हिमवान् द्वारा शिव की बारात की अगवानी तथा सबका अभिनन्दन एवं वन्दन, मेना का नारदजी को बुलाकर उनसे बारातियों का परिचय पाना तथा शिव और उनके गणों को देखकर भय से मूर्च्छित होना

ब्रहमाजी कहते हैं – तदनन्तर भगवान् शिव ने नारदजी को हिमाचल के घर भेजा। वे वहाँ की विलक्षण सजावट देखकर दंग रह गये। विश्वकर्मा ने जो विष्णु, ब्रह्मा आदि समस्त देवताओं तथा नारद आदि ऋषियों की चेतन-सी प्रतीत होने वाली मूर्तियाँ बनायी थीं, उन्हें देखकर देवर्षि नारद चकित हो उठे। तत्पश्चात् हिमाचल ने देवर्षि को बारात बुला लाने के लिये भेजा। साथ ही उस बारात की अगवानी के लिये मैनाक आदि पर्वत भी गये। तदनन्तर विष्णु आदि देवताओं तथा आनन्दित हुए अपने गणों के साथ भगवान् शिव हिमालय नगर के समीप सानन्द आ पहुँचे।

गिरिराज हिमवान् ने जब यह सुना कि सर्वव्यापी शंकर मेरे नगर के निकट आ पहुँचे हैं, तब उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। तदनन्तर उन्होंने बहुत-सा सामान एकत्र करके पर्वतों और ब्राह्मणों को महादेवजी के साथ वार्तालाप करने के लिये भेजा। स्वयं भी बड़ी भक्ति के साथ वे प्राणप्यारे महेश्वर का दर्शन करने के लिये गये। उस समय उनका हृदय अधिक प्रेम के कारण द्रवित हो रहा था और वे प्रसनन्तापूर्वक अपने सौभाग्य की सराहना करते थे। उस समय समस्त देवताओं की सेना को उपस्थित देख हिमवान् को बड़ा विस्मय हुआ और वे अपने को धन्य मानते हुए उनके सामने गये। देवता और पर्वत एक-दूसरे से मिलकर बहुत प्रसन्न हुए और अपने-आपको कृतकृत्य मानने लगे। महादेवजी को सामने देखकर हिमालय ने उन्हें प्रणाम किया। साथ ही समस्त पर्वतों और ब्राह्मणों ने भी सदाशिव की वन्दना की। वे वृषभ पर आरूढ़ थे। उनके मुख पर प्रसन्नता छा रही थी। वे नाना प्रकार के आभूषणों से विभूषित और अपने दिव्य अंगों के लावण्य से पम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित कर रहे थे। इनका श्रीअंग अत्यन्त महीन, नूतन और सुन्दर रेशमी वस्त्र से सुशोभित था। उनके मस्तक का मुकुट उत्तम रत्नों से जटित होने के कारण बड़ी शोभा पा रहा था। वे अपनी पावन प्रभा का प्रसार करते हुए हँस रहे थे। उनका प्रत्येक अंग भूषण बने हुए सर्पों से युक्त था तथा उनकी अंगकान्ति बड़ी अद्भुत दिखायी देती थी। दिव्य कान्ति से सम्पन्न उन महेश्वर की सुरेश्वरगण हाथ में चँवर लिये सेवा कर रहे थे। उनके बायें भाग में भगवान् विष्णु थे और दाहिने भाग में मैं था। पीछे देवराज इन्द्र थे और अन्य देवता आदि भी पीछे तथा अगल-बगल में विद्यमान थे। नाना प्रकार के देवता आदि उन लोककल्याणकारी भगवान् शंकर की स्तुति करते जाते थे। उन्होंने स्वेच्छा से ही दिव्य शरीर धारण कर रखा था। वास्तव में वे साक्षात् परब्रह्म परमात्मा, सबके ईश्वर, उपासकों को मनोवांछित वर देने वाले, कल्याणमय गुणों से युक्त, प्राकृत गुणों से रहित, भक्तों के अधीन रहनेवाले, सब पर कृपा करनेवाले, प्रकृति और पुरुष से भी विलक्षण तथा सच्चिदानन्द स्वरूप हैं। उनके दर्शन के पश्चात् हिमवान् ने भगवान् शिव के वामभाग में अच्युत श्रीहरि का दर्शन किया, जो नाना प्रकार के आभूषणों से विभूषित हो विनतानन्दन गरुड़की पीठ पर विराजमान थे। मुने! भगवान् के दाहिने भाग में उन्होंने चार मुखों से युक्त, महाशोभाशाली तथा अपने परिवार से संयुक्त मुझ ब्रह्मा को देखा। भगवान् शिव के सदा ही अत्यन्त प्रिय इन दोनों देवेश्वरों का दर्शन कर परिवार सहित गिरिराज ने आदरपूर्वक प्रणाम किया।

