शिव और पार्वती की बातचीत, शिव का पार्वती के अनुरोध को स्वीकार करना

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! परमात्मा हर की यह बात सुनकर और उनके आनन्ददायी रूप का दर्शन पाकर पार्वती को बड़ा हर्ष हुआ। उनका मुख प्रसन्नता से खिल उठा। वे बहुत सुख का अनुभव करने लगी। फिर उन महासाध्वी शिवा ने अपने पास ही खड़े हुए भगवान् शिव से कहा।

पार्वती बोलीं – देवेश्वर! आप मेरे स्वामी हैं। प्रभो! पूर्वकाल में आपने जिसके लिये हर्षपूर्वक दक्ष के यज्ञ का विनाश किया था, उसे क्यों भुला दिया था। वे ही आप हैं और वही मैं हूँ। देवदेवेश्वर! इस समय मैं तारकासुर से दुःख पानेवाले देवताओं के कार्य की सिद्धि के लिये रानी मेना के गर्भ से उत्पन्न हुई हूँ। देवेश! यदि आप प्रसन्न हैं और यदि मुझ पर कृपा करते हैं तो मेरे पति हो जाइये। ईशान! प्रभो! मेरी यह बात मान लीजिये, आपकी आज्ञा लेकर मैं पिता के घर जाती हूँ। अब आप अपने विवाह रूप परम उत्तम विशुद्ध यश को सर्वत्र विख्यात कीजिये। नाथ! प्रभो! आप तो लीला करने में कुशल हैं। अतः मेरे पिता हिमवान् के पास चलिये और याचक बनकर उनसे मेरी याचना कीजिये। लोक में मेरे पिता के यश को फैलाते हुए आपको ऐसा ही करना चाहिये। इस तरह आप मेरे सम्पूर्ण गृहस्थाश्रम को सफल बनाइये। जब आप प्रसन्नतापूर्वक ऋषियों से मेरे पिता को सब बातों की जानकारी करायेंगे, तब मेरे पिता अपने भाई-बन्धुओं के साथ आपकी आज्ञा का पालन करेंगे – इसमें संदेह नहीं है। जब मैं पहले प्रजापति दक्ष की कन्या थी और मेरे पिता ने आपके हाथ में मेरा हाथ दिया, उस समय आपने शास्त्रोक्त विधि से विवाह का कार्य पूरा नहीं किया। मेरे पिता दक्ष ने ग्रहों की पूजा नहीं की। अतः उस विवाह में ग्रह-पूजन-विषयक बड़ी भारी त्रुटी रह गयी। इसलिये प्रभो! महादेव! अबकी बार देवताओं के कार्य की सिद्धि के लिये आप शास्त्रोक्त विधि से विवाह कार्य का सम्पादन करें। विवाह की जैसी रीति है, उसका पालन आपको अवश्य करना चाहिये। मेरे पिता हिमवान् को यह अच्छी तरह ज्ञात हो जाना चाहिये कि मेरी पुत्री ने शुभकारक तपस्या की है।

पार्वती की ऐसी बात सुनकर भगवान् सदाशिव बड़े प्रसन्न हुए और उनसे हँसते हुए-से प्रेमपूर्वक बोले।

