मेना का कोप भवन में प्रवेश, भगवान् शिव का हिमवान् के पास सप्तर्षियों को भेजना तथा हिमवान् द्वारा उनका सत्कार, सप्तर्षियों तथा अरुन्धती का और महर्षि वसिष्ठ का मेना और हिमवान् को समझाकर पार्वती का विवाह भगवान् शिव के साथ करने के लिये कहना
ब्रह्माजी कहते हैं – ब्राह्मणरूपधारी शिवजी के वचनों का मेना के ऊपर बड़ा प्रभाव पड़ा और उन्होंने दुःखी होकर पति से कहा – 'गिरिराज! इन वैष्णव ब्राह्मण ने शिवजी की जो निन्दा की है, उसे सुनकर मेरा मन उनकी ओर से बहुत खिन्न एवं विरक्त हो गया है। शैलेश्वर! रुद्र के रूप, शील और नाम सभी कुत्सित हैं। मैं उन्हें अपनी सुलक्षणा पुत्री कदापि नहीं दूँगी। यदि आप मेरी बात नहीं मानेंगे तो मैं निस्संदेह मर जाऊँगी, अभी इस घर को छोड़ दूँगी अथवा विष खा लूँगी, पार्वती के गले में फाँसी लगाकर गहन वन में चली जाऊँगी अथवा उसे महासागर में डुबो दूँगी; परंतु अपनी बेटी को रुद्र के गले नहीं मढ़ूंगी।' ऐसा कहकर मेना तुरंत कोप भवन में चली गयीं और अपने हार को फेंककर रोती हुई धरती पर लोट गयीं।
इधर भगवान् शिव को इस बात का पता लगा, तब उन्होंने अरुन्धती सहित सप्तर्षियों को बुलाया तथा मेना के पास जाकर उन्हें समझाने की आज्ञा दी।
शिवजी का आदेश प्राप्त कर भगवान् शिव को नमस्कार करके वे दिव्य ऋषि आकाशमार्ग से उस स्थान को चल दिये, जहाँ हिमवान् की नगरी थी। उस दिव्य पुरी को देखकर उन सप्तर्षियों को बड़ा विस्मय हुआ। वे हिमाचलपूरी की परस्पर प्रशंसा करते हुए सब ऐश्वर्यों से भरे-पुरे हिमवान् के घर जा पहुँचे। उन सूर्यतुल्य तेजस्वी सातों ऋषियों को दूर से आकाश के रास्ते आते देख हिमवान् को बड़ा विस्मय हुआ। वे बोले – 'ये सात सूर्यतुल्य तेजस्वी मुनि मेरे पास आ रहे हैं। मुझे प्रयत्नपूर्वक इस समय इनकी पूजा करनी चाहिये। सबको सुख देने वाले हम गृहस्थ लोग धन्य हैं, जिसके घर पर ऐसे महात्मा पदार्पण किया करते हैं।'
ब्रह्माजी कहते हैं – इसी समय वे मुनि आकाश से उतर कर पृथ्वी पर खड़े हो गये। उन्हें सामने देख हिमवान् बड़े आदर के साथ आगे बढ़े और हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर उन सप्तर्षियों को प्रणाम करने के पश्चात् उन्होंने बड़े सम्मान के साथ उन सबकी पूजा की तथा उन्हें आगे करके कहा – 'मेरा गृहाश्रम आज धन्य हो गया।' यों कहकर उन्हें बैठने के लिये भक्तिपूर्वक आसन लाकर दिया। जब वे आसनों पर बैठ गये तब उनकी आज्ञा लेकर हिमवान् भी बैठे और वहाँ उन ज्योतिर्मय महर्षियों से इस प्रकार बोले।
हिमवान् ने कहा – आज मैं धन्य हूँ, कृतकृत्य हूँ। मेरा जीवन सफल हो गया। मैं लोक में बहुत-से तीर्थों की भाँति दर्शनीय बन गया; क्योंकि आप-जैसे विश्णुरुपी महात्मा मेरे घर पधारे हैं। आप लोग पूर्णकाम हैं। हम दीनों के घरों में आपका क्या काम हो सकता है। तथापि मुझ सेवक के योग्य यदि कोई कार्य है तो कृपापूर्वक उसे अवश्य कहें। उसे पूर्ण करने से मेरा जीवन सफल हो जायगा।
