पार्वतीजी का परमेश्वर शिव की महत्ता का प्रतिपादन करना, रोषपूर्वक जटिल ब्राह्मण को फटकारना, सखी द्वारा उन्हें फिर बोलने से रोकना तथा भगवान् शिव का उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दे अपने साथ चलने के लिये कहना

पार्वती बोलीं – बाबाजी! अब तक तो मैंने यह समझा था कि कोई दूसरे ज्ञानी महात्मा आ गये हैं। परंतु अब सब ज्ञात हो गया – आपकी कलई खुल गयी। आपसे क्या कहूँ – विशेषतः उस दशा में, जब आप अवध्य ब्राह्मण हैं? ब्राह्मण-देवता! आपने जो कुछ कहा है, वह सब मुझे ज्ञात है। परंतु वह सब झूठा ही है, सत्य कुछ नहीं है। आपने कहा था कि मैं शिव को जानता हूँ। यदि आपकी यह बात ठीक होती तो आप ऐसी युक्ति एवं बुद्धि के विरुद्ध बात नहीं बोलते। यह ठीक है कि कभी-कभी महेश्वर अपनी लीलाशक्ति से प्रेरित हो तथाकथित अद्भुत वेष धारण कर लिया करते हैं। परंतु वास्तव में वे साक्षात् परब्रह्म परमात्मा हैं। उन्होंने स्वेच्छा से ही शरीर धारण किया है। आप ब्रह्मचारी का स्वरूप धारण कर मुझे ठगने के लिये उद्यत हो यहाँ आये हैं और अनुचित एवं असंगत युक्तियों का सहारा ले छल-कपट से युक्त बातें बोल रहे हैं। मैं भगवान् शंकर के स्वरूप को भलीभाँति जानती हूँ। इसलिये यथायोग्य विचार करके उनके तत्त्व का वर्णन करती हूँ। वास्तव में शिव निर्गुण ब्रह्म हैं, कारणवश सगुण हो गये हैं। जो निर्गुण हैं, समस्त गुण जिनके स्वरूपभूत हैं, उनकी जाति कैसे हो सकती है? वे भगवान् सदाशिव समस्त विद्याओं के आधार हैं। फिर उन पूर्ण परमात्मा को किसी विद्या से क्या काम? पूर्वकाल में कल्प के आरम्भ में भगवान् शम्भु ने श्रीविष्णु को उच्छ्वासरूप से सम्पूर्ण वेद प्रदान किये थे। अतः उनके समान उत्तम प्रभु दूसरा कौन है? जो सबके आदि कारण हैं, उनकी अवस्था अथवा आयु का माप-तौल कैसे हो सकता है? प्रकृति उन्हीं से उत्पन्न हुई है। फिर उनकी शक्ति का दूसरा क्या कारण हो सकता है? जो लोग सदा प्रेमपूर्वक शक्ति के स्वामी भगवान् शंकर का भजन करते हैं, उन्हें भगवान् शम्भु प्रभुशक्ति, उत्साहशक्ति और मन्त्रशक्ति – ये तीनों अक्षय शक्तियाँ प्रदान करते हैं। भगवान् शिव के भजन से ही जीव मृत्यु को जीत लेता और निर्भय हो जाता है। इसलिये तीनो लोकों में उनका 'मृत्युंजय' नाम प्रसिद्ध है। उन्हीं के अनुग्रह से विष्णु