पार्वती का पिता के घर में सत्कार, महादेवजी की नटलीला का चमत्कार, उनका मेना आदि से पार्वती को माँगना और माता-पिता के इनकार करने पर अन्तर्धान हो जाना

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! भगवान् शंकर के अपने स्थान को चले जाने पर सखियों सहित पार्वती भी अपने रूप को सफल करके महादेवजी का नाम लेती हुई पिताजी के घर चली गयीं। पार्वती का आगमन सुनकर मेना और हिमाचल दिव्य रथ पर आरूढ़ हो हर्ष से विह्वल होकर उनकी अगवानी के लिये चले। पुरोहित, पुरवासी, अनेकानेक सखियाँ तथा अन्य सब सम्बन्धी भी आ पहुँचे। पार्वती के सारे भाई मैनाक आदि बड़े हर्ष के साथ जय-जयकार करते हुए उन्हें घर ले आने के लिये गये।

इसी बीच में पार्वती अपने नगर के निकट आ गयीं। नगर में प्रवेश करते समय शिव देवी ने माता-पिता को देखा, जो अत्यन्त प्रसन्न और हर्ष से विह्वलचित्त होकर दौड़े चले आ रहे थे। उन्हें देखकर हर्ष से भरी हुई काली ने सखियों सहित प्रणाम किया। माता-पिता ने पूर्ण रूप से आशीर्वाद दे पुत्री को छाती से लगा लिया और 'ओ, मेरी बच्ची!' ऐसा कहकर प्रेम से विह्वल हो रोने लगे। तत्पश्चात् अपने घर की दूसरी-दूसरी स्त्रियों तथा भाभियों ने भी बड़ी प्रसन्नता के साथ प्रेमपूर्वक उन्हें भुजाओं में भरकर भेंटा। 'देवि! तुमने अपने कुल का उद्धार करने वाले उत्तम कार्य को अच्छी तरह सिद्ध किया है। तुम्हारे सदाचरण से हम सब लोग पवित्र हो गये' ऐसा कहकर सब लोग हर्ष के साथ पार्वती की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उन्हें प्रणाम करने लगे। लोगों ने चन्दन और सुन्दर फूलों से शिवादेवी का सानन्द पूजन किया। उस अवसर पर विमान पर बैठे हुए देवताओं ने पार्वती को नमस्कार करके उनपर फूलों की वर्षा करते हुए स्तुति की। नारद! उस समय तुम्हें भी एक सुन्दर रथ पर बिठाकर ब्राह्मण आदि सब लोग नगर में ले गये। फिर ब्राह्मणों, सखियों तथा दूसरी स्त्रियों ने बड़े आदर के साथ शिवा का घर के भीतर प्रवेश कराया। स्त्रियों ने उनके ऊपर बहुत सी वस्तुएँ निछावर की। ब्राहमणों ने आशीर्वाद दिये। मुनीश्वर! पिता हिमवान् और माता मेनका को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने अपने गृहस्थ आश्रम को सफल माना और यह अनुभव किया कि कुपुत्र की अपेक्षा सुपुत्री ही श्रेष्ठ है। गिरिराज ने ब्राह्मणों और वन्दीजनों को धन दिया और ब्राह्मणों से मंगल पाठ करवाया। मुने! इस प्रकार पार्वती के साथ हर्ष भरे माता-पिता, भाई तथा भौजाइयाँ भी घर के आँगन में प्रसन्नतापूर्वक बैठीं।

तदनन्तर हिमवान् प्रसन्नचित्त से सबका आदर-सत्कार करके गंगा-स्नान के लिये गये। इसी बीच में सुन्दर लीला करने वाले भक्तवत्सल भगवान् शम्भु एक अच्छा नाचनेवाला नट बनकर मेनका के पास गये। उन्होंने बायें हाथ में सींग और दाहिने हाथ में डमरू ले रखा था। पीठ पर कथरी रख छोड़ी थी। लाल वस्त्र पहने वे भगवान् रुद्र नाच और गान में अपनी निपुणता का परिचय दे रहे थे। सुन्दर नट का रूप धारण किये हुए भगवान् शिव ने मेनका के पास बैठी हुई स्त्रियों की डोली के समीप सुन्दर नृत्य किया और अत्यन्त मनोहर नाना प्रकार के गीत गाये। उन्होंने वहाँ सुन्दर ध्वनि करनेवाले श्रृंग और डमरू को भी बजाया तथा नाना प्रकार की बड़ी मनोहारिणी लीला की। नटराज की उस लीला को देखने के लिये नगर के सभी स्त्री-पुरुष एवं बालक और वृद्ध भी सहसा वहाँ आ पहुँचे। मुने! उस सुमधुर गीत को सुनकर और उस मनोहर उत्तम नृत्य को देखकर वहाँ आये हुए सब लोग तत्काल मोहित हो गये। मेना भी मोहि गयीं। उधर पार्वती ने अपने हृदय में भगवान् शंकर का साक्षात् दर्शन किया। वे त्रिशूल आदि चिह्न धारण किये अत्यन्त सुन्दर दिखायी देते थे। उनका सारा अंग विभूति से विभूषित था। वे हड्डियों की माला से अलंकृत थे। उनका मुख सूर्य, चन्द्र एवं अग्निरूप तीन नेत्रों से उद्भासित था। उन्होंने नाग का यज्ञोपवीत धारण किया था। उनके उस सुरम्य रूप को देखकर दुर्गा प्रेमावेश से मुर्च्छित हो गयीं। गौरवर्णविभूषित दीनबन्धु दयासिन्धु और सर्वथा मनोहर महेश्वर पार्वती से कह रहे थे कि 'वर माँगो।' अपने हृदय में विराजमान महादेवजी को इस रूप में देखकर पार्वती देवी ने उन्हें प्रणाम किया और मन-ही-मन यह वर माँगा कि 'आप मेरे पति हो जाइये।' प्रीतियुक्त हृदय से शिवा को वैसा कल्याणकारी वर देकर वे पुनः अन्तर्धान हो गये और वहाँ पूर्ववत् भिक्षा माँगनेवाला नट बनकर उत्तम नृत्य करने लगे।

