मेना का विलाप, शिव के साथ कन्या का विवाह न करने का हठ, देवताओं तथा श्रीविष्णु का उन्हें समझाना तथा उनका सुन्दर रूप धारण करने पर ही शिव को कन्या देने का विचार प्रकट करना

ब्रहमाजी कहते हैं – नारद! जब हिमाचलप्रिया सती मेना को चेत हुआ, तब वे अत्यन्त क्षुब्ध होकर विलाप एवं तिरस्कार करने लगीं। पहले तो उन्होंने अपने पुत्रों की निन्दा की, इसके बाद वे तुम्हें और अपनी पुत्री को दुर्वचन सुनाने लगीं।

मेना बोलीं – मुने! पहले तो तुमने यह कहा कि 'शिवा शिव का वरण करेगी', पीछे मेरे पति हिमवान् का कर्तव्य बताकर उन्हें आराधना-पूजा में लगाया। परंतु इसका यथार्थ फल क्या देखा गया? विपरीत एवं अनर्थकारी! दुर्बुद्धि देवर्षे। तुमने मुझ अधम नारी को सब तरह से ठग लिया। फिर मेरी बेटी ने ऐसा तप किया, जो मुनियों के लिये भी दुष्कर है; उसकी उस तपस्या का यह फल मिला, जो देखनेवालों को भी दुःख में डालता है। हाय! मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, कौन मेरे दुःख को दूर करेगा? मेरा कुल आदि नष्ट हो गया, मेरे जीवन का भी नाश हो गया। कहाँ गये वे दिव्य ऋषि? पाऊँ तो मैं उनकी दाढ़ी-मूँछ नोच लूँ। वसिष्ठ की वह तपस्विनी पत्नी भी बड़ी धूर्ता है, वह स्वयं इस विवाह के लिये अगुआ बनकर आयी थी। न जाने किन-किन के अपराध से इस समय मेरा सब कुछ लुट गया।

ऐसा कहकर मेना अपनी पुत्री शिवा की ओर देखकर उन्हें कटुवचन सुनाने लगीं – 'अरी दुष्ट लड़की! तूने यह कौन-सा कर्म किया, जो मेरे लिये दुःखदायक सिद्ध हुआ? तुझ दुष्टा ने स्वयं ही सोना देकर काँच खरीदा है, चन्दन छोड़कर अपने अंगों में कीचड़ का ढेर पोत लिया! हाय! हाय! हंस को उड़ाकर तूने पिंजड़े में कौआ पाल लिया। गंगाजल को दूर फेंककर कुँए का जल पीया। प्रकाश पाने की इच्छा से सूर्य को छोड़कर यत्नपूर्वक जुगनू को पकड़ा। चावल छोड़कर भूसी खा ली। घी फेंककर मोम के तेल का आदरपूर्वक भोग लगाया। सिंह का आश्रय छोड़कर सियार का सेवन किया। ब्रह्मविद्या छोड़कर कुत्सित गाथा का श्रवण किया। बेटी! तूने घर में रखी हुई यश की मंगलमयी विभूति को दूर हटाकर चिता की अमंगलमयी राख अपने पल्ले बाँध ली; क्योंकि समस्त श्रेष्ठ देवताओं और विष्णु आदि परमेश्वरोंको छोड़कर अपनी कुबुद्धि के कारण शिव को पाने के लिये ऐसा तप किया? तुझको, तेरी बुद्धि को, तेरे रूप को और तेरे चरित्र को भी बारंबार धिक्कार है। तुझे तपस्या का उपदेश देने वाले नारद को तथा तेरी सहायता करने वाली दोनों सखियों को भी धिक्कार है। बेटी! हम दोनों माता-पिता को भी धिककार है, जिन्होंने तुझे जन्म दिया। नारद! तुम्हारी बुद्धि को भी धिक्कार है। सुबुद्धि देने वाले उन सप्तर्षियों को भी धिक्कार है। तुम्हारे कुल को धिक्कार है। तुम्हारी क्रिया-दक्षता को भी धिक्कार है तथा तुमने जो कुछ किया, उस सबको धिक्कार है। तुमने तो मेरा घर ही जला दिया। यह तो मेरा मरण ही है। ये पर्वतों के राजा आज मेरे निकट न आयें। सप्तर्षि लोग स्वयं मुझे अपना मुँह न दिखायें। इन सबने मिलकर क्या साधा? मेरे कुल का नाश करा दिया। हाय! मैं बाँझ क्यों नहीं हो गयी? मेरा गर्भ क्यों नहीं गल गया? मैं अथवा मेरी पुत्री ही क्यों नहीं मर गयी? अथवा राक्षस आदि ने भी आकाश में ले जाकर इसे क्यों नहीं खा डाला? पार्वती! आज मैं तेरा सिर काट डालूँगी, परंतु ये शरीर के टुकड़े लेकर क्या करूँगी? हाय! हाय! तुझे छोड़कर कहाँ चली जाऊँ? मेरा तो जीवन ही नष्ट हो गया!

