पार्वती की बात सुनकर जटाधारी ब्राह्मण का शिव की निन्दा करते हुए पार्वती को उनकी ओर से मन को हटा लेने का आदेश देना

पार्वती बोलीं – जटाधारी विप्रवर! मेरा सारा वृतान्त सुनिये। मेरी सखी ने जो कुछ कहा है, वह ज्यों-का-त्यों सत्य है; उसमें असत्य कुछ भी नहीं है। मैं मन, वाणी और क्रिया द्वारा सत्य ही कहती हूँ, असत्य नहीं। मैंने साक्षात् पतिभाव से भगवान् शंकर का ही वरण किया है। यद्यपि जानती हूँ, वह दुर्लभ वस्तु भला मुझे कैसे प्राप्त हो सकती है; तथापि मन की उत्कण्ठा से विवश हो मैं तपस्या कर रही हूँ।

ब्राह्मण से ऐसी बात कहकर पार्वती देवी उस समय चुप हो रहीं। तब उनकी वह बात सुनकर ब्राह्मण ने कहा।

ब्राह्मण बोले – इस समय तक मेरे मन में यह जानने की प्रबल इच्छा थी कि ये देवी किस दुर्लभ वस्तु को चाहती हैं? जिसके लिये ऐसा महान् तप कर रही हैं। किंतु देवि! तुम्हारे मुखारविन्द से सब कुछ सुनकर उस अभीष्ट वस्तु को जान लेने के बाद अब मैं यहाँ से जा रहा हूँ। तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा करो। यदि तुम मुझसे न कहती तो मित्रता निष्फल होती। अब जैसा तुम्हारा कार्य है, वैसा ही उसका परिणाम होगा। जब तुम्हें इसी में सुख है, तब मुझे कुछ नहीं कहना है।

वहाँ ऐसी बात कहकर ब्राह्मण ने ज्यों ही जाने का विचार किया, त्यों ही पार्वती देवी ने प्रणाम करके उनसे इस प्रकार कहा।

पार्वती बोलीं – विप्रवर! आप क्यों जायेंगे? ठहरिये और मेरे हित की बात बताइये।

पार्वती के ऐसा कहने पर दण्डधारी ब्राह्मण-देवता रुक गये और इस प्रकार बोले – 'देवि! यदि मेरी बात सुनने का मन है और मुझे भक्तिभाव से ठहरा रही हो तो मैं वह सब तत्त्व बता रहा हूँ, जिससे तुम्हें हिताहित का ज्ञान हो जायगा। महादेवजी के प्रति मेरे मन में गौरव-बुद्धि है, अतः मैं उनको सब प्रकार से जानता हूँ; तो भी यथार्थ बात कहता हूँ, तुम सावधान होकर सुनो। वृषभ के चिह्न से अंकित ध्वजा धारण करने वाले महादेवजी सारे शरीर में भस्म रमाये रहते हैं, सिर पर जटा धारण करते हैं, धोती की जगह बाघ का चाम पहनते और चादर की जगह हाथी की खाल ओढ़ते हैं। हाथ में भीख माँगने के लिये एक खोपड़ी लिये रहते हैं। झुंड-के-झुंड साँप उनके सारे अंगों में लिपटे देखे जाते हैं। वे विष खाकर ही पुष्ट होते हैं, अभक्ष्यभक्षी हैं, उनके नेत्र बड़े भद्दे हैं और देखने में डरावने लगते हैं। उनका जन्म कब, कहाँ और किससे हुआ, यह आज तक प्रकट नहीं हुआ। घर-गृहस्थी के भोग से वे सदा दूर ही रहते हैं, नंग-धड़ंग घूमते हैं और भूत-प्रेतों को सदा साथ रखते हैं। उनके एक-दो नहीं, दस भुजाएँ हैं। देवि! मैं समझ नहीं पाता कि किस कारण से तुम उन्हें अपना पति बनाना चाहती हो। तुम्हारा ज्ञान कहाँ चला गया, इस बात को आज सोच-विचार कर मुझे बताओ। दक्ष ने अपने यज्ञ में अपनी ही पुत्री सती को केवल यही सोचकर नहीं बुलाया कि वह कपालधारी भिक्षुक की भार्या है। इतना ही नहीं, उन्होंने यज्ञ में भाग देने के लिये सब देवताओं को बुलाया, किंतु शम्भु को छोड़ दिया। सती उसी अपमान के कारण अत्यन्त क्रोध से व्याकुल हो उठी। उसने अपने प्यारे प्राणों को तो छोड़ा ही; शंकरजी को भी त्याग दिया।

