देवताओं के अनुरोध से वैष्णव ब्राह्मण के वेष में शिवजी का हिमवान् के घर जाना और शिव की निन्दा करके पार्वती का विवाह उनके साथ न करने को कहना
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! मेना और हिमवान् की भगवान् शिव के प्रति उच्चकोटि की अनन्य भक्ति देख इन्द्र आदि सब देवता परस्पर विचार करने लगे। तदनन्तर गुरु बृहस्पति और ब्रह्माजी की सम्मति के अनुसार सभी मुख्या देवताओं ने शिवजी के पास जाकर उनको प्रणाम किया और वे हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे।
देवता बोले – देवदेव! महादेव! करुणाकर! शंकर! हम आपकी शरण में आये हैं, कृपा कीजिये। आपको नमस्कार है। स्वामिन्! आप भक्तवत्सल होने के कारण सदा भक्तों के कार्य सिद्ध करते हैं। दिनों का उद्धार करने वाले और दया के सिन्धु हैं तथा भक्तों को विपत्तियों से छुड़ानेवाले हैं।
इस प्रकार महेश्वर की स्तुति करके इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवताओं ने मेना और हिमवान् की अनन्य शिवभक्ति के विषय में सारी बातें आदरपूर्वक बतायीं। देवताओं की वह बात सुनकर महेश्वर ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और हँसते हुए उन्हें आश्वासन देकर विदा किया। तब सब देवता अपना कार्य सिद्ध हुआ मानकर भगवान् सदाशिव की प्रशंसा करते हुए शीघ्र अपने घर को लौटकर प्रसन्नता का अनुभव करने लगे। तदनन्तर भक्तवत्सल महेश्वर भगवान् शम्भु, जो माया के स्वामी हैं, निर्विकार चित्त से शैलराज के यहाँ गये। उस समय गिरिराज हिमवान् सभाभवन में बन्धुवर्ग से घिरे हुए पार्वती सहित प्रसन्नतापूर्वक बैठे थे। इसी अवसर पर वहाँ सदाशिव ने पदार्पण किया। वे हाथ में दण्ड, छत्र, शरीर पर दिव्य वस्त्र, ललाट में उज्ज्वल तिलक, एक हाथ में स्फटिक की माला और गले में शालग्राम धारण किये भक्तिपूर्वक हरि नाम का जप कर रहे थे और देखने में साधुवेषधारी ब्राह्मण जान पड़ते थे। उन्हें आया देख सपरिवार हिमवान् उठकर खड़े हो गये। उन्होंने उन अपूर्व अतिथिदेवता को भूतल पर दण्ड के समान पड़कर भक्तिभाव से साष्टांग प्रणाम किया। देवि पार्वती ब्राह्मणरूपधारी प्राणेश्वर शिव को पहचान गयी थीं। अतः उन्होंने भी उनको मस्तक झुकाया और मन-ही-मन बड़ी प्रसन्नता के साथ उनकी स्तुति की। ब्राह्मणरूपधारी शिव ने उन सबको प्रेमपूर्वक आशीर्वाद दिया। किंतु शिवा को सबसे अधिक मनोवांछित शुभाशीर्वाद प्रदान किया। शैलाधिराज हिमवान् ने बड़े आदर से उन्हें मधुपर्क आदि पूजन-सामग्री भेंट की और ब्राह्मण ने बड़ी प्रसन्नता के साथ वह सब ग्रहण किया। तत्पश्चात् गिरिश्रेष्ठ हिमाचल ने उनका कुशल समाचार पूछा। मुने! अत्यन्त प्रीतिपूर्वक उन द्विजराज की विधिवत् पूजा करके शैलराज ने पूछा – 'आप कौन हैं?' तब उन ब्राह्मण शिरोमणि ने गिरिराज से शीघ्र ही आदरपूर्वक कहा।
वे श्रेष्ठ ब्राह्मण बोले – गिरिश्रेष्ठ! मैं उत्तम विद्वान् वैष्णव ब्राह्मण हूँ और ज्योतिषी की वृत्ति का आश्रय लेकर भूतल पर भ्रमण करता रहता हूँ। मन के समान मेरी गति है। मैं सर्वत्र जाने में समर्थ और गुरु की दी हुई शक्ति से सर्वज्ञ, परोपकारी, शुद्धात्मा, दया-सिन्धु और विकारनाशक हूँ। मुझे ज्ञात हुआ है कि तुम अपनी इस लक्ष्मी-सरीखी सुन्दर रूपवाली दिव्य सुलक्षणा अपनी पुत्री को एक आश्रयरहित, असंग, कुरूप और गुणहीन वर – महादेवजी के हाथ में देना चाहते हो। वे रुद्र देवता मरघट में वास करते, शरीर में साँप लपेटे रहते और योग साधते फिरते है। उनके पास पहनने के लिये एक वस्त्र भी नहीं है। वैसे ही नंग-धड़ंग घूमते हैं। आभूषण की जगह सर्प धारण करते हैं। उनके कुल का नाम आज तक किसी को ज्ञात नहीं हुआ। वे कुपात्र और कुशील हैं। स्वभावतः विहार से दूर रहते हैं। सारे शरीर में भस्म रमाते हैं। क्रोधी और अविवेकी हैं। उनकी अवस्था कितनी है, यह किसी को ज्ञात नहीं। वे अत्यन्त कुत्सित जटा का बोझ सदा सिर पर धारण किये रहते हैं। वे भले-बुरे सबको आश्रय देने वाले, भ्रमणशील, नागहारधारी, भिक्षुक, कुमार्ग-परायण तथ हठपूर्वक वैदिकमार्ग का त्याग करने वाले हैं। ऐसे अयोग्य वर को आप अपनी बेटी ब्याहना चाहते हैं? अचलराज! अवश्य ही आपका यह विचार मंगलदायक नहीं है। नारायण कुल में उत्पन्न! ज्ञानियों में श्रेष्ठ गिरिराज! मेरे कथन का मर्म समझो। तुमने जिस पात्र को ढूँढ रखा है, यह इस योग्य नहीं है कि उसके हाथ में पार्वती का हाथ दिया जाय। शैलराज! तुम्हीं देखो, उनके एक भी भाई-बन्धु नहीं हैं। तुम तो बड़े-बड़े रत्नों की खान हो। किंतु उनके घर में भूजी भाँग भी नहीं है – वे सर्वथा निर्धन हैं। गिरिराज! तुम शीघ्र ही अपने भाई-बन्धुओं से, मेना देवी से, सभी बेटों से और पंडितों से भी प्रयत्नपूर्वक पूछ लो। किंतु पार्वती से न पूछना; क्योंकि उन्हें शिव के गुण-दोष की परख नहीं है।
ब्रहमाजी कहते हैं – नारद! ऐसा कहकर वे ब्राह्मण देवता, जो नाना प्रकार की लीला करने वाले शान्तस्वरूप शिव ही थे, शीघ्र खा-पीकर आनन्दपूर्वक वहाँ से अपने घर को चल दिये।
(अध्याय ३१)