मेना द्वारा द्वार पर भगवान् शिव का परिछन, उनके रूप को देखकर संतोष का अनुभव, अन्यान्य युवतियों द्वारा वर की प्रशंसा, पार्वती का अम्बिका-पूजन के लिये बाहर निकलना तथा देवताओं और भगवान् शिव का उनके सुन्दर रूप को देखकर प्रसन्न होना

ब्रहमाजी कहते हैं – नारद! तदनन्तर भगवान् शिव प्रसन्नचित्त हो अपने गणों, समस्त देवताओं तथा अन्य लोगों के साथ कौतूहलपूर्वक गिरिराज हिमवान् के धाम में गये। हिमाचल की श्रेष्ठ पत्नी मेना भी उन स्त्रियों के साथ घर के भीतर गयीं और शम्भु की आरती उतारने के लिये हाथ में दीपकों से सजी हुई थाली लेकर सभी ऋषिपत्नियों तथा अन्य स्त्रियों के साथ आदरपूर्वक द्वार पर आयीं। वहाँ आकर मेना ने सम्पूर्ण देवताओं से सेवित गिरिजापति महेश्वर शंकर को, जो द्वार पर उपस्थित थे, बड़े प्यार से देखा। उनकी अंगकान्ति मनोहर चम्पा के समान थी। उनके एक मुख और तीन नेत्र थे। प्रसन्न मुखारविन्द पर मन्द मुसकान की छटा छा रही थी। वे रत्न और सुवर्ण आदि से विभूषित थे। गले में मालती की माला पहने पहने हुए थे। सुन्दर रत्नमय मुकुट धारण करने से उनका मुखमण्डल उज्ज्वल प्रभा से उद्भासित हो रहा था। कण्ठ में हार आदि सुन्दर आभरण शोभा दे रहे थे। सुन्दर कड़े और बाजूबंद उनकी भुजाओं को विभूषित कर रहे थे। अग्नि के समान निर्मल एवं अनुपम अत्यन्त सूक्ष्म, मनोहर, विचित्र एवं बहुमूल्य युगल वस्त्र से उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। चन्दन, अगर, कस्तूरी तथा मनोहर कुंकुम के अंगराग से उनके अंग विभूषित थे। उन्होंने हाथमें रत्नमय दर्पण ले रखा था और उनके दोनों नेत्र कज्जल से सुशोभित थे। उन्होंने अपनी प्रभा से सबको आच्छादित कर लिया था तथा वे अत्यन्त मनोहर जान पड़ते थे। अत्यन्त तरुण, परम सुन्दर और आभरण-भूषित अंगों से सुशोभित थे। कामिनियों को अत्यन्त कमनीय प्रतीत होते थे। उनमें व्यग्रता का अभाव था। उनका मुखारविन्द कोटि चन्द्रमाओं से भी अधिक आह्लाददायक था। उनके श्रीअंगों की छवि कोटि कामदेवों से भी अधिक मनोहारिणी थी। वे अपने सभी अंगों से परम सुन्दर थे। ऐसे सुन्दर रूप वाले उत्कृष्ट देवता भगवान् शिव को जामाता के रूप में अपने सामने खड़ा देख मेना की सारी शोक-चिन्ता दूर हो गयी। वे परमानन्दसिन्धु में निमग्न हो गयीं और अपने भाग्य की, गिरिजा की, गिरिराज हिमवान् की और उनके समस्त कुल की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगीं। उन्होंने अपने-आप को कृतार्थ माना और वे बारंबार हर्ष का अनुभव करने लगीं। सती मना का मुख प्रसन्नता से खिल उठा था। वे अपने दमद की शोभा का सानन्द अवलोकन करती हुई उनकी आरती उतारने लगीं। गिरिजा की कही हुई बात को बारंबार याद करके मेना को बड़ा विस्मय हो रहा था। वे हर्षोत्फुल्ल मुखारविन्द से युक्त हो मन-ही-मन यों कहने लगीं – पार्वती ने मुझसे पहले जैसा बताया था, उससे भी अधिक सौन्दर्य मैं इन परमेश्वर शिव के अंगों में देख रही हूँ। महेश्वर का मनोहर लावण्य इस समय अवर्णनीय है।' ऐसा सोचकर आश्चर्यचकित हुई मेना अपने घर के भीतर आयीं।