ब्रहमाजी कहते हैं – नारद! यह कहकर मेना मूर्च्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ीं। शोक-रोष आदि से व्याकुल होने के कारण वे पति के समीप नहीं गयीं। देवर्षे! उस समय सब देवता क्रमशः उनके निकट गये। सबसे पहले मैं पहुँचा। मुनिश्रेष्ठ! मुझे देखकर तुम स्वयं मेना से बोले।

नारद ने कहा – पतिव्रते! तुम्हें पता नहीं है, वास्तव में भगवान् शिव का रूप बड़ा सुन्दर है। उन्होंने लीला से ऐसा रूप धारण कर लिया है, यह उनका यथार्थ रूप नहीं है। इसलिये तुम क्रोध छोड़कर स्वस्थ हो जाओ। हठ छोड़कर विवाह का कार्य करो और अपनी शिवा का हाथ शिव के हाथों में दे दो। तुम्हारी यह बात सुनकर मेना तुमसे बोलीं – 'उठो, यहाँ से दूर चले जाओ। तुम दुष्टों और अधमों के शिरोमणि हो।' मेना के ऐसा कहने पर मेरे साथ इन्द्र आदि सब देवता एवं दिक्पाल क्रमशः आकर यों बोले – 'पितरों की कन्या मेने! तुम हमारे वचनों को प्रसनन्नतापूर्वक सुनो। ये शिव निश्चय ही सबसे उत्कृष्ट देवता हैं और सबको उत्तम सुख देने वाले हैं। आपकी पुत्री के अत्यन्त दुस्सह तप को देखकर इन भक्तवत्सल प्रभु ने कृपापूर्वक उन्हें दर्शन और श्रेष्ठ वर दिया था।'

यह सुनकर मेना ने देवताओं से बारंबार अत्यन्त विलाप करके कहा – 'शिव का रूप बड़ा भयंकर है, मैं उन्हें अपनी पुत्री नहीं दूँगी। आप सब देवता प्रपंच करके क्यों मेरी इस कन्या के उत्कृष्ट रूप को व्यर्थ करने के लिये उद्यत हैं?'

मुनीशवर! उनके ऐसा कहने पर वसिष्ठ आदि सप्तर्षियों ने वहाँ आकर यह बात कही – पितरों की कन्या तथा गिरिराज की रानी मेने! हम लोग तुम्हारा कार्य सिद्ध करने के लिये आये हैं। जो कार्य सर्वथा उचित और उपयोगी है, उसे तुम्हारे हठ के कारण हम विपरीत कैसे मान लें? भगवान् शंकर का दर्शन सबसे बड़ा लाभ है। वे दानपात्र होकर स्वयं तुम्हारे घर पधारे हैं।'

उनके ऐसा कहने पर भी ज्ञानदुर्बला मेना ने उनकी बात मिथ्या कर दी और रुष्ट होकर उनसे कहा – 'मैं शस्त्र आदि से अपनी बेटी के टुकड़े-टुकड़े कर डालूँगी, परंतु उसे शंकर के हाथ में नहीं दूँगी, तुम सब लोग दूर हट जाओ, किसी को मेरे पास नहीं आना चाहिये।'

ऐसा कह अत्यन्त विहव्ल हो विलाप करके मेना चुप हो गयीं। मुने! वहाँ उनके इस बर्ताव से हाहाकार मच गया। तब हिमालय अत्यन्त व्याकुल हो वहाँ आये और मेना को समझाने के लिये प्रेमपूर्वक तत्त्व दर्शाते हुए बोले।

