देवताओं का भगवान् शिव से पार्वती के साथ विवाह करने का अनुरोध, भगवान् का विवाह के दोष बताकर अस्वीकार करना तथा उनके पुनः प्रार्थना करने पर स्वीकार कर लेना

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! देवताओं ने वहाँ पहुँचकर भगवान् रुद्र को प्रणाम करके उनकी स्तुति की। तब नंदिकेश्वर ने भगवान् शिव में उनकी दिनबन्धुता एवं भक्त-वत्सलता की प्रशंसा करते हुए कहा – 'प्रभो! देवता और मुनि संकट में पड़कर आपकी शरण में आये हैं। सर्वेश्वर! आप उनका उद्धार करें।'

दयालु नन्दी के इस प्रकार सूचित करने पर भगवान् शम्भु धीरे-धीरे आँखे खोलकर ध्यान से उपरत हुए। समाधि से विरत हो परमज्ञानी परमात्मा एवं ईश्वर शम्भु ने समस्त देवताओं से इस प्रकार कहा।

शम्भु बोले – श्रीविष्णु और ब्रह्मा आदि देवेश्वरो! तुम सब लोग मेरे समीप कैसे आये? तुम अपने आने का जो भी कारण हो, वह शीघ्र बताओ।

भगवान् शंकर का यह वचन सुनकर सब देवता प्रसन्न हो कारण बताने के लिये भगवान् विष्णु के मूँह की ओर देखने लगे। तब शिव के महान् भक्त और देवताओं के हितकारी श्रीविष्णु मेरे बताये हुए देवताओं के महत्तर कार्य को सूचित करने लगे। उन्होंने कहा – 'शम्भो! तारकासुर ने देवताओं को अत्यन्त अद्भुत एवं महान् कष्ट प्रदान किया है। यही बताने के लिये सब देवता यहाँ आये हैं। भगवन्! आपके औरस पुत्र से ही तारक दैत्य मारा जा सकेगा और किसी प्रकार से नहीं। मेरा यह कथन सर्वथा सत्य है। महादेव! इस प्रकार विचार करके आप कृपा करें। आपको नमस्कार है। स्वामिन्! तारकासुर के द्वारा उपस्थित किये गये इस कष्ट से आप देवताओं का उद्धार कीजिये। देव! शम्भो! आप दाहिने हाथ से गिरिजा का पाणिग्रहण करें। गिरिराज हिमवान् के द्वारा दी हुई महानुभावा पार्वती को पाणिग्रहण के द्वारा ही अनुगृहित कीजिये।'

श्रीविष्णु का यह वचन सुनकर योगपरायण भगवान् शिव ने उन सबको उत्तम गति का दर्शन कराते हुए इस प्रकार कहा – 'देवताओं! ज्यों ही मैंने सर्वांग-सुन्दरी गिरिजा देवी को स्वीकार किया, त्यों ही समस्त सुरेश्वर तथा ऋषि-मुनि सकाम हो जायेंगे। फिर तो वे परमार्थपथ पर चलने में समर्थ न हो सकेंगे। दुर्गा अपने पाणिग्रहण मात्र से ही कामदेव को जीवित कर देंगी। विष्णो! मैंने कामदेव को जलाकर देवताओं का बहुत बड़ा कार्य सिद्ध किया है। आज से सब लोग मेरे साथ सुनिश्चित रूप से निष्काम होकर रहें। देवताओं! जैसे मैं हूँ, उसीतरह तुम सब लोग पृथक्-पृथक् रहकर कोई विशेष प्रयत्न किये बिना ही अत्यन्त दुष्कर एवं उत्तम तपस्या कर सकोगे। अब उस मदन के न होने से तुम सब देवता समाधि के द्वारा परमानन्द का अनुभव करते हुए निर्विकार हो जाओ; क्योंकि काम नरक की ही प्राप्ति कराने वाला है। काम से क्रोध होता है, क्रोध से मोह होता है और मोह से तपस्या नष्ट होती है। अतः तुम सभी श्रेष्ठ देवताओं को काम और क्रोध का परित्याग कर देना चाहिये, मेरे इस कथन को कभी अन्यथा नहीं मानना चाहिये।

