भगवान् शिव की आज्ञा से सप्तर्षियों का पार्वती के आश्रम पर जा उनके शिवविषयक अनुराग की परीक्षा करना और भगवान् को सब वृतान्त बताकर स्वर्ग को जाना

ब्रह्माजी कहते हैं – देवताओं के अपने आश्रम में चले जाने पर पार्वती के तप की परीक्षा के लिये भगवान् शंकर समाधिस्थ हो गये। वे स्वयं अपने-आप में, अपने ही परात्पर, स्वस्थ, माया रहित तथा उपद्रवशून्य स्वरूप का चिन्तन करने लगे। उस ध्येय वस्तु के रूप में साक्षात् भगवान् महेश्वर ही विराजमान हैं। उनकी गति का किसी को ज्ञान नहीं होता। वे भगवान् वृषभध्वज ही सबके स्रष्टा – परमेश्वर हैं।

तात! उन दिनों पार्वतीदेवि बड़ी भारी तपस्या कर रही थीं। उस तपस्या से रुद्रदेव भी बड़े विस्मय में पड़ गये। भक्ताधीन होने के कारण ही वे समाधि से विचलित हो गये और किसी कारण से नहीं। तदनन्तर सृष्टिकर्ता हर ने वसिष्ठ आदि सप्तर्षियों का स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही वे सातों ऋषि शीघ्र ही वहाँ आ पहुँचे। उनके मुख पर प्रसन्नता छा रही थी तथा वे सब-के-सब अपने सौभाग्य की अधिक सराहना करते थे। उन्हें आया देख भगवान् शिव के नेत्र प्रसन्नता से प्रफुल्ल कमल के समान खिल उठे और वे हँसते हुए बोले – 'तात सप्तर्षियों! तुम सब लोग मेरे हितकारी तथा सम्पूर्ण वस्तुओं के ज्ञान में निपुण हो। अतः शीघ्र मेरी बात सुनो। गिरिराजकुमारी देवेश्वरी पार्वती इस समय सुस्थिरचित हो गौरी-शिखर नामक पर्वत पर तपस्या कर रही हैं। मुझे पति रूप में प्राप्त करना ही उनकी तपस्या का उद्देश्य है। द्विजो! इस समय केवल सखियाँ उनकी सेवा में हैं। मेरे सिवा दूसरी समस्त कामनाओं का परित्याग करके वे एक उत्तम निश्चय पर पहुँच चुकी हैं। मुनिवरो! तुम सब लोग मेरी आज्ञा से वहाँ जाओ और प्रेमपूर्ण हृदय से उनकी दृढ़ता की परीक्षा करो। वहाँ तुम्हें सर्वथा छ्लयुक्त बातें कहनी चाहिये। उत्तम व्रतधारी महर्षियो! मेरी आज्ञा से ऐसा करना है। इसलिये तुम्हें संशय नहीं करना चाहिये।'

भगवान् शंकर की यह आज्ञा पाकर वे सातों ऋषि तुरंत ही उस स्थान पर जा पहुँचे, जहाँ दीप्तीमती जगन्माता पार्वती विराजमान थीं। सप्तर्षियों ने वहाँ शिवा को तपस्या की मूर्तिमती दूसरी सिद्धि के समान देखा। उनका तेज महान् था। वे अपने उत्तम तेज से प्रकाशित हो रही थीं। उन उत्तम व्रतधारी सप्तर्षियों ने उन्हें मन-ही-मन प्रणाम किया और उनके द्वारा विशेषतः पूजित हो वे मस्तक झुकाये इस प्रकार बोले –

ऋषियों ने कहा – देवि! गिरिराज नन्दिनी! हमारी यह बात सुनो। हम जानना चाहते हैं कि तुम किस लिये तपस्या करती हो? तथा इसके द्वारा किस देवता को और किस फल को पाना चाहती हो?

उन द्विजों के इस प्रकार पूछने पर गिरिराजकुमारी देवी शिवा ने उनके सामने अत्यन्त गोपनीय होने पर भी सच्ची बात बतायी।

पार्वती बोलीं – मुनीश्वरो! आप लोग प्रसन्नतापूर्ण हृदय से मेरी बात सुनें। मैंने अपनी बुद्धि से जिसका चिन्तन किया है, अपना वह विचार मैं आपके सामने रखती हूँ। आप लोग मेरी असम्भव बातें सुनकर मेरा उपहास करेंगे, इसलिये उन्हें कहने में संकोच ही होता है, तथापि कहती हूँ। क्या करूँ? मेरा यह मन अत्यन्त दृढ़तापूर्वक एक उत्कृष्ट कर्म के अनुष्ठान में लगा है और ऐसा करने के लिये विवश हो गया। यह पानी के ऊपर बहुत बड़ी और ऊँची दीवार खड़ी करना चाहता है। देवर्षि का उपदेश पाकर मैं 'भगवान् रुद्र मेरे पति हों' इस मनोरथ को मन में लिये अत्यन्त कठोर तप कर रही हूँ। मेरा मन रूपी पक्षी बिना पाँख के ही हठपूर्वक आकाश में उड़ रहा है। मेरे स्वामी करुणानिधान भगवान् शंकर ही उसके इस आशा की पूर्ति कर सकते हैं।