इसी प्रकार भगवान् शिव के पीछे तथा अगल-बगल में खड़े हुए दीप्तिमान् देवता आदि को भी देखकर गिरिराज ने उन सबके सामने मस्तक झुकाया। तत्पश्चातू् शिवकी आज्ञा से आगे होकर हिमवान् अपने नगर को गये। उनके साथ महादेवजी, भगवान् विष्णु तथा स्वयम्भू ब्रह्मा भी मुनियों और देवताओं सहित शीकघ्रतापूर्वक चलने लगे। मुने! उस अवसर पर मेना के मन में भगवान् शिव के दर्शन की इच्छा हुई। इसलिये उन्हों तुमको बुलवाया। उस समय भगवान् शिवः से प्रेरित होकर उनका हार्दिक अभिप्राय पूर्ण करने की इच्छा से तुम वहाँ गये।

मेना तुम्हें प्रणाम करके बोलीं – मुने! गिरिजा के होनेवाले पति को पहले मैं देखूँगी। शिव का कैसा रूप है, जिनके लिये मेरी बेटी ने ऐसी उत्कृष्ट तपस्या की है।

तात! उस समय भगवान् शिव भी मेना के भीतर के अहंकार को जानकर श्रीविष्णु और मुझसे अद्भुत लीला करते हुए बोले।

शिव ने कहा – तात! आप दोनों मेरी आज्ञा से देवताओं सहित अलग-अलग होकर गिरिराज के द्वार पर चलिये। हम पीछे से आयेंगे।

यह सुनकर भगवान् श्रीहरि ने सब देवताओं को बुलाकर वैसा करने के लिये कहा। शिव के चिन्तन में तत्पर रहनेवाले समस्त देवताओं ने शीघ्र वैसी ही व्यवस्था करके उत्सुकतापूर्वक वहाँ से पृथक्-पृथक् यात्रा की। मुने! मेना अपने मकान के सबसे ऊपरी भवन में तुम्हारे साथ खड़ी थीं। उस समय भगवान् विश्वेश्वर ने अपने को ऐसी वेष-भूषा में दिखाया, जिससे मेना के हृदय को ठेस पहुँचे। सबसे पहले बारात के जुलूस में विविध वाहनों पर विराजित खूब सजे-धजे बाजे-गाजे के साथ पताकाएँ फहराते हुए वसु आदि गन्धर्व आये; फिर मणिग्रीवादि यक्ष, तदनन्तर क्रम से यमराज, निर्ॠति, वरुण, वायु, कुबेर, ईशान, देवराज इन्द्र, चन्द्रमा, सूर्य, भृगु आदि मुनीश्वर तथा ब्रह्मा आये। ये सब उत्तरोत्तर एक-से-एक विशेष सुन्दर शोभामय रूप-गुण से सम्पन्न थे। इनमें से प्रत्येक दल के स्वामी को देखकर मेना पूछती थी कि 'क्या ये ही शिव हैं?' नारदजी कहते – 'यह तो शिव के सेवक हैं।' मेना यह सुनकर बड़ी प्रसन्न होतीं और हर्ष में भरकर मन-ही-मन कहतीं – ये उनके सेवक ही जब इतने सुन्दर हैं, तब वे सबके स्वामी शिव तो पता नहीं कितने सुन्दर होंगे।

