, प्रजापति, गुह्यक तथा अन्य लोग महान्-से-महान् कष्ट में पड़ गये। परंतु इसका कोई कारण उनकी समझ में नहीं आया। तब इन्द्र आदि सब देवता मिलकर गुरु बृहस्पति से सलाह ले बड़ी विव्ह्लता के साथ सुमेरु पर्वत पर मुझ विधाता की शरण में आये। उस समय उनके सारे अंग संतप्त हो रहे थे। वहाँ आ मुझे प्रणाम कर उन सभी व्याकुल और कान्तिहीन देवताओं ने मेरी स्तुति करके एक साथ ही मुझसे पूछा – 'प्रभो! जगत् के संतप्त होने का क्या कारण है?'
उनका यह प्रश्न सुनकर मन-ही-मन शिव का स्मरण करके विचारपूर्वक मैंने सब कुछ जान लिया। इस समय विश्व में जो दाह उत्पन्न हो गया है, वह गिरिजा की तपस्या का फल है – यह जानकर मैं उन सबके साथ शीघ्र ही क्षीरसागर को गया। वहाँ जाने का उद्देश्य भगवान् विष्णु से सब कुछ बताना था। वहाँ पहुँचकर देखा, भगवान् श्रीहरि सुखद आसन पर विराजमान हैं। देवताओं के साथ मैंने हाथ जोड़कर प्रणामपूर्वक उनकी स्तुति की और कहा – 'महाविष्णो! तपस्या में लगी हुई पार्वती के परम उग्र तप से संतप्त हो हम सब लोग आपकी शरण में आये हैं। आप हमे बचाइये, बचाइये।' हम सब देवताओं की यह बात सुनकर शेषशय्या पर बैठे हुए भगवान् लक्ष्मीपति हमसे बोले।
श्रीविष्णु ने कहा – देवताओं! मैंने आज पार्वतीजी की तपस्या का सारा कारण जान लिया है। अतः तुम लोगों के साथ अब परमेश्वर शिव के समीप चलता हूँ। हम सब लोग मिलकर यह प्रार्थना करेंगे कि वे गिरिजा को ब्याहकर अपने यहाँ ले आवें। अमरो! इस समय समस्त संसार के कल्याण के लिये भगवान् से शिवा के पाणिग्रहण के लिये अनुरोध करना है। देवाधिदेव पिनाकधारी भगवान् शिव शिवा को वर देने के लिये जैसे भी वहीं उनके आश्रम पर जायँ, इस समय हम वैसा ही प्रयन्त करेंगे। अतः परम मंगलमय महाप्रभु रुद्र जहाँ उग्र तपस्या में लगे हुए हैं, वहीं हम सब लोग चलें।
भगवान् विष्णु की यह बात सुनकर समस्त देवता आदि हठी, क्रोधी और जलाने के लिये उद्यत रहने वाले प्रलयंकर रुद्र से अत्यन्त भयभीत हो बोले।
देवताओं ने कहा – भगवन्! जो महाभयंकर, कालाग्नि के समान दीप्तिमान और भयानक नेत्रों से युक्त हैं, उन रोष भरे महाप्रभु रुद्र के पास हम लोग नहीं जा सकेंगे; क्योंकि जैसे पहले उन्होंने कुपित हो दुर्जय काम को भी जला दिया था, उसी प्रकार वे हमें भी दग्ध कर डालेंगे – इसमें संशय नहीं है।
मुने! इन्द्रादि देवताओं की बात सुनकर लक्ष्मीपति श्रीहरि ने उन सबको सान्त्वना देते हुए कहा।
श्रीहरि बोले – हे देवताओं! तुम सब लोग प्रेम और आदर के साथ मेरी बात सुनो। भगवान् शिव देवताओं के स्वामी तथा उनके भय का नाश करने वाले हैं। वे तुम्हें नहीं दग्ध करेंगे। तुम सब लोग बड़े चतुर हो। अतः तुम्हें शम्भु को कल्याणकारी मानकर हमारे साथ सबके उत्तम प्रभु इन महादेवजी की शरण में चलना चाहिये। भगवान् शिव पुराणपुरुष, सर्वेश्वर, वरणीय, परात्पर, तपस्वी और परमात्मस्वरूप है; अतः हमें उनकी शरण में अवश्य चलना चाहिये।
प्रभावशाली विष्णु के ऐसा कहने पर सब देवता उनके साथ पिनाकपाणि शिव का दर्शन करने के लिये गये। मार्ग में पार्वती का आश्रम पहले पड़ता था। अतः उन गिरिराजनन्दिनी की तपस्या देखने के लिये विष्णु आदि सब देवता कौतुहलपूर्वक उनके आश्रम पर गये। पार्वती के श्रेष्ठ तप को देखकर सब देवता उनके उत्तम तेज से व्याप्त हो गये। उन्होंने तपस्या में लगी हुई उन तेजोमयी जगदम्बा को नमस्कार किया और साक्षात् सिद्धिस्वरूपा शिवादेवी के तप की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए वे सब देवता उस स्थान पर गये, जहाँ भगवान् वृषभध्वज विराजमान थे। मुने! वहाँ पहुँचकर सब देवताओं ने पहले तुम्हें उनके पास भेजा और स्वयं वे मदनदहनकारी भगवान् हर से दूर ही खड़े रहे। वे वहीं से यह देखते रहे कि भगवान् शिव कुपित हैं या प्रसन्न! नारद! तुम तो सदा निर्भय रहने वाले और विशेषतः शिव के भक्त हो। अतः तुमने भगवान् शिव के स्थान पर जाकर उन्हें सर्वथा प्रसन्न देखा। फिर वहाँ से लौटकर तुम श्रीविष्णु आदि सब देवताओं को भगवान् शिव के स्थान पर ले गये। वहाँ पहुँचकर विष्णु आदि सब देवताओं ने देखा, भक्तवत्सल भगवान् शिव सुखपूर्वक प्रसन्न मुद्रा में बैठे हैं। अपने गणों से घिरे हुए शम्भु तपस्वी का रूप धारण किये योगपट्ट पर आसीन थे। उन परमेश्वररूपी शंकर का दर्शन करके मेरे सहित श्रीविष्णु तथा अन्य देवताओं, सिद्धों और मुनीश्वरों ने उन्हें प्रणाम करके वेदों और उपनिषदों के सूत्रों द्वारा उनका स्तवन किया।
(अध्याय २३)