भगवान् शिव का बारात लेकर हिमालय पुरी की ओर प्रस्थान
ब्रहमाजी कहते हैं – मुने! तदनन्तर भगवान् शम्भु ने नन्दी आदि सब गणों को अपने साथ हिमाचल पुरी को चलने की प्रसन्नतापूर्वक आज्ञा देते हुए कहा – 'तुम लोग थोड़े-से गणों को यहाँ रखकर शेष सभी लोग मेरे साथ बड़े उत्साह और आनन्द से युक्त हो गिरिराज हिमवान् के नगर को चलो।' फिर तो भगवान् की आज्ञा पाकर गणेशवर शंखकर्ण, केकराक्ष, विकृत, विशाख, पारिजात, विकृतानन, दुन्दुभ, कपाल, संदारक, कन्दुक, कुण्डक, विष्टम्भ, पिप्पल, सनादक, आवेशन, कुण्ड, पर्वतक, चन्द्रतापन, काल, कालक, महाकाल, अग्निक, अग्निमुख, आदित्यमूर्द्धा, घनावह, संनाह, कुमुद, अमोघ, कोकिल, सुमन्त्र, काकपादोदर, संतानक, मधुपिंग, कोकिल, पूर्णभद्र, नील, चतुर्वक्त्र, करण, अहिरोमक, यज्ज्वाक्ष, शतमन्यु, मेघमन्यु, काष्ठागूढ़, विरूपाक्ष, सुकेश, वृषभ, सनातन, तालकेतु, षण्मुख, चैत्र, स्वयम्प्रभु, लकुलीश, लोकान्तक, दीप्तात्मा, दैत्यान्तक, भृंगिरिटि, देवदेवप्रिय, अशनि, भानुक, प्रमथ तथा वीरभद्र अपने असंख्य कोटि-कोटि गणों तथा भूतों को साथ लेकर चले। नन्दी आदि गणराज असंख्य गणों से घिरे चले तथा क्षेत्रपाल और भैरव भी कोटि-कोटि गणों को लेकर उत्सव मनाते हुए प्रेम और उत्साह के साथ चल पड़े। वे सब सहस्त्र हाथों से युक्त थे। सिर पर जटाका मुकुट धारण किये हुए थे। उन सबके मस्तक पर चन्द्रमा और गले में नील चिह्न थे तथा वे सब-के-सब त्रिनेत्रधारी थे। उन सब ने रुद्राक्ष के आभूषण पहन रखे थे। सभी उत्तम भस्म धारण किये थे और हार, कुण्डल, केयूर तथा मुकुट आदि से अलंकृत थे। इस प्रकार देवताओं तथा दूसरे-दूसरे गणों को साथ ले भगवान् शंकर अपने विवाह के लिये हिमवान् के नगर की ओर चले। चण्डीदेवी रुद्रदेव की बहिन बनकर खूब उत्सव मनाती हुईं बड़ी प्रसन्नता के साथ वहाँ आ पहुँचीं। वे शत्रुओं को अत्यन्त भय देने वाली थीं। उन्होंने साँपों के आभूषण से अपने को विभूषित कर रखा था। उनका वाहन प्रेत था। वे उसी पर आरूढ़ हो अपने माथे पर एक सोने का भरा हुआ कलश लिये चल रही थीं। वह कलश महान् प्रभापुंज से प्रकाशित हो रहा था।
मुने! वहाँ करोड़ों दिव्य भूतगण शोभा पाते थे, जिनका रूप विकराल था। उनके रूप-रंग भी अनेक प्रकार के थे। उस समय डमरुओं के डिम-डिम घोष से, भेरियों की गड़गड़ाहट से और शंखों के गम्भीर नाद से तीनों लोक गूँज उठे थे। दुन्दुभियों की ध्वनि से महान् कोलाहल हो रहा था। वह जगत् का मंगल करता हुआ अमंगल का नाश करता था। देवता लोग शिवगणों के पीछे होकर बड़ी उत्सुकता के साथ बारात का अनुसरण करते थे। सम्पूर्ण सिद्ध और लोकपाल आदि भी देवताओं के साथ थे। देवमण्डली के मध्य-भाग में गरुड़ के आसन पर बैठकर लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु चल रहे थे। मुने! उनके ऊपर महान् छत्र तना हुआ था, जो उनकी शोभा बढ़ाता था। उन पर चँवर डुलाये जा रहे थे और वे अपने गणों से घिरे हुए थे। उनके शोभाशाली पार्षदों ने उन्हें अपने ढंग से आभूषण आदि के द्वारा विभूषित किया था। इसी प्रकार मैं भी मूर्तिमान् वेदों, शास्त्रों, पुराणों, आगमों, सनकादि महासिद्धों, प्रजापतियों, पुत्रों तथा अन्यान्य परिजनों के साथ मार्ग में चलता हुआ बड़ी शोभा पा रहा था और शिव की सेवा में तत्पर था। देवराज इन्द्र भी नाना प्रकार के आभूषणों से विभूषित हो ऐरावत हाथी पर आरूढ़ होकर अपने सेना के बीच से चलते हुए अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे। उस समय बारात के साथ यात्रा करते हुए बहुत-से ऋषि भी अपने तेज से प्रकाशित हो रहे थे। वे शिवजी का विवाह देखने के लिये बहुत उत्कण्ठित थे। शाकिनी, यातुधान, बेताल, ब्रह्मराक्षस, भूत, प्रेत, पिशाच, प्रमथ आदि गण; तुम्बुरु, नारद, हाहा और हूहू आदि श्रेष्ठ गन्धर्व तथा किंनर भी बड़े हर्ष से भरकर बाजा बजाते हुए चले। सम्पूर्ण जगन्माताएँ, सारी देवकन्याएँ, गायत्री, सावित्री, लक्ष्मी और अन्य देवांगनाएँ – ये तथा दूसरी देवपत्नियाँ जो सम्पूर्ण जगत् की माताएँ हैं, शंकरजी का विवाह है, यह सोचकर बड़ी प्रसन्नता के साथ उसमें सम्मिलित होने के लिये गयीं। वेदों, शास्त्रों, सिद्धों और महर्षियों द्वारा जो साक्षात् धर्म का स्वरूप कहा गया है तथा जिसकी अंगकान्ति शुद्ध स्फटिक के समान उज्ज्वल है, वह सर्वांग-सुन्दर वृषभ भगवान् शिव का वाहन है। धर्मवत्सल महादेवजी उस वृषभ पर आरूढ़ हो सबके साथ यात्रा करते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे। देवर्पषियों के समुदाय उनकी सेवा में उपस्थित थे। इन सब देवताओं और महर्षियों के एकत्र हुए समुदाय से महेश्वर की बड़ी शोभा हो रही थी। उनका बहुत श्रृंगार किया गया था। वे शिवा का पाणिग्रहण करने के लिये हिमालय के भवन को जा रहे थे। नारद! इस प्रकार बारात की यात्रा-सम्बन्धी उत्तम उत्सव से युक्त शम्भु का चरित्र कहा गया। अब हिमालय नगर में जो सुन्दर वृत्तान्त घटित हुआ, उसे सुनो।
(अध्याय ४०)