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! वृषभ के चिह्न से युक्त ध्वजा धारण करने वाले भगवान् महादेव ने इस प्रकार की बातें सुनाकर ब्रह्मा, विष्णु, देवताओं तथा मुनियों को निष्काम धर्म का उपदेश दिया। तदनन्तर भगवान् शम्भु पुनः ध्यान लगाकर चुप हो गये और पहले की ही भाँति पार्षदों से घिरे हुए सुस्थिर भाव से बैठे गये। वे अपने मन में ही स्वयं आत्मस्वरूप, निरंजन, निराभास, निर्विकार, निरामय, परात्पर, नित्य ममतारहित, नीरवग्रह, शब्दातीत, निर्गुण, ज्ञानगम्य एवं प्रकृति से पर परमात्मा का चिन्तन करते हुए वे ध्यान में स्थित हो गये। बहुत-से प्राणियों की सृष्टि करने वाले भगवा शिव ध्यान करते-करते ही परमानन्द में निमग्न हो गये। श्रीहरि एवं इन्द्र आदि देवताओं ने जब परमेश्वर शिव को ध्यानमग्न देखा, तब उन्होंने नन्दी की सम्मति ली। नन्दी ने पुनः दीनभाव से स्तुति करने के लिये कहा। उनकी इस सत्सम्मति के अनुसार देवता स्तुति करने लगे। वे बोले – 'देवदेव! महादेव! करुणासागर प्रभो! हम आपकी शरण में आये हैं। आप महान् क्लेश से हमारा उद्धार कीजिये।'

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! इस प्रकार बहुत दीनतापूर्ण उक्ति से देवताओं ने भगवान् शंकर की स्तुति की। इसके बाद वे सब देवता प्रेम से व्याकुलचित्त हो उच्च स्वर से फुट-फुट कर रोने लगे। मेरे साथ भगवान् श्रीहरि उत्तम भक्तिभाव से युक्त हो मन-ही-मन भगवान् शम्भु का स्मरण करते हुए अत्यन्त दीनतापूर्ण वाणी द्वारा उनसे अपना अभिप्राय निवेदन करने लगे।

देवताओं के, मेरे तथा श्रीहरि के इस प्रकार बहुत स्तुति करने पर भगवान् महेश्वर अपनी भक्तवत्सलता के कारण ध्यान से विरत हो गये। उनका मन अत्यन्त प्रसन्न था। वे भक्तवत्सल शंकर श्रीहरि आदि को करुणादृष्टि से देखकर उनका हर्ष बढ़ाते हुए बोले – 'विष्णो! ब्रह्मन्! तथा इन्द्र आदि देवताओं! तुम सब लोग एक साथ यहाँ किस अभिप्राय से आये हो? मेरे सामने सच-सच बताओ।'

श्रीहरि ने कहा – महेश्वर! आप सर्वत्र हैं, सबके अन्तर्यामी ईश्वर हैं। क्या आप हमारे मन की बात नहीं जानते? अवश्य जानते हैं, तथापि आपकी आज्ञा से मैं स्वयं भी कहता हूँ। सुखदायक शंकर! हम सब देवताओं को तारकासुर से अनेक प्रकार का दुःख प्राप्त हुआ है। इसीलिये देवताओं ने आपको प्रसन्न किया है। आपके लिये ही उन्होंने गिरिराज हिमालय से शिवा की उत्पत्ति करायी है। शिवा के गर्भ से आपके द्वारा जो पुत्र उत्पन्न होगा, उसी से तारकासुर की मृत्यु होगी, दूसरे किसी उपाय से नहीं। ब्रहमाजी ने उस दैत्य को यही वर दिया है। उस कारण दूसरे से उनकी मृत्य नहीं हो पा रही है। अतएव वह निडर होकर सारे संसार को कष्ट दे रहा हिया। इधर नारदजी की आज्ञा से पार्वती कठोर तपस्या कर रही हैं। उनके तेज से समस्त चराचर प्राणियों सहित त्रिलोकी आच्छादित हो गयी है। इसलिये परमेश्वर! आप शिवा को वर देने के लिये जाइये। स्वामिन्! देवताओं का दुःख मिटाइये और हमें सुख दीजिये। शंकर! मेरे तथा देवताओं के हृदय में आपके विवाह का उत्सव देखने के लिये बड़ा भारी उत्साह है। अतः आप यथोचित रीति से विवाह कीजिये। परात्पर परमेश्वर! आपने रति को जो वर दिया था, उसकी पूर्ति का अवसर आ गया है। अतः अपनी प्रतिज्ञा को शीघ्र सफल कीजिये।

