भगवान् शिव का नारदजी के द्वारा सब देवताओं को निमन्त्रण दिलाना, सबका आगमन तथा शिव का मंगलाचार एवं ग्रहपूजन आदि करके कैलास से बाहर निकलना
नारदजी बोले – विष्णुशिष्य महाप्राज्ञ तात विधातः! आपको नमस्कार है। कृपानिधे! आपके मुँह से यह अद्भुत कथा मुझे सुनने को मिली है। अब मैं भगवान् चन्द्रमौलि के परम मंगलमय तथा समस्त पापराशि के विनाशक वैवाहिक चरित्र को सुनना चाहता हूँ। मंगलपत्रिका पाकर महादेवजी ने क्या किया? परमात्मा शंकर की वह दिव्य कथा सुनाइये।
ब्रह्माजी ने कहा – बेटा! तुम बड़े बुद्धिमान् हो। भगवान् शंकर के उत्तम यश को सुनो। मंगलपत्रिका पाकर भगवान् शंकर ने जो कुछ किया, वह बताता हूँ। भगवान् शिव उस मंगलपत्रिका को प्रसन्नतापूर्वक हाथ में लेकर हृदय में बड़े हर्ष का अनुभव करते हुए हँसने लगे। फिर उन भगवान् ने उसे लानेवालों का सम्मान किया। तत्पश्चात् उसे बाँचकर विधिपूर्वक स्वीकार किया। इसके बाद हिमाचल के यहाँ से आये हुए लोगों को बड़े आदर-सम्मान के साथ विदा किया। तदनन्तर उन मुनियों से कहा – 'आप लोगों ने मेरे शुभ कार्य का भलीभाँति सम्पादन किया, अब मैंने विवाह स्वीकार कर लिया है। अतः आप लोगों को मेरे विवाह में आना चाहिये।'
भगवान् शंकर का यह वचन सुनकर वे ऋषि बड़े प्रसन्न हुए और उन्हें प्रणाम एवं उनकी परिक्रमा करके अपने परम सौभाग्य की सराहना करते हुए अपने धाम को चले गये। मुने! तदनन्तर महालीला करनेवाले देवेश्वर भगवान् शम्भु ने लोकाचार का सहारा ले तत्काल ही तुम्हारा स्मरण किया। तुम अपने सौभाग्य की प्रशंसा करते हुए बड़ी प्रसन्नता के साथ वहाँ आये और मस्तक झुका प्रणाम कर हाथ जोड़ विनीत भाव से खड़े हो गये।
तब भगवान् शिव ने कहा – नारद! तुम्हारे उपदेश से देवी पार्वती ने बड़ी भारी तपस्या की और उससे संतुष्ट होकर मैंने उन्हें यह वर दिया कि मैं पतिरूप से तुम्हारा पाणिग्रहण करूँगा। पार्वती की भक्ति देखकर मैं उनके वश में हो गया हूँ। इसलिये उनके साथ विवाह करूँगा। सप्तर्षियों ने लग्न का साधन और शोधन कर दिया है। अतः आज से सातवें दिन मेरा विवाह होगा। उस अवसर पर लौकिक रीति का आश्रय ले मैं महान् उत्सव करूँगा। मुने! तुम विष्णु आदि सब देवताओं, मुनियों और सिद्धों को तथा अन्य लोगों को भी मेरी ओर से निमन्त्रित करो। सब लोग मेरे शासन की गुरुता को समझकर प्रसन्नता और उत्साह के साथ सब प्रकार से सज-धजकर स्त्री-पुत्रों को साथ लिये यहाँ आयें।
ब्रहमाजी कहते हैं – मुने! भगवान् शंकर की इस आज्ञा को शिरोधार्य करके तुमने शीघ्र ही सर्वत्र जाकर उन सबको निमनत्रण दे दिया। तत्पश्चात् शम्भु के पास आकर उनकी आज्ञा के अनुसार तुम वहीं ठहर गये। भगवान् शिव भी उन सब देवताओं के आगमन की उत्कण्ठापूर्वक प्रतीक्षा करते हुए अपने गणों के साथ वहीं रहे। उनके सभी गण सम्पूर्ण दिशाओं में नाचते हुए वहाँ बड़ा भारी उत्सव मना रहे थे। इसी बीच में भगवान् विष्णु सुन्दर वेष धारण किये अपनी पत्नी और दल-बल के साथ शीघ्र ही कैलास पर्वत पर आये और भक्तिभाव से भगवान् शिव को प्रणाम करके उनकी आज्ञा पाकर प्रसनन्नतापूर्वक उत्तम स्थान में ठहर गये। इसी प्रकार मैं अपने गणों के साथ स्वतन्त्रतापूर्वक शीघ्र ही कैलास गया और भगवान् शम्भु को प्रणाम करके अपने सेवकों सहित सानन्द वहाँ ठहरा। तदनन्तर इन्द्र आदि लोकपाल और उनकी स्त्रियाँ आवश्यक सामान के साथ खूब सज-धजकर वहाँ आयीं। वे सब-के-सब उत्सव मना रहे थे। तत्पश्चात् मुनि, नाग, सिद्ध, उपदेवता तथा अन्य लोग भी निमन्त्रित हो उत्सव मनाते हुए वहाँ आये। उस समय महेश्वर ने वहाँ आये हुए सब देवता आदि का पृथक्-पृथक् सहर्ष स्वागत-सत्कार किया। फिर तो कैलास पर्वत पर बड़ा अद्भुत और महान् उत्सव होने लगा। देवांगनाओं ने उस अवसर पर यथायोग्य नृत्य आदि किया। विष्णु आदि जो देवता भगवान् शम्भु की वैवाहिक यात्रा सम्पन्न कराने के लिये इस समय वहाँ आये थे, वे सब यथास्थान ठहर गये। भगवान् शिव