इसी बीच में वहाँ भगवान् विष्णु पधारे। वे सम्पूर्ण शोभा से सम्पन्न श्रीमान्, नूतन जलधर के समान श्याम तथा चार भुजाओं से संयुक्त थे। उनका लावण्य करोड़ों कंदर्पों को लज्जित कर रहा था। वे पीताम्बर धारण करके अपनी सहज प्रभा से प्रकाशित हो रहे थे। उनके सुन्दर नेत्र प्रफुल्ल कमल की शोभा को छीने लेते थे। उनकी आकृति से शान्ति बरस रही थी। पक्षिराज गरुड़ उनके वाहन थे। शंख, चक्र आदि लक्षणों से युक्त मुकुट आदि से विभूषित, वक्षःस्थल में श्रीवत्स का चिह्न धारण किये वे लक्ष्मीपति विष्णु अपने अप्रमेय प्रभापुंज से प्रकाशमान थे। उन्हें देखते ही मेना के नेत्र चकित हो गये। वे बड़े हर्ष से बोलीं – 'अवश्य ये ही मेरी शिवा के पति साक्षात् भगवान् शिव हैं इसमें संशय नहीं है।'

मुने! तुम भी लीला करनेवाले ही ठहरे। अतः मेना की यह बात सुनकर उनसे बोले – 'देवि! ये शिवा के पति नहीं हैं, अपितु भगवान् केशव हरि हैं। भगवान् शंकर के सम्पूर्ण कार्यों के अधिकारी तथा उनके प्रिय हैं। पार्वती के पति जो दूलह शिव हैं, उन्हें इनसे भी बढ़कर समझना चाहिये। उनकी शोभा का वर्णन मुझसे नहीं हो सकता। बे ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के अधिपति, सर्वेश्वर तथा स्वयम्प्रकाश परमात्मा हैं।'

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! तुम्हारी इस बात को सुनकर मेना ने उन शुभलक्षणा उमा को महान् धन-वैभव से सम्पन्न, सौभाग्यवती तथा तीनों कुलों के लिये सुखदायिनी माना। वे मुख पर प्रसन्नता लाकर प्रीतियुक्त हृदय से अपने सर्वाधिक सौभाग्य का बारंबार वर्णन करती हुई बोलीं।

मेना ने कहा – इस समय मैं पार्वती को जन्म देने के कारण सर्वथा धन्य हो गयी। ये गिरीश्वर भी धन्य हैं तथा मेरा सब कुछ परम धन्य हो गया। जिन-जिन अत्यन्त तेजस्वी देवताओं और देवेश्वरों का मैंने दर्शन किया है, इन सबके जो पति हैं, वे मेरी पुत्री के पति होंगे। उसके सौभाग्य का क्या वर्णन किया जाय? भगवान् शिव को पति रूप में पाने के कारण पार्वती के सौभाग्य का सौ वर्षो में भी वर्णन नहीं किया जा सकता।

ब्रहमाजी कहते हैं – नारद! मेना ने प्रेमपूर्ण हृदय से ज्यों ही उपर्युक्त बात कही, वां ही अद्भुत लीला करनेवाले भगवान् 'रुद्र सामने आ गये। तात! उनके सभी गण अद्भुत तथा मेना के अहंकार को चूर्ण करनेवाले थे। भगवान् शिव अपने-आप को माया से निर्लिप्त एवं निर्विकार दिखाते हुए वहाँ आये। मुने! उन्हें आया जान तुमने मेना को शिवा के पति का दर्शन कराते हुए उनसे इस प्रकार कहा – 'सुन्दरि! देखो, ये साक्षात् भगवान् शंकर हैं, जिनकी प्राप्ति के लिये शिवा ने वन में बड़ी भारी तपस्या की थी।'