ऋषि बोले – शैलराज! भगवान् शिव को जगत् का पिता कहा गया है और शिव जगन्माता मानी गयी हैं। अतः तुम्हें महात्मा शंकर को अपनी कन्या देनी चाहिये। हिमालय! ऐसा करके तुम्हारा जन्म सफल हो जायगा तथा तुम जगद्गुरु के भी गुरु हो जाओगे, इसमें संशय नहीं है।
मुनीश्वर! सप्तर्षियों का यह वचन सुनकर हिमवान् ने दोनों हाथ जोड़ उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार कहा।
हिमालय बोले – महाभाग सप्तर्षियों! आप लोगों ने जो बात कही है, उसे शिव की इच्छा से मैंने पहले से ही मान रखा था; किंतु प्रभो! इन दिनों एक वैष्णवधर्मी ब्राह्मण ने आकर भगवान् शिव के प्रति प्रसन्नतापूर्वक बहुत-सी उलटी बातें बतायी हैं। तभी से शिवा की माता का ज्ञान भ्रष्ट हो गया है। वे अपनी बेटी का विवाह उस योगी रुद्र के साथ नहीं करना चाहतीं। ब्राह्मणो! वे बड़ा भारी हठ करके मैंले कपड़े पहन कोप भवन में चली गयी हैं और समझाने पर भी समझ नहीं रही हैं। मैं भी उस वैष्णव ब्राह्मण की बात सुनकर ज्ञानभ्रष्ट हो गया हूँ। आपसे सच कहता हूँ, भिक्षुकरूपधारी महेश्वर को बेटी देने की मेरी भी अब इच्छा नहीं है।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! मुनियों के बीच में बैठे हुए शैलराज शिव की माया से मोहित हो उपर्युक्त बात कहकर चुप हो रहे। तब उन सभी सप्तर्षियों ने शिव की माया की प्रशंसा करके मेनका के पास अरुन्धती को भेजा। पति की आज्ञा पाकर ज्ञानदायिनी अरुन्धती देवी तुरंत उस घर में गयीं, जहाँ मेना और पार्वती थीं। जाकर उन्होंने देखा, मेना शोक से आकुल होकर पृथ्वी पर पड़ी हैं। तब उन साध्वी देवी ने बड़ी सावधानी के साथ मधुर एवं हितकर बात कही।
अरुन्धती बोलीं – साध्वी रानी मेनके! उठो, मैं अरुन्धती तुम्हारे घर में आयी हूँ तथा दयालु सप्तर्षि भी पधारे हैं। अरुन्धती का स्वर सुनकर मेनका शीघ्र उठ गयीं और लक्ष्मी-जैसी तेजस्विनी उन पतिव्रता देवी के चरणों में मस्तक रखकर बोलीं।
मेना ने कहा – अहो! हम पुण्यजन्मा जीवों को आज यह किस पुण्य का फल प्राप्त हुआ है कि हमारे इस घर में जगत्स्त्रष्ट्रा ब्रह्माजी की पुत्रवधू और महर्षि वसिष्ठ की पत्नी पधारी हैं। देवि! आप किस लिये आयी हैं? यह मुझे बताइये। मैं और मेरी पुत्री आपकी दासी के समान हैं। आप हम पर कृपा कीजिये।
मेनका के ऐसा कहने पर साध्वी अरुन्धती ने उनको बहुत अच्छी तरह समझाया-बुझाया और उन्हें साथ ले वे प्रसन्नतापूर्वक उस स्थान पर आयीं, जहाँ वे सप्तर्षि विद्यमान थे। सप्तर्षिगण बातचीत में बड़े निपुण थे। उन सब ने भगवान् शिव के युगल चरणारविन्दों का स्मरण करके शैलराज को समझाना आरम्भ किया।
ऋषि बोले – शैलेन्द्र! हमारा शुभकारक वचन सुनो। तुम पार्वती का विवाह शिव के साथ कर दो और संहारकर्ता रुद्र के श्वसुर हो जाओ। शम्भु सर्वेश्वर हैं। वे किसी से याचना नहीं करते। स्वयं ब्रह्माजी ने तारकासुर के विनाश के लिये एक वीर पुत्र उत्पन्न करने के उद्देश्य को लेकर भगवान् शिव से यह प्रार्थना की है कि वे विवाह कर लें। भगवान् शंकर तो योगियों के शिरोमणि हैं। वे विवाह के लिये उत्सुक नहीं हैं। केवल ब्रहमाजी की प्रार्थना से ही वे महादेव तुम्हारी कन्या का पाणिग्रहण करेंगे। तुम्हारी पुत्री ने जब तपस्या की थी, उस समय उसके सामने उन्होंने उससे विवाह की प्रतिज्ञा कर ली थी। इन्हीं दो कारणों से वे योगिराज शिव विवाह करेंगे।