पार्वती का यह वचन सुनकर वे मुनि हँस पड़े और गिरिजा का सम्मान करते हुए प्रसन्नतापूर्वक छलयुक्त मिथ्था वचन बोले।

ऋषियों ने कहा – गिरिराजनन्दिनि! देवर्षि नारद व्यर्थ ही अपने को पण्डित मानते हैं। उनके मन में क्रूरता भरी रहती है। आप समझदार होकर भी क्या उनके चरित्र को नहीं जानतीं। नारद छल-कपट की बातें करते हैं और दूसरों के चित्त को मोह में डालकर मथ डालते हैं। उनकी बातें सुनने से सर्वथा हानि ही होती है। ब्रह्मपुत्र दक्ष के पुत्रों को नारद ने जो छलपूर्ण उपदेश दिया, उसका फल यह हुआ कि वे सब-के-सब अपने पिता को घर लौटकर न आ सके। यही हाल उन्होंने दक्ष के दूसरे पुत्रों का भी किया। वे भी उनके चक्कर में आकर भिखारी बन गये। विद्याधर चित्रकेतु को इन्होंने ऐसा उपदेश दिया कि उसका घर ही उजड़ गया। प्रह्लाद को अपना चेला बनाकर इन्होंने हिरण्यकशिपु से बड़े-बड़े दुःख दिलवाये। ये सदा दूसरों की बुद्धि में भेद पैदा किया करते हैं। नारदमुनि कानों को पसंद आनेवाली अपनी विद्या जिस-जिस को सुना देते हैं, वही अपना घर छोड़कर तत्काल भीख माँगने लगता है। उनका मन मलिन है। केवल शरीर ही सदा उज्ज्वल दिखायी देता है। हम उन्हें विशेष रूप से जानते हैं; क्योंकि उनके साथ रहते हैं। उनका उपदेश पाकर बड़े-बड़े विद्वानों द्वारा सम्मानित होने वाली तुम भी व्यर्थ ही भुलावे में आ गयी और मुर्ख बनकर दुष्कर तपस्या करने लगी।

बाले! तुम जिनके लिये यह भारी तपस्या करती हो, वे रुद्र सदा उदासीन, निर्विकार तथा काम के शत्रु हैं – इसमें संशय नहीं है। वे अमांगलिक वस्तुओं से युक्त शरीर धारण करते हैं, लज्जा को तिलांजलि दे चुके हैं, उनका न कहीं घर है न द्वार। वे किस कुल में उत्पन्न हुए हैं, इसका भी किसी को पत्ता नहीं है। कुत्सित वेष धारण किये भूतों तथा प्रेत आदि के साथ रहते हैं और नंग-धड़ंग हो शूल धारण किये घूमते हैं। धूर्त नारद ने अपनी माया से तुम्हारे सारे विज्ञान को नष्ट कर दिया, युक्ति से तुम्हें मोह लिया और तुमसे तप करवाया। देवेश्वरि! गिरिराजनन्दीनि! तुम्हीं विचार करो कि ऐसे वर को पाकर तुम्हें क्या सुख मिलेगा। पहले रुद्र ने बुद्धि से खूब सोच-विचार कर साध्वी सती से विवाह किया। परंतु वे ऐसे मूढ़ हैं कि कुछ दिन भी उनके साथ निबाह न सके। उस बेचारी को वैसे ही दोष देकर उन्होंने त्याग दिया और स्वयं स्वतन्त्र हो अपने निष्कल और शोकरहित स्वरूप का ध्यान करते हुए उसी में सुखपूर्वक रम गये। देवि! जो सदा अकेले रहने वाले, शान्त, संगरहित और अद्वितीय हैं, उनके साथ किसी स्त्री का निर्वाह कैसे होगा? आज भी कुछ नहीं बिगड़ा है। तुम हमारी आज्ञा मानकर घर लौट चलो और इस दुर्बुद्धि को त्याग दो। महाभागे! इससे तुम्हारा भला होगा। तुम्हारे योग्य वर हैं भगवान् विष्णु, जो समस्त सद्गुणों से युक्त हैं। वे वैकुण्ठ में रहते हैं, लक्ष्मी के स्वामी हैं और नाना प्रकार की क्रीडाएँ करने में कुशल हैं। उनके साथ तुम्हारा विवाह करा देंगे और वह विवाह तुम्हारे लिये समस्त सुखों को देने वाला होगा। पार्वती! तुम्हारा जो रुद्र के साथ विवाह करने का हठ है, ऐसे हठ को छोड़ दो और सुखी हो जाओ।