उस समय मेना सोने की बाली में रखे हुए बहुत-से सुन्दर रत्न ले उन्हें प्रसन्नतापूर्वक देने के लिये गयीं। उनका वह ऐश्वर्य देखकर भगवान् शंकर मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। परंतु उन्होंने उन रत्नों को स्वीकार नहीं किया। वे भिक्षा में उनकी पुत्री शिवा को ही माँगने लगे और पुनः कौतुक वश सुन्दर नृत्य एवं गान करने को उद्द्यत हुए। मेना उस भिक्षुक नट की बात सुनकर अत्यन्त कुपित हो उठीं और उसे डांटने-फटकारने लगीं। उनके मन में उसे बाहर निकाल देने की इच्छा हुई। इसी बीच में गिरिराज हिमवान् गंगाजी से नहाकर लौट आये। उन्होंने अपने सामने उस नराकर भिक्षुक को आँगन में खड़ा देखा। मेना के मुख से सारी बातें सुनकर उनको भी बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने अपने सेवकों को आज्ञा दी कि इस नट को बाहर निकाल दो। मुनिश्रेष्ठ! वे नटराज विशालकाय अग्नि की भाँति अपने उत्तम तेज से प्रज्वलित हो रहे थे। उन्हें छूना भी कठिन था। इसलिये कोई भी उन्हें बाहर न निकाल सका। तात! फिर तो नाना प्रकार की लीलाओं में विशारद उन भिक्षुशिरोमणि ने शैलराज को अपना अनन्त प्रभाव दिखाना आरम्भ किया। हिमवान् ने देखा भिक्षु ने वहाँ तत्काल ही भगवान् विष्णु का रूप धारण कर लिया है। उनके मस्तक पर किरीट, कानों में कुण्डल और शरीर पर पीतवस्त्र शोभा पाते हैं। उनके चार भुजाएँ हैं। हिमवान् ने पूजा के समय गदाधारी श्रीहरि को जो-जो पुष्प आदि चढ़ाये थे, वे सब उन्होंने भिक्षु के शरीर और मस्तक पर देखे। तत्पश्चात् गिरिराज ने उन भिक्षुशिरोमणि को जगतस्रष्टा चतुर्मुख ब्रह्मा के रूप में देखा। उनके शरीर का वर्ण लाल था और वे वैदिक सूक्त का पाठ कर रहे थे। तदनन्तर शैलराज ने उन कौतुककारी नटराज को एक क्षण में जगत् के नेत्ररूप सूर्य के आकार में देखा। तात! इसके बाद वे महान् अद्भुत रुद्र के रूप में दिखायी दिये। उनके साथ देवी पार्वती भी थीं। वे उत्तम तेज से सम्पन्न रमणीय रुद्र धीरे-धीरे हँस रहे थे। फिर वे केवल तेजोमय रूप में दृष्टिगोचर हुए। उनका वह स्वरूप निराकार, निरंजन, उपाधिशून्य, निरीह एवं अत्यन्त अद्भुत था। इस प्रकार हिमवान् ने उनके बहुत-से रूप देखे। इससे उन्हें बड़ा विस्मय हुआ और वे तुरंत ही परमानन्द में निमग्न हो गये। तदनन्तर सुन्दर लीला करने वाले उन भिक्षुशिरोमणि ने हिमवान् और मेना से दुर्गा को ही भिक्षा के रूप में माँगा। दूसरी कोई वस्तु ग्रहण नहीं की। परंतु शिव की माया से मोहित होने के कारण शैलराज ने उनकी उस प्रार्थना को स्वीकार नहीं किया। फिर भिक्षु ने कोई वस्तु नहीं ली और वे वहाँ से अन्तर्धान हो गये। तब मेना और शैलराज को उत्तम ज्ञान हुआ और वे सोचने लगे – 'भगवान् शिव हमें अपनी माया से छल कर अपने स्थान को चले गये।' यह विचार कर उन दोनों की भगवान् शिव में पराभक्ति हुई, जो महान् मोक्ष की प्राप्ति कराने वाली, दिव्य तथा सम्पूर्ण आनन्द प्रदान करने वाली है।

(अध्याय ३०)