भगवान् शंकर का जटिल तपस्वी ब्राह्मण के रूप में पार्वती के आश्रम पर जाना, उनसे सत्कृत हो उनकी तपस्या का कारण पूछना तथा पार्वतीजी का अपनी सखी विजया से सब कुछ कहलाना
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! उन सप्तर्षियों के अपने लोक में चले जाने पर सुन्दर लीला करनेवाले साक्षात् भगवान् शंकर ने देवी के तप की परीक्षा लेने का विचार किया। वे मन-ही-मन पार्वती से बहुत संतुष्ट थे। परीक्षा के ही बहाने पार्वतीजी को देखने के लिये जटाधारी तपस्वी का रूप धारण करके भगवान् शम्भु उनके वन में गये। अपने तेज से प्रकाशमान अत्यन्त बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण करके प्रसन्नचित्त हो वे दण्ड और छत्र लिये वहाँ से प्रस्थित हुए। आश्रम में पहुँचकर उन्होंने देखा देवी शिवा सखियों से घिरी हुई वेदी पर बैठी हैं और चन्द्रमा की विशुद्ध कला-सी प्रतीत होती हैं। ब्रह्मचारी का स्वरूप धारण किये भक्तवत्सल शम्भु पार्वती देवी को देखकर प्रीतिपूर्वक उनके पास गये। उन अद्भुत तेजस्वी ब्राह्मण देवता को आया देख उस समय देवी शिवा ने समस्त पूजन-सामग्रियों द्वारा उनकी पूजा की। जब उनका भलिभाँति सत्कार हो गया, सामग्रियों द्वारा उनकी पूजा सम्पन्न कर ली गयी, तब पार्वती ने बड़ी प्रसन्नता और प्रेम के साथ उन ब्राह्मणदेव से आदरपूर्वक कुशल-समाचार पूछा।
पार्वती बोलीं – ब्रह्मचारी का स्वरूप धारण करके आये हुए आप कौन हैं और कहाँ से पधारे हैं? वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ विप्रवर! आप अपने तेज से इस वन को प्रकाशित कर रहे हैं। मैंने जो कुछ पूछा है, उसे बतलाइये।
ब्राह्मण ने कहा – मैं इच्छानुसार विचरनेवाला वृद्ध ब्राह्मण हूँ। पवित्रबुद्धि, तपस्वी, दूसरों को सुख देने वाला और परोपकारी हूँ – इसमें संशय नहीं है। तुम कौन हो? किसकी पुत्री हो और इन निर्जन वन में किस लिये ऐसी तपस्या कर रही हो, जो पंजे के बल पर खड़े हो तप करने वाले मुनियों के लिये भी दुर्लभ है। तुम न बालिका हो, न वृद्धा ही हो, सुन्दरी तरुणी जान पड़ती हो। फिर किस लिये पति के बिना इस वन में आकर कठोर तपस्या करती हो? भद्रे! क्या तुम किसी तपस्वी की सहचारिणी तपस्विनी हो? देवि! क्या वह तपस्वी तुम्हारा पालन-पोषण नहीं करता, जो तुम्हें छोड़कर अन्यत्र चला गया है? बोलो, तुम किसके कुल में उत्पन्न हुई हो? तुम्हारे पिता कौन हैं और तुम्हारा नाम क्या है? तुम महासौभाग्यरूपा जान पड़ती हो। तुम्हारा तपस्या में अनुराग व्यर्थ है। क्या तुम वेद माता गायत्री हो, लक्ष्मी हो अथवा क्या सुन्दर रूपवाली सरस्वती हो? इन तीनों में तुम कौन हो – यह मैं अनुमान से निश्चय नहीं कर पाता।