शिव ने कहा – देवि! महेश्वरि! मेरी यह उत्तम बात सुनो, यह उचित मंगलकारक और निर्दोष है। इसे सुनकर वैसा ही करो। वरानने! ब्रह्मा आदि जितने भी प्राणी हैं, वे सब अनित्य हैं। भामिनी! यह सब जो कुछ दिखायी देता है, इसे नश्वर समझो। मैं निर्गुण परमात्मा ही गुणों से युक्त हो एक से अनेक हो गया हूँ। जो अपने प्रकाश से प्रकाशित होता है, वही परमात्मा मैं दूसरे के प्रकाश से प्रकाशित होने वाला हो गया। देवि! मैं स्वतन्त्र हूँ, परंतु तुमने मुझे परतन्त्र बना दिया। समस्त कर्मों को करने वाली प्रकृति एवं महामाया तुम्हीं हो। यह सम्पूर्ण जगत् मायामय ही रचा गया है। मुझ सर्वात्मा परमात्मा ने अपनी उत्तम बुद्धि के द्वारा इसे धारण मात्र कर रखा है। सर्वत्र परमात्म भाव रखने वाले सर्वात्मा पुण्यवानों में इसे अपने भीतर सींचा है तथा यह तीनों गुणों से आवेष्टित है। देवि! वरवर्णिनि! कौन मुख्य ग्रह हैं? कौन-से ऋतू-समूह हैं? अथवा कौन दूसरे-दूसरे उपग्रह हैं? इस समय तुमने शिव के लिये क्या कहा है – किस कर्तव्य का विधान किया है? गुण और कार्य के भेद से हम दोनों ने इस जगत् में भक्तवत्सलता के कारण भक्तों को सुख देने के हेतु अवतार ग्रहण किया है। तुम्ही रजःसत्त्व-तमोमयी (त्रिगुणात्मिका) सूक्ष्म प्रकृति हो, सदा व्यापारकुशल सगुणा और निर्गुणा भी हो। सुमध्यमे! मैं यहाँ सम्पूर्ण भूतों का आत्मा, निर्विकार एवं निरीह हूँ। भक्त की इच्छा से मैंने शरीर धारण किया है। शैलजे! मैं तुम्हारे पिता हिमालय के पास नहीं जा सकता तथा भिक्षुक होकर किसी तरह तुम्हारी उनसे याचना भी नहीं कर सकता। गिरिराजनन्दिनी! महान् गुणों से अत्यन्त गौरवशाली महात्मा पुरुष भी अपने मूँह से 'देहि' (दो) यह बात निकालने पर तत्काल लघुता को प्राप्त हो जाता है। कल्याणि! ऐसा जानकर हमारे लिये क्या कहती हो? भद्रे! तुम्हारी आज्ञा से मुझे सब कुछ करना है। अतः जैसी तुम्हारी इच्छा हो, वैसा करो।

महादेवजी के ऐसा कहने पर भी सती-साध्वी कमललोचना महादेवी शिवा ने उन भगवान् शंकर को बारंबार भक्ति-भाव से प्रणाम करके कहा।

पार्वती बोलीं – नाथ! आप आत्मा हैं और मैं प्रकृति। इस विषय में विचार करने की कोई बात नहीं है। हम दोनों स्वतन्त्र और निर्गुण होते हुए भी भक्तों के अधीन होने के कारण सगुण हो जाते हैं। शम्भो! प्रभो! आपको प्रयत्नपूर्वक मेरी प्रार्थना के अनुसार कार्य करना चाहिये। शंकर! आप मेरे लिये याचना करें और हिमवान् को दाता बनने का सौभाग्य प्रदान करें। महेश्वर! मैं सदा आपकी भक्ता हूँ, अतः मुझ पर कृपा कीजिये। नाथ! सदा जन्म-जन्म में मैं ही आपकी पत्नी होती रही हूँ। आप परब्रह्म परमात्मा हैं, निर्गुण हैं, प्रकृति से परे हैं, निर्विकार, निरीह एवं स्वतन्त्र परमेश्वर हैं; तथापि भक्तों के उद्धार में संलग्न होकर यहाँ सगुण भी हो जाते हैं, स्वात्माराम होकर भी लीलाविहारी बन जाते हैं; क्योंकि आप नाना प्रकार की लीलाएँ करने में कुशल हैं। महादेव! महेश्वर! मैं सब प्रकार से आपको जानती हूँ। सर्वज्ञ! अब बहुत कहने से क्या लाभ? मुझ पर दया कीजिये। नाथ! महान् अद्भुत लीला करके लोक में अपने सुयश का विस्तार कीजिये, जिसे गा-गाकर लोग अनायास ही भवसागर से पार हो जायँ।

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! ऐसा कहकर गिरिजा ने महेश्वर को बारंबार प्रणाम किया और मस्तक झुकाकर हाथ जोड़ वे चुप हो गयीं। उनके ऐसा कहने पर महात्मा महेश्वर ने लोकलीला का अनुसरण करने के लिये वैसा करना स्वीकार कर लिया। पार्वती ने जो कुछ कहा था, उसी को प्रसन्नतापूर्वक करने के लिये उद्यत होकर वे हँसने लगे। तदनन्तर हर्ष से भरे हुए शम्भु अन्तर्धान हो कैलास को चले गये। उस समय काली के विरह से उनका चित्त उन्हीं की ओर खिंच गया था। कैलास पर जाकर परमानन्द में निमग्न हुए महेश्वर ने अपने नन्दी आदि गणों से वह सारा वृतान्त कह सुनाया। वे भैरव आदि सभी गण भी वह सुब समाचार सुनकर अत्यन्त सुखी हो गये और महान् उत्सव करने लगे। नारद! उस समय वहाँ महान् मंगल होने लगा। सबके दुःख नष्ट हो गये तथा रुद्रदेव को भी पूर्ण आनदं प्राप्त हुआ।

(अध्याय २९)