विष्णुत्व को, ब्रह्मा ब्रह्मत्व को और देवता देवत्व को प्राप्त हुए हैं। शिवजी का पक्ष लेकर बहुत बोलने से क्या लाभ? वे भगवान् स्वयं ही महाप्रभु हैं। कल्याणरूपी शिव की सेवा से यहाँ कौन-सा मनोरथ सिद्ध नहीं हो सकता? उन महादेवजी के पास किस बात की कमी है, जो वे भगवान् सदाशिव स्वयं मुझे पाने की इच्छा करें? यदि शंकर की सेवा न करे तो मनुष्य सात जन्मों तक दरिद्र होता है और उन्हीं की सेवा से सेवक को लोक में कभी नष्ट न होने वाली लक्ष्मी प्राप्त होती है। जिनके सामने आठों सिद्धियाँ नित्य आकर सिर नीचा किये इस इच्छा से नृत्य करती हैं कि वे भगवान् हम पर संतुष्ट हो जायँ, उनके लिये कोई भी हितकर वस्तु दुर्लभ कैसे हो सकती है? यद्यपि यहाँ मांगलिक कही जाने वाली वस्तुएँ शंकर का सेवन नहीं करतीं, तथापि उनके स्मरण मात्र से ही सबका मंगल होता है। जिनकी पूजा के प्रभाव से उपासक की सम्पूर्ण कामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं, सदा निर्विकार रहने वाले उन परमात्मा शिव में विकार कहाँ से आ सकता है? जिस पुरुष के मुख में निरन्तर 'शिव' यह मंगलमय नाम निवास करता है, उसके दर्शन मात्र से ही अन्य सब सदा पवित्र होते हैं। जैसा कि आपने कहा है, वे चिता का भस्म लगाते हैं। परंतु यदि उनका लगाया हुआ भस्म अपवित्र होता तो उनके शरीर से झड़कर गिरे हुए उस भस्म को देवता लोग सदा अपने सिर पर कैसे धारण करते? (अतः शिव के अंगों के स्पर्श से अपवित्र वास्तु भी पवित्र हो जाती है।) जो महादेव सगुण होकर तीनों लोकों के कर्ता-भर्ता और हर्ता होते हैं तथा निर्गुण रूप से शिव कहलाते हैं, वे बुद्धि के द्वारा पूर्ण रूप से कैसे जाने जा सकते हैं? परब्रह्म परमात्मा शिव का जो निर्गुण रूप है, उसे आप-जैसे बहिर्मुख लोग कैसे जान सकते हैं? जो दुराचारी और पापी हैं, वे देवताओं से बहिष्कृत हो जाते हैं। ऐसे लोग निर्गुण शिव के तत्त्व को नहीं जानते। जो पुरुष तत्त्व को न जानने के कारण यहाँ शिव की निन्दा करता है, उसके जन्मभर का सारा संचित पुण्य भस्म हो जाता है। आपने जो यहाँ अमित तेजस्वी महादेवजी की निन्दा की है और मैंने जो आपकी पूजा की है, उससे मुझे पाप की भागिनी होना पड़ा है। शिवद्रोही को देखकर वस्त्र सहित स्नान करना चाहिये, शिवद्रोही का दर्शन हो जाने पर प्रायश्चित करना चाहिये।