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! उनकी ऐसी बात सुनकर जगदम्बिका पार्वती हँस पड़ीं और पुनः उन ज्ञानविशारद मुनियों से बोलीं।

पार्वती ने कहा – मुनीश्वरो! आपने अपनी समझ से ठीक ही कहा है। परंतु द्विजो! मेरा हठ भी छूटनेवाला नहीं है। मेरा शरीर पर्वत से उत्पन्न होने के कारण मुझमें स्वाभाविक कठोरता विद्यमान है। अपनी बुद्धि से ऐसा विचार कर आप लोग मुझे तपस्या से रोकने का कष्ट न करें। देवर्षि का उपदेश-वाक्य मेरे लिये परम हितकारक है। इसलिये मैं उसे कभी नहीं छोड़ूँगी। वेदवेत्ता भी यह मानते हैं कि गुरुजनों का वचन हितकारक होता है। 'गुरुओं का वचन सत्य होता है', ऐसा जिनका दृढ़ विचार है, उन्हें इहलोक और परलोक में परम सुख की प्राप्ति होती है और दुःख कभी नहीं होता। 'गुरुओं का वचन सत्य होता है' यह विचार जिनके हृदय में नहीं है, उन्हें इहलोक और परलोक में भी दुःख ही प्राप्त होता है, सुख कभी नहीं मिलता। अतः द्विजो! गुरुओं के वचन का कभी किसी तरह भी त्याग नहीं करना चाहिये। मेरा घर बसे या उजड़ जाय, मुझे तो यह हठ ही सदा सुख देने वाला है। मुनिवरो! आपने जो बातें कहीं हैं, मैं उनका आपके कहे हुए तात्पर्य से भिन्न अर्थ समझती हूँ और उनका वहाँ संक्षेप से विवेचन प्रस्तुत करती हूँ। आपने यह ठीक कहा कि भगवान् विष्णु सद्गुणों के धाम तथा लीलाविहारी हैं। साथ ही आपने सदाशिव को निर्गुण कहा है। इसमें जो कारण है, वह बताया जाता है। भगवान् शिव साक्षात् परब्रह्म हैं, अतएव निर्विकार हैं। वे केवल भक्तों के लिये शरीर धारण करते हैं, फिर भी लौकिकी प्रभुता को दिखाना नहीं चाहते। अतः परमहंसो की जो प्रिय गति है, उसीको वे धारण करते हैं; क्योंकि वे भगवान् शम्भु परमानंदमय हैं, इसलिये अवधूत रूप से रहते हैं। मायालिप्त जीवों को ही भूषण आदि की रूचि होती है, ब्रह्म को नहीं। वे प्रभु गुणातीत, अजन्मा, मायारहित, अलक्ष्यगति और विराट् हैं। द्विजो! भगवान् शम्भु किसी विशेष धर्म या जाति आदि के कारण किसी पर अनुग्रह नहीं करते। मैं गुरु की कृपा से ही शिव को यथार्थरूप से जानती हूँ। ब्रह्मर्षियों! यदि शिव मेरे साथ विवाह नहीं करेंगे तो मैं सदा कुमारी ही रह जाऊँगी, परंतु दूसरे के साथ विवाह नहीं करूँगी। यह मैं सत्य-सत्य कहती हूँ। यदि सूर्य पश्चिम दिशा में उगने लगें, मेरु पर्वत अपने स्थान से विचलित हो जाय, अग्नि शीतलता को अपना ले तथा कमल पर्वतशिखर की शिला के ऊपर खिलने लगे, तो भी मेरा हठ छुट नहीं सकता। यह मैं सच्ची बात कहती हूँ।

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! ऐसा कह उन मुनियों को प्रणाम करके गिरिराजकुमारी पार्वती निर्विकार चित्त से शिव का स्मरण करती हुई चुप हो गयीं। इस प्रकार गिरिजा के उस उत्तम निश्चय को जानकर वे सप्तर्षि भी उनकी जय-जयकार करने लगे और उन्होंने पार्वती को उत्तम आशीर्वाद दिया। मुने! गिरिजादेवी की परीक्षा करने वाले वे सातों ऋषि उनको प्रणाम करके प्रसन्नचित्त हो शीघ्र ही भगवान् शिव के स्थान को चले गये। वहाँ पहुँचकर शिव को मस्तक नवा, उनसे सारा वृतान्त निवेदन करके, उनकी आज्ञा ले वे पुनः सादर स्वर्गलोक को चले गये।

(अध्याय २५)