सप्तषियों के समझाने तथा मेरु आदि के कहने से पत्नी सहित हिमवान् का शिव के साथ अपनी पुत्री के विवाह का निश्चय करना तथा सप्तर्षियों का शिव के पास जा उन्हें सब बात बताकर अपने धाम को जाना
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! तदनन्तर वसिष्ठ ने प्राचीन काल में राजा अनरण्य के द्वारा अपनी कन्या पद्मा का पिप्पलाद के साथ विवाह करने की तथा धर्म के वरदान से पिप्पलाद के तरुण अवस्था, रूप, गुण, सदा स्थिर रहने वाले यौवन, कुबेर और इन्द्र से भी बढ़कर धन-ऐश्वर्य, भक्ति, सिद्धि एवं समता प्राप्त करने की तथा पद्मा के स्थिर यौवन, सौभाग्य, सम्पत्ति एवं भर्ता के द्वारा परम गुणवान् दस पुत्रों के प्राप्त करने की कथा सुनाकर कहा – 'शैलेन्द्र! तुम मेरे कथन के सारतत्त्व को समझकर अपनी पुत्री पार्वती का हाथ महादेवजी के हाथ में दे दो और मेना सहित तुम्हारे मन में जो कुरोष है, उसे त्याग दो। आज से एक सप्ताह व्यतीत होने पर अत्यन्त शुभ और दुर्लभ मुहूर्त आनेवाला है। उस समय चन्द्रमा लग्न के स्वामी होकर अपने पुत्र बुध के साथ लग्न में ही स्थित होंगे। उनका रोहिणी नक्षत्र के साथ योग होगा। चन्द्रमा और तारे शुद्ध होंगे। मार्गशीर्ष मास के अन्तर्गत सम्पूर्ण दोषों से रहित सोमवार को, जब कि लग्न पर सम्पूर्ण शुभग्रहों की दृष्टि होगी, पापग्रहों की दृष्टि नहीं होगी तथा बृहस्पति ऐसे स्थान पर स्थित होंगे, जहाँ से वे उत्तम संतान और पति का सौभाग्य देने में समर्थ होंगे। ऐसे मुहूर्त में तुम अपनी कन्या मूलप्रकृति ईश्वरी जगदम्बा पार्वती को जगत्पिता भगवान् शिव के हाथ में देकर कृतार्थ हो जाओ।'
ऐसा कहकर ज्ञानशिरोमणि मुनिवर वसिष्ठ नाना प्रकार की लीला करने वाले भगवान् शिव का स्मरण करके चुप हो गये। वसिष्ठजी की बात सुनकर सेवकों और पत्नी सहित गिरिराज हिमालय बड़े विस्मित हुए और दूसरे-दूसरे पर्वतों से बोले।
हिमालय ने कहा – गिरिराज मेरु, सह्म, गन्धमादन, मन्दराचल, मैनाक और विन्ध्याचल आदि पर्वतेश्वरो! आप सब लोग मेरी बात सुनें। वसिष्ठजी ऐसी बात कह रहे हैं। अब मुझे क्या करना चाहिये, इस बात का विचार करना है। आप लोग अपने मन से सब बातों का निर्णय करके जैसा ठीक समझें, वैसा करें।
हिमाचल की यह बात सुनकर सुमेरु आदि पर्वत भलिभाँति निर्णय करके उनसे प्रसन्नतापूर्वक बोले।
पर्वतों ने कहा – महाभाग! इस समय विचार करने से क्या लाभ? जैसा ऋषिलोग कहते हैं, उसके अनुसार ही कार्य करना चाहिये। वास्तव में यह कन्या देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये ही उत्पन्न हुई है। इसने शिव के लिये ही अवतार लिया है, इसलिये यह शिव को ही दी जानी चाहिये। यदि इसने रुद्रदेव की आराधना की है और रुद्र ने आकर इसके साथ वार्तालाप किया है तो इसका विवाह उन्हीं के साथ होना चाहिये।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! उन मेरु आदि पर्वतों की यह बात सुनकर हिमाचल बड़े प्रसन्न हुए और गिरिजा भी मन-ही-मन हँसने लगीं। अरुन्धती ने भी अनेक कारण बताकर, नाना प्रकार की बातें सुनाकर और विविध प्रकार के इतिहासों का वर्णन करके मेनादेवि को समझाया। तब शैलपत्नी मेनका सब कुछ समझ गयीं और प्रसन्नचित्त हो उन्होंने मुनियों को, अरुन्धतीजी को और हिमाचल को भी भोजन कराकर स्वयं भोजन किया। तदनन्तर ज्ञानी गिरीश्रेष्ठ हिमाचल ने उन मुनियों की भलिभाँति सेवा की। उनका मन प्रसन्न और सारा भ्रम दूर हो गया था। उन्होंने हाथ जोड़ प्रसन्नतापूर्वक उन महर्षियों से कहा।
हिमालय बोले – महाभाग सप्तर्षियों! आप लोग मेरी बात सुनें। मेरा सारा संदेह दूर हो गया। मैंने शिव-पार्वती के चरित्र सुन लिये; अब मेरा शरीर, मेरी पत्नी मेना, मेरे पुत्र-पुत्री, ऋद्धि-सिद्धि तथा अन्य सारी वस्तुएँ भगवान् शिव की ही हैं, दूसरे किसी की नहीं!