हिमालय ने कहा – प्रिये मेने! मेरी बात सुनो, तुम इतनी व्याकुल क्यों हो गयी? देखो तो, कौन-कौन-से महात्मा तुम्हारे घर पधारे हैं। तुम इनकी निन्दा क्यों करती हो? भगवान् शंकर को तुम भी जानती हो, किंतु नाना नामरूपवाले शम्भु के विकट रूप को देखकर घबरा गयी हो। मैं शंकरजी को भलीभाँति जानता हूँ। वे ही सबके प्रतिपालक हैं, पूजनीयों के भी पूजनीय हैं तथा अनुग्रह एवं निग्रह करनेवाले हैं। निष्पाप प्राणप्रिये! हठ न करो, मानसिक दुःख छोड़ो। सुव्रते! शीघ्र उठो और सब कार्य करो। पहली बार विकटरूपधारी शम्भु ने मेरे द्वार पर आकर जो नाना प्रकार की लीलाए की थीं, मैं उनका आज तुम्हें स्मरण दिला रहा हूँ। उनके उस परम माहात्म्य को देख और समझकर उस समय मैंने और तुमने उन्हें कन्या देना स्वीकार किया था। प्रिये! अपनी उस बात को प्रमाण मानकर सार्थक करो।

इस बात को सुनकर शिवा की माता मेना हिमालय से बोलीं – नाथ! मेरी बात सुनिये और सुनकर आपको वैसा ही करना चाहिये। आप अपनी पुत्री पार्वती के गले में रस्सी बाँधकर इसे बेखटके पर्वत से नीचे गिरा दीजिये, परंतु मैं इसे हर के हाथ में नहीं दूँगी। अथवा नाथ! अपनी इस बेटी को ले जाकर निर्दयतापूर्वक समुद्र में डुबा दीजिये। गिरिराज! ऐसा करके आप पूर्ण सुखी हो जाइये। स्वामिन्! यदि विकटरूपधारी रूद्र को आप पुत्री दे देंगे तो मैं निश्चय ही अपना शरीर त्याग दूँगी।

मेना ने जब हठपूर्वक ऐसी बात कही, तब पार्वती स्वयं आकर यह रमणीय वचन बोलीं 'माँ! तुम्हारी बुद्धि तो बड़ी शुभकारक है। इस समय विपरीत कैसे हो गयी? धर्म का अवलम्बन करने वाली होकर भी तुम धर्म को कैसे छोड़ रही हो? ये रुद्रदेव सबकी उत्पत्ति के कारणभूत साक्षात् ईश्वर हैं, इनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। समस्त श्रुतियों में यह वर्णन है कि भगवान् शम्भु सुन्दर रूप वाले तथा सुखद हैं। कल्याणकारी महेश्वर समस्त देवताओं के स्वामी तथा स्वयंप्रकाश हैं। इनके नाम और रूप अनेक हैं। माताजी! श्रीविष्णु और ब्रह्मा आदि भी इनकी सेवा करते हैं। ये सबके अधिष्ठान हैं, कर्ता, हर्ता और स्वामी हैं। विकारों की इन तक पहुँच नहीं है। ये तीनों देवताओं के स्वामी, अविनाशी एवं सनातन हैं। इनके लिये ही सब देवता किंकर होकर तुम्हारे द्वार पर पधारे हैं और उत्सव मना रहे हैं। इससे बढ़कर सुख की बात और क्या हो सकती है। अतः यत्नपूर्वक उठो और जीवन सफल करो। मुझे शिव के हाथ में सौंप दो और अपने गृहस्थाश्रम को सार्थक करो। माँ! मुझे परमेश्वर शंकर की सेवा में दे दो। मैं स्वयं तुमसे यह बात कहती हूँ। तुम मेरी इतनी-सी ही विनती मान लो। यदि तुम इनके हाथ में मुझे नहीं दोगी तो मैं दूसरे किसी वर का वरण नहीं करूँगी; क्योंकि जो सिंह का भाग है, उसे दूसरों को ठगनेवाला सियार कैसे पा सकता है? माँ! मैंने मन, वाणी और क्रिया द्वारा स्वयं हर का वरण किया है, हरका ही वरण किया है। अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वह करो।