तुम्हारे ऐसा कहने पर मेना ने बड़ी प्रसन्नता के साथ अद्भुत आकारवाले भगवान् महेश्वर की ओर देखा। वे स्वयं तो अद्भुत थे ही, उनके अनुचर भी बड़े अद्भुत थे। इतने में ही रुद्रदेव की परम अद्भुत सेना भी आ पहुँची, जो भूत-प्रेत आदि से संयुक्त तथा नाना गणों से सम्पन्न थी। उनमें से कितने ही बवंडर का रूप धारण करके आये थे। कितने ही पताका की मर्मरध्वनि के समान शब्द करते थे। किन्हीं के मुँह टेढ़े थे तो कोई अत्यन्त कुरूप दिखायी देते थे। कुछ बड़े विकराल थे। किन्हीं का मुँह दाढ़ी-मुँछ से भरा हुआ था। कोई लंगड़े थे तो कोई अंधे। कोई दण्ड और पाश धारण किये हुए थे तो किन्हीं के हाथों में मुद्गर थे। कितने ही अपने वाहनों को उलटे चला रहे थे। कोई सींग, कोई डमरू और कोई गोमुख बजाते थे, गणों में से कितने के तो मुँह ही नहीं थे। कितनों के मुख पीठ की ओर लगे थे और बहुतों के बहुतेरे मुख थे। इसी तरह कोई बिना हाथ के थे। किन्हीं के हाथ उलटे लग रहे थे और कितनों के बहुत-से हाथ थे। कितने ही नेत्रहीन थे, किन्हीं के बहुत-से नेत्र थे। किन्हीं के सिर ही नहीं थे और किन्हीं के बहुत खराब सिर थे, किन्हीं के कान ही नहीं थे और किन्हीं के बहुत-से कान थे। इस तरह सभी गण नाना प्रकार की वेश-भूषा धारण किये हुए थे। तात! वे विकृत आकारवाले अनेक प्रबल गण बड़े वीर और भयंकर थे। उनकी कोई संख्या नहीं थी। मुने! तुमने अँगुली द्वारा रुद्रणणों को दिखाते हुए मेना से कहा – 'वरानने! तुम पहले भगवान् हर के सेवकों को देखो, फिर उनका भी दर्शन करना।' उन असंख्य भूत-प्रेत आदि गणों को देखकर मेना तत्काल भय से व्याकुल हो गयीं। उन्हीं के बीच में भगवान् शंकर भी थे, जो निर्गुण होते हुए भी परम गुणवान् थे। वे वृषभ पर सवार थे। उनके पाँच मुख थे और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र। उनके सारे अंगों में विभूति लगी हुई थी, जो उनके लिये भूषण का काम देती थी। मस्तक पर जटाजूट और चन्द्रमा का मुकुट, दस हाथ और उनमें से एक में कपाल लिये, शरीर पर बाघंबर का दुपट्टा और हाथ में पिनाक एवं त्रिशूल, आँखें भयानक, आकृति विकराल और हाथी की खाल का वस्त्र! यह सब देखकर शिवा की माता बहुत डर गयीं, चकित हो गयीं, व्याकुल होकर काँपने लगीं और उनकी बुद्धि चकरा गयी। उस अवस्था में तुमने अँगुली से दिखाते हुए उनसे कहा – 'ये ही हैं भगवान् शिव।' तुम्हारी यह बात सुनकर सती मेना दुःख से भर गयीं और हवा के झोंके खाकर गिरी हुई लता के समान तुरंत भूमि पर गिर पड़ीं। 'यह कैसा विकृत दृश्य है? मैं दुराग्रह में पड़कर ठगी गयी।' यों कहकर मेना उसी क्षण मूर्च्छित हो गयीं। तदनन्तर सखियों ने जब नाना प्रकार के उपाय करके उनकी समुचित सेवा की, तब गिरिराजप्रिया मेना धीरे-धीरे होश में आयीं।

(अध्याय ४१ - ४३)