पार्वती बोलीं – विप्रवर! न तो मैं वेद माता गायत्री हूँ, न लक्ष्मी हूँ और न सरस्वती ही हूँ। इस समय मैं हिमाचल की पुत्री हूँ और मेरा नाम पार्वती है। पूर्वकाल में इससे पहले के जन्म में मैं प्रजापति दक्ष की पुत्री थी। उस समय मेरा नाम सती था। एक दिन पिता ने मेरे पति की निन्दा की थी, जिससे कुपित हो मैंने योग के द्वारा शरीर को त्याग दिया था। इस जन्म में भी भगवान् शिव मुझे मिल गये थे, परंतु भाग्यवश काम को भस्म करके वे मुझे भी छोड़कर चले गये। ब्रह्मन्! शंकरजी के चले जाने पर मैं विरहताप से उद्विग्न हो उठी और तपस्या के लिये दृढ़ निश्चय करके पिता के घर से यहाँ गंगाजी के तट पर चली आयी। यहाँ दीर्घ-काल तक कठोर तपस्या करके भी मैं अपने प्राणवल्लभ को न पा सकी। इसलिये अग्नि में प्रवेश कर जाना चाहती थी। इतने में ही आपको आया देख मैं क्षण भर के लिये ठहर गयी। अब आप जाइये। मैं अग्नि में प्रवेश करूँगी; क्योंकि भगवान् शिव ने मुझे स्वीकार नहीं किया। किंतु जहाँ-जहाँ मैं जन्म लूँगी, वहाँ-वहाँ शिव का ही पति रूप में वरण करूँगी।
ब्रहमाजी कहते हैं – नारद! ऐसा कहकर पार्वती उन ब्राह्मण-देवता के सामने ही अग्नि में समा गयी, यद्यपि ब्राह्मणदेव सामने से उन्हें बारंबार ऐसा करने से रोक रहे थे। अग्नि में प्रवेश करती हुई पर्वतराजकुमारी पार्वती के तपस्या के प्रभाव से वह आग उसी क्षण चन्दन-पंख के समान शीतल हो गयी। क्षण भर उस आग के भीतर रहकर जब पार्वती आकाश में ऊपर की ओर उठने लगीं, तब ब्राह्मण-रूपधारी शिव ने सहसा हँसते हुए उनसे पुनः पूछा – 'अहो भद्रे! तुम्हारा तप क्या है, यह कुछ भी मेरी समझ में नहीं आया। इधर अग्नि से तुम्हारा शरीर नहीं जला, यह तो तपस्या की सफलता का सूचक है; परंतु अब तक तुम्हें अपना मनोरथ प्राप्त नहीं हुआ, इससे उसकी विफलता प्रकट होती है। अतः देवि! सबको आनन्द देने वाले मुझ श्रेष्ठ ब्राह्मण के सामने तुम अपने अभीष्ट मनोरथ को सच-सच बताओ।'
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! ब्राह्मण के इस प्रकार पुछ्ने पर उत्तम व्रत का पालन करने वाली अम्बिका ने अपनी सखी को उत्तर देने के लिये प्रेरित किया। पार्वती से प्रेरित हो उनकी विजया नामक प्राणप्यारी सखी ने, जो उत्तम व्रत को जाननेवाली थी, जटाधारी तपस्वी से कहा।
सखी बोली – साधो! तुमसे पार्वती के उत्तम चरित्र का और इनकी तपस्या के समस्त कारणों का वर्णन करती हूँ। मेरी सखी गिरिराज हिमाचल की पुत्री है। ये पार्वती और काली नाम से विख्यात है तथा माता मेनका की कन्या हैं। अब तक किसी ने इनके साथ विवाह नहीं किया है। ये भगवान् शिव के सिवा दूसरे किसी को चाहती भी नहीं। उन्हीं के लिये तीन हजार वर्षों से तपस्या कर रही हैं। भगवान् शिव की प्राप्ति के लिये ही मेरी इन सखी ने ऐसा तप प्रारम्भ किया है। विप्रवर! इसमें जो कारण है, उसे बताती हूँ; सुनिये। ये पर्वतराज-कुमारी ब्रह्मा, विष्णु तथा इन्द्र आदि देवताओं को भी छोड़कर केवल पिनाकपाणि भगवान् शंकर को ही पति रूप में प्राप्त करना चाहती हैं और नारदजी के आदेश से यह कठोर तपस्या कर रही हैं। द्विजश्रेष्ठ! आपने जो कुछ पूछा था, उसके अनुसार मैंने प्रसन्नतापूर्वक अपनी सखी का मनोरथ बता दिया।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! विजया का यह यथार्थ वचन सुनकर जटाधारी तपस्वी रुद्र हँसते हुए बोले – 'सखी ने यह जो कुछ कहा है, उसमें मुझे परिहास का अनुमान होता है। यदि यह सब ठीक हो तो पार्वती देवी अपने मूँह से कहें।'
जटिल ब्राह्मण के इस प्रकार कहने पर पार्वती देवी अपने मुँह से ही यों कहने लगीं।
(अध्याय २६)