ऋषियों की यह बात सुनकर हिमालय हँस पड़े और कुछ भयभीत हो विनयपूर्वक बोले।
हिमालय ने कहा – मैं शिव के पास कोई राजोचित सामग्री नहीं देखता हूँ। उनका न कोई घर है, न ऐश्वर्य है और न कोई स्वजन या बन्धु-बान्धव ही है। मैं अत्यन्त निर्लिप्त योगी को अपनी बेटी देना नहीं चाहता। आप लोग वेदविधाता ब्रह्माजी के पुत्र हैं; अतः अपना निश्चित विचार कहिये। जो पिता काम से, मोह से, भय से अथवा लोभ से किसी अयोग्य वर के हाथ में अपनी कन्या दे देता है, वह मरने के बाद नरक में जाता है। अतः मैं स्वेच्छा से भगवान् शूलपाणि को अपनी कन्या नहीं दूँगा। इसलिये महर्षियो! जो उचित विधान हो, उसे आप लोग कीजिये।
मुनीश्वर नारद! हिमाचल के इस वचन को सुनकर बातचीत करने में निपुण महर्षि वसिष्ठ ने उनसे यों कहा।
वशिष्ठ बोले – शैलेश्वर! मेरी बात सुनो। यह सर्वथा तुम्हारे लिये हितकारक, धर्म के अनुकूल, सत्व तथा इहलोक और परलोक में सुखदायक है। शैलराज! लोक तथा वेद में तीन प्रकार के वचन उपलब्ध होते हैं। शास्त्रज्ञ पुरुष अपनी निर्मल ज्ञानदृष्टि से उन सब प्रकार के वचनों को जानता है। एक तो वह वचन है, जो तत्काल सुनने में बड़ा सुन्दर लगता है, परंतु पीछे वह असत्य एवं अहितकारक सिद्ध होता है। ऐसा वचन बुद्धिमान् शत्रु ही कहता है, उससे कभी हित नहीं होता। दूसरा वह है, जो आरम्भ में अच्छा नहीं लगता; उसे सुनकर अप्रसन्नता ही होती है। परंतु परिणाम में वह सुख देनेवाल होता है। इस तरह का वचन कहकर दयालु धर्मशील बान्धवजन ही कर्तव्य का बोध कराता है। तीसरी श्रेणी का वचन वह है जो सुनते ही अमृत के समान मीठा लगता है और सब काल में सुख देने वाला होता है। सत्य ही उसका सार होता है। इसलिये वह हितकारक हुआ करता है। ऐसा वचन सबसे श्रेष्ठ और सबके लिये अभीष्ट है। शैलराज! इस तरह नीतिशास्त्र में तीन प्रकार के वचन कहे गये हैं। इन तीनों में से तुम्हें कौन सा वचन अभीष्ट है? बताओं, मैं तुम्हारे लिये वैसा ही वचन कहूँगा। भगवान् शंकर सम्पूर्ण देवताओं के स्वामी हैं। उनके पास बाह्य सम्पत्ति नहीं है, इसका कारण यह है कि उनका चित्त एकमात्र ज्ञान के महासागर में मग्न रहता है। जो ज्ञानानन्दस्वरूप और सबके ईश्वर हैं, उन्हें लौकिक – बाह्य वस्तुओं की क्या इच्छा होगी? गृहस्थ पुरुष राज्य और सम्पत्ति से सुशोभित होने वाले वर को अपनी पुत्री देता है; क्योंकि किसी दीन-दुःखी को कन्या देने से पिता कन्याघाती होता है – उसे कन्या के वध का पाप लगता है। कौन जानता है कि भगवान् शंकर दुःखी है? कुबेर जिनके किंकर हैं, जो अपनी भ्रुभंग की लीला मात्र से संसार की सृष्टि और संहार करने में समर्थ हैं, जिन्हें गुणातीत, परमात्मा और प्रकृति से परे