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! ऐसा कहकर हिमाचल ने अपनी पुत्री की ओर आदरपूर्वक देखा और उसे वस्त्राभूषणों से विभूषित करके ऋषियों की गोद में बिठा दिया। तत्पश्चात् वे शैलराज पुनः प्रसन्न हो उन ऋषियों से बोले – 'यह भगवान् रुद्र का भाग है। इसे मैं उन्हीं को दूँगा, ऐसा निश्चय कर लिया है।'
ऋषि बोले – गिरिराज! भगवान् शंकर तुम्हारे याचक हैं, तुम स्वयं उनके दाता हो और पार्वती देवी भिक्षा हैं। इससे उत्तम और क्या हो सकता है? हिमाचल! तुम समस्त पर्वतों के राजा, सबसे श्रेष्ठ और धन्य हो। अतः तुम्हारे शिखरों की सामान्य गति है – तुम्हारे सभी शिखर सामान्य रूप से पवित्र एवं श्रेष्ठ हैं।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! ऐसा कहकर निर्मल अन्तःकरणवाले उन मुनियों ने गिरिराज कुमारी पार्वती को हाथ से छूकर आशीर्वाद देते हुए कहा – 'शिवे! तुम भगवान् शिव के लिये सुखदायिनी होओ। तुम्हारा कल्याण होगा। जैसे शुक्लपक्ष में चन्द्रमा बढ़ते है, उसी प्रकार तुम्हारे गुणों की वृद्धि हो।' ऐसा कहकर सब मुनियों ने गिरिराज को प्रसन्नतापूर्वक फल-फूल दे विवाह के पक्के होने का दृढ़ विश्वास कर लिया। उस समय परम सती सुमुखी अरुन्धती ने प्रसन्नतापूर्वक भगवान् शिव के गुणों का बखान करके मेना को लुभा लिया। तदनन्तर गिरिराज हिमवान् ने परम उत्तम मांगलिक लोकाचार का आश्रय ले हल्दी और कुकुंम से अपनी दाढ़ी-मूछ का मार्जन किया। तत्पश्चात् चौथे दिन उत्तम लग्न का निश्चय करके परस्पर संतोष दे, वे सप्तर्षि भगवान् शिव के पास चले गये। वहाँ जाकर शिव को नमस्कार और विविध सूक्तियों से उनका स्तवन करके वे वसिष्ठ आदि सब मुनि परमेश्वर शिव से बोले।
ऋषियों ने कहा – देवदेव! महादेव! परमेश्वर! महाप्रभो! आप प्रेमपूर्वक हमारी बात सुनें। आपके इन सेवकों ने जो कार्य किया है, उसे जान लें। महेश्वर! हमने नाना प्रकार के सुन्दर वचन और इतिहास सुनाकर गिरिराज और मेना को समझा दिया है। गिरिराज ने आपके लिये पार्वती का वाग्दान कर दिया है। अब इसमें कोई ननु-नच नहीं है। अब आप अपने पार्षदों तथा देवताओं के साथ उनके यहाँ विवाह के लिये जाइये। महादेव! प्रभो! अब शीघ्र हिमाचल के घर पधारिये और वेदोक्त रीति के अनुसार पार्वती का अपने लिये पाणिग्रहण कीजिये।
सप्तर्षियों का यह वचन सुनकर लोकाचार-परायण महेश्वर प्रसन्नचित्त हो हँसते हुए इस प्रकार बोले।
महेश्वर ने कहा – महाभाग सप्तर्षियों! विवाह को तो मैंने न कभी देखा है और न सुना ही है। तुम लोगों ने पहले जैसा देखा हो, उसके अनुसार विवाह की विशेष विधि का वर्णन करो।
महेश्वर के उस लौकिक शुभ वचन को सुनकर वे ऋषि हँसते हुए देवाधिदेव भगवान् सदाशिव से बोले।
ऋषियों ने कहा – प्रभो! आप पहले तो भगवान् विष्णु को, विशेषतः उनके पार्षदों सहित शीघ्र बुला लें। फिर पुत्रों सहित ब्रहमाजी को, देवराज इन्द्र को, समस्त ऋषियों को, यक्ष, गन्धर्व, किंनर, सिद्ध, विद्याधर और अप्सराओं को प्रसन्नतापूर्वक आमन्त्रित करें। इनको तथा अन्य सब लोगों को यहाँ सादर बुलवा लें। वे सब मिलकर आपके कार्य का साधन कर लेंगे, इसमें संशय नहीं है।
ब्रहमाजी कहते हैं – नारद! ऐसा कहकर वे सातों ऋषि उनकी आज्ञा ले भगवान् शंकर की स्थिति का वर्णन करते हुए वहाँ से प्रसन्नतापूर्वक अपने धाम को चले गये।
(अध्याय ३४ - ३६)