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! ऐसा कह उन्हें प्रणाम करके श्रीविष्णु आदि देवताओं और महर्षियों ने नाना प्रकार के स्तोत्रों द्वारा पुनः उनकी स्तुति की। फिर वे सब-के-सब उनके सामने खड़े हो गये। भक्तों के अधीन रहने वाले भगवान् शंकर भी, जो वेदमर्यादा के रक्षक हैं, देवताओं की बात सुन हँसकर बोले – 'हे हरे! हे विधे! और हे देवताओं! तुम सब लोग आदरपूर्वक सुनो। मैं यथोचित, विशेषतः विवेकपूर्ण बात कह रहा हूँ। विवाह करना मनुष्यों के लिये उचित कार्य नहीं है; क्योंकि विवाह दृढ़तापूर्वक बाँध रखनेवाली एक बहुत बड़ी बेड़ी है। जगत् में बहुत-से कुसंग हैं; परंतु स्त्री का संग उनमें सबसे बढ़कर है। मनुष्य सारे बन्धनों से छुटकारा पा सकता है, परंतु स्त्रीप्रसंगरूपी बन्धन से वह मुक्त नहीं हो पाता। लोहे और काठ की बनी हुई बेड़ियों में दृढ़तापूर्वक बँधा हुआ पुरुष भी एक दिन उस कैद से छुटकारा पा जाता है, परंतु स्त्री-पुत्र आदि के बन्धन में बँधा हुआ मनुष्य कभी छुट नहीं पाता। महान् बन्धन में डालनेवाले विषय सदा बढ़ते रहते हैं। जिसका मन विषयों के वशीभूत हो गया है, उसके लिये मोक्ष स्वप्न में भी दुर्लभ है। विद्वान् पुरुष यदि सुख चाहता है तो वह विषयों को विधिपूर्वक त्याग दे। विषयों को विष के समान बताया गया है, जिनके द्वारा मनुष्य मारा जाता है। विषयी के साथ वार्ता करने मात्र से मनुष्य क्षणभर में पतित हो जाता है। आचार्यों ने विषय को मिश्री मिलायी हुई वारुणी (मदिरा) कहा है। यद्यपि मैं इस बात को जानता हूँ और यद्यपि विषयों के इन सारे दोषों का मुझे विशेष ज्ञान है, तथापि मैं तुम्हारी प्रार्थना को सफल करूँगा; क्योंकि मैं भक्तों के अधीन रहता हूँ और भक्त-वत्सलता वश उचित-अनुचित सारे कार्य करता हूँ। इसलिये तीनों लोकों में 'अयथोचितकर्ता' के रूप में मेरी प्रसिद्धि है। भक्तों के लिये मैंने अनेक बार बहुत-से प्रयत्न करके कष्ट सहन किये हैं, गृहपति होकर विश्वानर मुनि का दुःख दूर किया है। हरे! विधे! अब अधिक कहने की क्या आवश्यकता। मेरी जो प्रतिज्ञा है, उसे तुम सब लोग अच्छी तरह जानते हो। मैं यह सत्य कहता हूँ कि जब-जब भक्तों पर कहीं विपत्ति आती है, तब-तब मैं तत्काल उनके सारे कष्ट हर लेता हूँ। तारकासुर से तुम सब लोगों को जो दुःख प्राप्त हुआ है, उसे मैं जानता हूँ और उसका हरण करूँगा, यह भी सत्य-सत्य बता रहा हूँ। यद्यपि मेरे मन में विवाह करने की कोई रूचि नहीं है तथापि मैं पुत्रोत्पादन के लिये गिरिजा के साथ विवाह करूँगा। तुम सब देवता अब निर्भय होकर अपने-अपने घर जाओ। मैं तुम्हारा कार्य सिद्ध करूँगा। इस विषय में अब कोई विचार नहीं करना चाहिये।'

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! ऐसा कहकर भगवान् शंकर मौन हो समाधि में स्थित हो गये और विष्णु आदि सभी देवता अपने-अपने धाम को चले गये।

(अध्याय २४)