ब्रहमाजी कहते हैं – नारद! पार्वती को यह बात सुनकर शैलेश्वरप्रिया मेना बहुत ही उत्तेजित हो गयीं और पार्वती को डाँटती हुई दुर्वचन कहकर रोने तथा विलाप करने लगीं। तदनन्तर स्वयं मैंने तथा सनकादि सिद्धों ने भी मेना को बहुत समझाया। परंतु वे किसी की बात न मानकर सबको डाँटती रहीं। इसी बीच में उनके सुदृढ़ एवं महान् हठ की बात सुनकर शिवप्रिय भगवान् विष्णु भी तुरंत वहाँ आ पहुँचे और इस प्रकार बोले।

श्रीविष्णु ने कहा – देवि! तुम पितरों को मानसी पुत्री एवं उन्हें बहुत ही प्यारी हो; साथ ही गिरिराज हिमालय की गुणवती पत्नी हो। इस प्रकार तुम्हारा सम्बन्ध साक्षात् ब्रह्माजी के उत्तम कुल से है। संसार में तुम्हारे सहायक भी ऐसे ही हैं। तुम धन्य हो। में तुमसे क्या कहूँ? तुम तो धर्म की आधारभूता हो, फिर धर्म का त्याग कैसे करती हो? तुम्हीं अच्छी तरह सोचो तो सही। सम्पूर्ण देवता, ऋषि, ब्रह्माजी और मैं – सभी लोग विपरीत बात ही क्यों कहेंगे? तुम शिव को नहीं जानती। वे निर्गुण भी हैं और सगुण भी हैं। कुरूप भी हैं और सुरूप भी। सबके सेव्य तथा सत्पुरुषों के आश्रय हैं। उन्हींने मूल प्रकृतिरूपा देवी ईश्वरी का निर्माण किया और उसके बगल में पुरुषोत्तम का निर्माण करके बिठाया। उन्हीं दोनों से सगुण-रूप में मेरी तथा ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। फिर लोकों का हित करने के लिये वे स्वयं भी रुद्र-रूप से प्रकट हुए। तदनन्तर वेद, देवता तथा स्थावर जंगम रूप से जो कुछ दिखायी देता है, वह सारा जगत् भी भगवान् शंकर से ही उत्पन्न हुआ। उनके रूप का ठीक-ठीक वर्णन अब तक कौन कर सका है? अथवा कौन उनके रूप को जानता है? मैंने और ब्रह्माजी ने भी जिनका अन्त नहीं पाया, उनका पार दूसरा कौन पा सकता है? ब्रह्मा से लेकर कीटपर्यन्त जो कुछ जगत् दिखायी देता है, वह सब शिव का ही रूप है – ऐसा जानो। इस विषय में कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। वे ही अपनी लीला से ऐसे रूप में अवतीर्ण हुए हैं और शिवा के तप के प्रभाव से तुम्हारे द्वार पर आये हैं। अतः हिमाचल की पत्नी! तुम दुःख छोड़ो और शिव का भजन करो। इससे तुम्हें महान् आनन्द प्राप्त होगा और तुम्हारा सारा क्लेश मिट जायगा।

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! श्रीविष्णु के द्वारा इस प्रकार समझायी जाने पर मेना का मन कुछ कोमल हुआ। परंतु शिव को कन्या न देने का हठ उन्होंने तब भी नहीं छोड़ा। शिव की माया से मोहित होने के कारण ही उन्होंने ऐसा दुराग्रह किया था। उस समय मेना ने शिव के महत्त्व को स्वीकार कर लिया। कुछ ज्ञान हो जाने पर उन्होंने श्रीहरि से कहा – 'यदि भगवान् शिव सुन्दर शरीर धारण कर लें, तब में उन्हें अपनी पुत्री दे सकती हूँ; अन्यथा कोटि उपाय करने पर भी नहीं दूँगी। यह बात मैं सचाई और दृढ़ता के साथ कह रही हूँ।'

ऐसा कहकर दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाली मेना शिव को इच्छा से प्रेरित हो चुप हो गयीं। धन्य है शिव की माया, जो सबको मोह में डाल देती है!

(अध्याय ४४)