इतना कहकर पार्वतीजी उस ब्राह्मण पर अधिक रुष्ट होकर बोलीं – अरे रे दुष्ट! तूने कहा था कि मैं शंकर को जानता हूँ, परंतु निश्चय ही तूने उन सनातन शिव को नहीं जाना है। भगवान् रुद्र को तू जैसा कहता है, ये वैसे ही क्यों न हों, उनके-जैसे भी बहुसंख्यक रूप क्यों न हों, सत्पुरुषों के प्रियतम नित्य-निर्विकार वे भगवान् शिव ही मेरे अभीष्टतम देव हैं। ब्रह्मा और विष्णु भी कभी उन महात्मा हर के समान नहीं हो सकते। फिर दूसरे देवताओं की तो बात ही क्या है? क्योंकि वे सदैव काल के अधीन हैं। इस प्रकार अपनी शुद्धबुद्धि से तत्त्वतः विचार कर मैं शिव के लिये वन में आकर बड़ी भारी तपस्या कर रही हूँ। वे भक्तवत्सल सर्वेश्वर शिव ही हम सबके परमेश्वर हैं। दीनों पर अनुग्रह करने वाले उन महादेव को ही प्राप्त करने की मेरी इच्छा है।

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! ऐसा कहकर गिरिराजनन्दिनी गिरिजा चुप हो गयीं और निर्विकार चित्त से भगवान् शिव का ध्यान करने लगीं। देवी की बात सुनकर वह ब्रह्मचारी ब्राह्मण ज्यों ही कुछ फिर कहने के लिये उद्यत हुआ, त्यों ही शिव में आसक्तचित्त होने के कारण उनकी निन्दा सुनने से विमुख हुई पार्वती अपनी सखी विज्या से शीघ्र बोलीं।

पार्वती ने कहा – सखी! इस अधम ब्राह्मण को यत्नपूर्वक रोको, वह फिर कुछ कहना चाहता है। यह केवल शिव की निन्दा ही करेगा, जो शिव की निन्दा करता है, केवल उसी को पाप नहीं लगता, जो उस निन्दा को सुनता है, वह भी यहाँ पाप का भागी होता है। भगवान् शिव के उपासकों को चाहिये कि वे शिव की निन्दा करने वाला का सर्वथा वध करें। यदि वह ब्राह्मण हो तो उसे अवश्य ही त्याग दें और स्वयं उस निन्दा के स्थान से शीघ्र दूर चले जायँ। यह दुष्ट ब्राह्मण फिर शिव की निन्दा करेगा। ब्राह्मण होने के कारण यह वध्य तो है नहीं, अतः त्याग देने योग्य है। किसी तरह भी इसका मूँह नहीं देखना चाहिये। इस स्थान को छोड़कर हम लोग आज ही किसी दूसरे स्थान में शीघ्र चली चलें, जिससे फिर इस अज्ञानी के साथ बात करने का अवसर न मिले।

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! ऐसा कहकर उमा ने ज्यों ही अन्यत्र जाने के लिये पैर उठाया, त्यों ही भगवान् शिव ने अपने साक्षात् स्वरूप से प्रकट हो प्रिया पार्वती का हाथ पकड़ लिया। शिव जैसे स्वरूप का ध्यान करती थीं, वैसा ही सुन्दर रूप धारण करके शिव ने उन्हें दर्शन दिया। पार्वती ने लज्जावश अपना मूँह नीचे की ओर कर लिया।

तब भगवान् शिव उनसे बोले – प्रिये! मुझे छोड़कर कहाँ जाओंगी? अब मैं फिर कभी तुम्हारा त्याग नहीं करूँगा। मैं प्रसन्न हूँ। वर माँगों। मुझे तुम्हारे लिये कुछ भी अदेय नहीं है। देवि! आज से मैं तपस्या के मोल खरीदा हुआ तुम्हारा दास हूँ। तुम्हारे सौन्दर्य ने भी मुझे मोह लिया है। अब तुम्हारे बिना मुझे एक क्षण भी युग के समान जान पड़ता है। लज्जा छोड़ो। तुम तो मेरी सनातन पत्नी हो। गिरिराजनन्दिनी! महेश्वरि! मैंने जो कुछ कहा है, उस पर श्रेष्ठ बुद्धि से विचार करो। सुस्थिर चित्तवाली पार्वती! मैंने नाना प्रकार से तुम्हारी बारंबार परीक्षा ली है। लोकलीला का अनुसरण करने वाले मुझ स्वजन के अपराध को क्षमा कर दो। शिवे! तीनों लोकों में तुम्हारी-जैसी अनुरागिणी मुझे दूसरी कोई नहीं दिखायी देती। मैं सर्वथा तुम्हारे अधीन हूँ। तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो। प्रिये! मेरे पास आओ। तुम मेरी पत्नी हो और मैं तुम्हारा वर हूँ। तुम्हारे साथ मैं शीघ्र ही अपने निवास स्थान उत्तम पर्वत कैलास को चलूँगा।

ब्रह्माजी कहते हैं – देवाधिदेव महादेवजी के ऐसा कहने पर पार्वती देवी आनन्द-मग्न हो उठीं। उनका तपस्याजनित पहले का सारा कष्ट मिट गया। मुनिश्रेष्ठ! सती-साध्वी पार्वती की सारी थकावट दूर हो गयी; क्योंकि परिश्रम-फल प्राप्त हो जाने पर प्राणी का पहलेवाला सारा श्रम नष्ट हो जाता है।

(अध्याय २८)