की आज्ञा पाकर सब लोग उनके प्रत्येक कार्य को अपना ही कार्य समझकर नियन्त्रित रूप से करने लगे और इसे शिव की सेवा मानने लगे। उस समय सातों मातृकाएँ वहाँ बड़ी प्रसन्नता के साथ शिव को यथायोग्य आभूषण पहनाने लगीं। मुनिश्रेष्ठ! परमेश्वर भगवान् शिव का जो स्वाभाविक वेष था, वही उनकी इच्छा से उनके लिये आभूषण की सामग्री बन गया। उस समय चन्द्रमा स्वयं उनके मुकुट के स्थान पर जा विराजे। उनका जो सुन्दर ललाटवर्ती तीसरा नेत्र था, वही शुभ तिलक बन गया। मुने! कानों के आशभूषणों के रूप में जो दो सर्प बताये गये हैं, वे नाना प्रकार के रत्नों से युक्त दो कुण्डल बन गये। अन्यान्य अंगों में स्थित सर्प उन-उन अंगों के अति रमणीय नाना रत्नमय आभूषण हो गये। उनके शरीर में जो भस्म लगा हुआ था, वही चन्दन आदि का अंगराग बन गया और उनके जो गजचर्म आदि परिधान थे, वे सुन्दर दिव्य दुकूल बन गये।
इस प्रकार उनका रूप इतना सुन्दर हो गया कि उसका वर्णन करना कठिन है। वे साक्षात् ईश्वर तो थे ही, उन्होंने पूरा-पूरा ऐश्वर्य प्राप्त कर लिया। तदनन्तर समस्त देवता, यक्ष, दानव, नाग, पक्षी, अप्सरा और महर्षिगण मिलकर भगवान् शिव के समीप गये और महान् उत्सव मनाते हुए प्रसन्नतापूर्वक उनसे बोले – 'महादेव! महेश्वर! अब आप महादेवी गिरिजा को ब्याह लाने के लिये हम लोगों के साथ चलिये, चलिये। हम पर कृपा कीजिये।' तत्पश्चात् विज्ञान से प्रसन्न हृदयवाले भगवान् विष्णु ने भगवान् शंकर को भक्तिभाव से प्रणाम करके उपर्युक्त प्रस्ताव के अनुरूप ही बात कही।
भगवन् विष्णु बोले – शरणागतवत्सल देवदेव! महादेव! प्रभो! आप अपने भक्तजनों का कार्य सिद्ध करनेवाले हैं; अतः मेरा एक निवेदन सुनिये। कल्याणकारी शम्भो! आप गृह्मसूत्रोक्त विधि के अनुसार गिरिराजकुमारी पार्वती देवी के साथ अपने विवाह का कार्य कराइये। हर! आपके द्वारा विवाह की विधि का सम्पादन होने पर वही लोक में सर्वत्र विख्यात हो जायगी, अतः नाथ! आप कुलधर्म के अनुसार प्रेमपूर्वक मण्डपस्थापन और नान्दीमुख श्राद्ध कराइ़ये तथा लोक में अपने यश का विस्तार कीजिये।
ब्रह्मजी कहते हैं – नारद! भगवान् विष्णु के ऐसा कहने पर लोकाचारपरायण परमेश्वर शम्भु ने विधिपूर्वक सब कार्य किया। उन्होंने सारा आभ्युदयिक कार्य कराने के लिये मुझको ही अधिकार दे दिया था। अतः वहाँ मुनियों को साथ ले मैंने आदर और प्रसन्नता के साथ वह सब कार्य सम्पन्न किया। महामुने! उस समय कश्यप, अत्रि, वसिष्ठ, गौतम, भागुरि, गुरु, कण्व, बृहस्पति, शक्ति, जमदग्नि, पराशर, मार्कण्डेय, शिलापाक, अरुणपाल, अकृतश्रम, अगस्त्य, च्यवन, गर्ग, शिलाद, दधीचि, उपमन्यु, भरद्वाज, अकृतव्रण, पिप्पलाद, कुशिक, कौत्स तथा शिष्यों सहित व्यास – ये और दूसरे बहुत-से ऋषि जो भगवान् शिव के समीप आये थे, मेरी प्रेरणा से विधिपूर्वक वहाँ आभ्युदयिक कर्म कराने लगे। वे सब-के-सब वेदों के पारंगत विद्वान थे। अतः वेदोक्त विधि से वैवाहिक मंगलाचार करके ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के विविध उत्तम सूक्तों द्वारा महेश्वर की रक्षा करने लगे। उन सब ऋषियों ने बड़ी प्रसन्नता के साथ बहुत-से मंगल कार्य कराये। मेरी और शम्भु की प्रेरणा से उन्होंने विघ्नों की शान्ति के लिये प्रीतिपूर्वक ग्रहों का और समस्त मण्डलवर्ती देवताओं का पूजन किया। वह सब लौकिक, वैदिक कर्म यथोचित रीति से करके भगवान् शिव बहुत संतुष्ट हुए और उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक ब्राह्मणों को प्रणाम किया। तदनन्तर वे सर्वेश्वर महादेव देवताओं और ब्राह्मणों को आगे करके उस गिरिश्रेष्ठ कैलास से हर्षपूर्वक निकले। कैलास से बाहर जाकर देवताओं और ब्राह्मणों के साथ भगवान् शम्भु, जो नाना प्रकार की लीलाएँ करनेवाले हैं, सानन्द खड़े हो गये। उस समय वहाँ महेश्वर के संतोष के लिये देवता आदि ने मिलकर बहुत बड़ा उत्सव मनाया। बाजे बजे तथा गान और नृत्य हुए।
(अध्याय ३९)