'तुम तो स्त्रियों में रत्न हो, तुम्हारे पिता समस्त पर्वतों के राजा हैं, फिर तुम क्यों इस उग्र तपस्या के द्वारा वैसे पति को पाने की अभिलाषा करती हो? सोने की मुद्रा (अशर्फी) देकर बदले में उतना ही बड़ा काँच लेना चाहती हो? उज्ज्वल चन्दन छोड़कर अपने अंगों में कीचड़ लपेटना चाहती हो? सूर्य के तेज का परित्याग करके जुगनू की चमक पाना चाहती हो? महीन वस्त्र त्याग कर अपने शरिर को चमड़े से ढकने की इच्छा करती हो? घर में रहना छोड़कर वन में धूनी रमाना चाहती हो? तथा देवेश्वरि! यदि तुम इन्द्र आदि लोकपालों को त्याग कर शिव के प्रति अनुरक्त हो तो अवश्य ही रत्नों के उत्तम भंडार को त्याग कर लोहा पाने की इच्छा करती हो। लोक में इस बात को अच्छा नहीं कहा गया है। शिव के साथ तुम्हारा सम्बन्ध मुझे इस समय परस्पर विरुद्ध दिखायी देता है। कहाँ तुम, जिसके नेत्र प्रफुल्ल कमलदल के समान शोभा पाते हैं और कहाँ वे रुद्र, जो तीन भद्दी आँखें धारण करते हैं। तुम तो चन्द्रमुखी [* अंकों की संज्ञाओं में चन्द्रमा को एक संख्या का बोधक माना गया है। एक मुखवाले पुरुष और स्त्रियाँ ही सुन्दर माने जाते हैं, एक से अधिक मुखवाले नहीं। इस प्रकार एक मुख और पंचमुख की भी तुलना की गयी है। 'चन्द्रमुखी' पद का दूसरा भाव है – तुम्हारा मुख चन्द्रमा के समान मनोहर है और वे पंचानन सिंह केसमान भयंकर हैं।] हो और शिव पंचमुख कहे गये हैं। तुम्हारे सिर पर दिव्य वेणी सर्पिणी-सी शोभा पा रही है; परंतु शिव के मस्तक पर जो जटाजूट बताया जाता है, वह प्रसिद्ध ही है। तुम्हारे अंग में चन्दन का अंगराग होगा और शिव के शरीर में चिता का भस्म। कहाँ तुम्हारी सुन्दर मृदुल साड़ी और कहाँ शंकरजी के उपयोग में आनेवाली हाथी की खाल? कहाँ तुम्हारे अंगों में दिव्य आभूषण और कहाँ शंकर के सर्वांग में लिपटे हुए सर्प? कहाँ तुम्हारी सेवा के लिये उद्यत रहनेवाले सम्पूर्ण देवता और कहाँ भूतों की दी हुई बलि को पसंद करने वाले शिव? कहाँ तो मृदंग की मधुर ध्वनि और कहाँ डमरू की डिमडिम? कहाँ भेरियों के समूह की गड़गड़ाहट और कहाँ अशुभ श्रृंगीनाद? कहाँ ढक्का का शब्द और कहाँ अशुभ गलनाद? तुम्हारा यह उत्त्तम रूप शिव के योग्य कदापि नहीं है। यदि उनके पास धन होता तो वे दिगम्बर (नंगे) क्यों रहते? सवारी के नाम पर उनके पास एक बूढ़ा बैल है और दूसरी कोई भी सामग्री उनके पास नहीं है। कन्याके लिये ढूँढ़े जानेवाले वरों में जो नारियों को सुख देने वाले गुण बताये गये हैं, उनमें से एक भी गुण भद्दी आँखवाले रुद्र में नहीं है। तुम्हारे परम प्रिय काम को भी उन हर देव्ता ने दग्ध कर दिया और तुम्हारे प्रति उनका अनादर तो तभी देख लिया गया, जब वे तुम्हें छोड़कर अन्यत्र चले गये। उनकी कोई जाति नहीं देखी जाती। उनमें विद्या तथा ज्ञान का भी पता नहीं चलता। पिशाच ही उनके सहायक हैं और विष तो उनके कण्ठ में ही दिखायी देता है। वे सदा अकेले रहने वाले और विशेष रूप से विरक्त हैं। इसलिये तुम्हें हर के साथ अपने मन को नहीं जोड़ना चाहिये। कहाँ तुम्हारे कण्ठ में सुन्दर हार और कहाँ उनके गले में नरमुण्डों की माला? देवि! तुम्हारे और हर के रूप आदि सब एक-दूसरे के विरुद्ध हैं। अतः मुझे तो यह सम्बन्ध नहीं रुचता। फिर तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा करो। संसार में जो कुछ भी असद्वस्तु है, वह सब तुम स्वयं चाहने लगी हो। अतः मैं कहता हूँ कि तुम उस असत् की ओर से अपने मन को हटा लो। अन्यथा जो चाहो, वह करो; मुझे कुछ नहीं कहना है।'

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! यह बात सुनकर पार्वती शिव की निन्दा करनेवाले ब्राह्मण पर मन-ही-मन कुपित हो उठीं और उससे इस प्रकार बोलीं।

(अध्याय २७)