परमेश्वर कहा गया है, सृष्टि, पालन और संहार करने वाली जिनकी त्रिविध मूर्ति ही ब्रह्मा, विष्णु और हर नाम धारण करती है, उन्हें कौन निर्धन अथवा दुःखी कह सकता है? ब्रह्मलोक में निवास करने वाले ब्रह्मा, क्षीरसागर में रहने वाले विष्णु तथा कैलासवासी हर – ये सब शिव की ही विभूतियाँ हैं। शिव से प्रकट हुई प्रकृति भी अपने अंश से तीन प्रकार की मूर्तियों को धारण करती है। जगत् में लीलाशक्ति से प्रेरित हो वह अपनी कला से बहुत-सा रूप धारण करती है। समस्त वाङ्मय की अधिष्ठात्री देवी वाणी उनके मुख से प्रकट हुई हैं और सर्वसम्पतस्वरूपिणी लक्ष्मी वक्षःस्थल से आविर्भूत हुई हैं तथा शिवा ने देवताओं के एकत्र हुए तेज से अपने को प्रकट किया था और सम्पूर्ण दानवों का वध करके देवताओं को स्वर्ग की लक्ष्मी प्रदान की थी।
देवी शिव कल्पान्तर में दक्षपत्नी के उदर से जन्म ले सती नाम से प्रसिद्ध हुईं और हर को उन्होंने पति के रूप में प्राप्त किया। दक्ष ने स्वयं ही भगवान् शिव को अपनी पुत्री दी थी। सती ने पति की निन्दा सुनकर योगबल से अपने शरीर को त्याग दिया था। वे ही कल्याणमयी सती अब तुम्हारे वीर्य और मेना के गर्भ से प्रकट हुई हैं। शैलराज! ये शिवा जन्म-जन्म में शिव की ही पत्नी होती हैं। प्रत्येक कल्प में बुद्धिरूपा दुर्गा ज्ञानियों की श्रेष्ठ माता होती हैं। ये सदा सिद्ध, सिद्धिदायिनी और सिद्धिरूपिणी हैं। भगवान् हर चिता-भस्म के रूप में सती के अस्थिचूर्ण को ही स्वयं प्रेमपूर्वक अपने अंगों में धारण करते हैं। अतः गिरीराज! तुम स्वेच्छा से ही अपनी मंगलमयी कन्या को भगवान् हर के हाथ में दे दो। तुम यदि नहीं दोगे तो वह स्वयं प्रियतम के स्थान में चली जायगी। देवेश्वर शिव तुम्हारी पुत्री का अनन्त क्लेश देखकर ब्राह्मण के रूप में इसकी तपस्या के स्थान पर आये थे और इसके साथ विवाह की प्रतिज्ञा करके इसे आश्वासन एवं वर देकर अपने आवास-स्थान को लौट गये थे। गिरे! पार्वती की प्रार्थना से ही शम्भु ने तुम्हारे पास आकर इसके लिये याचना की और तुम दोनों ने शिवभक्ति में मन लगाकर उनकी उस याचना को स्वीकार कर लिया था। गिरीश्वर! बताओ, फिर किस कारण से तुम्हारी बुद्धि विपरीत हो गयी? भगवान् शिव ने देवताओं की प्रार्थना से प्रभावित होकर हम सब ऋषियों को और अरुन्धती देवी को भी तुम्हारे पास भेजा है। हम तुम्हें यही शिक्षा देते हैं कि तुम पार्वती को रुद्र के हाथ में दे दो। गिरे! ऐसा करने पर तुम्हें महान् आनन्द प्राप्त होगा। शैलेन्द्र! यदि तुम स्वेच्छा से अपनी बेटी शिवा को शिव के हाथ में नहीं दोगे तो भावी के बल से ही इन दोनों का विवाह हो जायगा। तात! भगवान् शंकर ने तपस्या में लगी हुई पार्वती को ऐसा ही वर दिया है। ईश्वर की की हुई प्रतिज्ञा कभी पलट नहीं सकती। गिरिराज! ईश्वर के वश में रहनेवाले समस्त साधू पुरुषों की भी प्रतिज्ञा का संसार में किसी के द्वारा उल्लंघन होना कठिन है। फिर साक्षात् ईश्वर की प्रतिज्ञा के लिये तो कहना ही क्या है?
(अध्याय ३२ - ३३)