वहाँ आयी हुई युवतियों ने भी वर के मनोहर रूप की भूरि-भूरि प्रशंसा की। वे बोलीं – 'गिरिराजनन्दिनी शिवा धन्य हैं, धन्य हैं।' कुछ कन्याएँ कहने लगीं – 'दुर्गा तो साक्षात् भगवती हैं।' कुछ दूसरी कन्याएँ महारानी मेना से बोलीं – 'हमने तो कभी ऐसा वर नहीं देखा है और न कभी ध्यान में ही ऐसे वर का अवलोकन किया है। इन्हें पाकर गिरिजा धन्य हो गयी।' भगवान् शंकर का वह रूप देखकर समस्त देवता हर्ष से खिल उठे। श्रेष्ठ गन्धर्व उनका यश गाने लगे और अप्सराएँ नृत्य करने लगीं। बाजा बजाने वाले लोग मधुर ध्वनि में अनेक प्रकार की कला दिखाते हुए आदरपूर्वक भाति-भाँति के बाजे बजा रहे थे। हिमाचल ने भी आनन्दित होकर द्वारोचित मंगलाचार किया। समस्त नारियों के साथ मेना ने भी महान् उत्सव मनाते हुए वर का परिछन किया। फिर दे प्रसन्नतापूर्वक घर में चली गयीं। इसके बाद भगवान् शिव अपने गणों और देवताओं के साथ अपने को दिये गये स्थान (जनवासे) में चले गये।

इसी बीच में गिरिराज के अन्तःपुर की स्त्रियाँ दुर्ग को साथ ले कुल देवी की पूजा के लिये बाहर निकलीं। वहाँ देवताओं ने, जिनकी पलकें कभी नहीं गिरती थीं, प्रसन्नतापूर्वक पार्ववी को देखा। उनकी अंगकान्ति नील अंजन के समान थी। वे अपने मनोहर अंगों से ही विभूषित थीं। उनका कटाक्ष केवल भगवान् त्रिलोचन पर ही आदरपूर्वक पड़ता था। दूसरे किसी पुरुष की ओर उनके नेत्र नहीं जाते थे। उनका प्रसन्न मुख मन्द मुसकान से सुशोभित था। वे कटाक्षपूर्ण दृष्टि से देखती थीं और बड़ी मनोहारिणी जान पड़ती थीं। उनके केशों की चोटी बड़ी ही सुन्दर थी। कपोलों पर बनी हुई मनोहर पत्रभंगी उनकी शोभा बढ़ाती थी। ललाट में कस्तूरी की बिंदी के साथ ही सिन्दूर की बिंदी शोभा दे रही थी। वक्षःस्थल पर श्रेष्ठ रत्नों के सारभूत हार से दिव्य दीप्ति छिटक रही थी। रत्नों के बने हुए केयूर, वलय और कंकण से उनकी भुजाएं अलंकृत थीं। उत्तम रत्नमय कुण्डलों से उनके मनोहर कपोल जगमगा रहे थे। उनकी दन्तपंक्ति मणियों तथा रत्नों की प्रभा को छीने लेती थी और मुख की शोभा बढ़ाती थी। मधु से पूरित अधर और ओष्ठ बिम्बफल के समान लाल थे। दोनों पैरों में रत्नों की आभा से युक्त महावर शोभा देता था। उन्होंने अपने एक हाथ में रत्नजटित दर्पण ले रखा था और उनका दूसरा हाथ क्रीडाकमल से सुशोभित था। उनके अंगों में चन्दन, अगर, कस्तूरी और कुंकुम का अंगराग लगा हुआ था। पैरों में पायजेब बज रहे थे और वे अपने लाल-लाल तलुओं के कारण बड़ी शोभा पा रही थीं। समस्त देवता आदि ने जगत् की आदिकारणभूता जगज्जननी पार्वती देवी को देखकर भक्तिभाव से मस्तक झुका मेना सहित उन्हें प्रणाम किया। त्रिलोचन शिव ने भी बड़ी प्रसन्नता के साथ कनखियों से उन्हें देखा और उनमें सती की आकृति देखकर अपनी विरह-वेदना को त्याग दिया। शिवा पर आँखें गड़ाकर भगवान् शिव उस समय सब कुछ भूल गये। उनके सारे अंगों में रोमांच हो आया। वे हर्ष का अनुभव करते हुए गौरी की ओर देखने लगे। गौरी उनकी आँखों में समा गयी थीं।

इधर काली पुरी से बाहर जाकर अम्बिका देवी की पूजा करने के पश्चात् ब्राह्मणपत्नियों के साथ पुनः अपने पिता के रमणीय भवन में लौट आयीं। भगवान् शंकर भी मुझ ब्रह्मा, विष्णु तथा देवताओं के साथ हिमाचल के बताये हुए अपने नियत स्थान पर प्रसनन्नतापूर्वक गये। वहाँ गिरिराज के द्वारा नाना प्रकार की सुन्दर समृद्धि से सम्मानित हुए वे सब लोग सुखपूर्वक ठहर गये और भगवान् शिव की सेवा करने लगे।

(अध्याय ४६)