वरपक्ष के आभूषणों से विभूषित शिवा की नीराजना, कन्यादान के समय वर के साथ सब देवताओं का हिमाचल के घर के आँगन में विराजना तथा वर-वधू के द्वारा एक-दूसरे का पूजन
ब्रहमाजी कहते हैं – नारद! तदनन्तर साथ गिरिश्रेष्ठ हिमवान् ने प्रसन्नता और उत्साह के साथ वेदमन्त्रों द्वारा दुर्गा और शिव का उपस्नान करवाया। तत्पश्चात् गिरिराज को प्रार्थना से श्रीविष्णु आदि देवता तथा मुनि कौतूहलपूर्वक उनके घर के भीतर गये। वहाँ उन्होंने वैदिक और लौकिक आचार का यथार्थ रीति से पालन करके भगवान् शिव के दिये हुए आभूषणों से देवी शिवा को अलंकृत किया। सखियों और ब्राह्मण की पत्नियों ने पहले पार्वती को स्नान करवाया, फिर सब प्रकार से वस्त्राभूषणों द्वारा विभूषित करके उनकी आरती उतारी। तीनों लोकों की जननी महाशैलपुत्री सुन्दरी शिवा दिव्य वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर मन-ही-मन भगवान् शिव का ध्यान करती हुई वहीं बैठीं। उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। उस अवसर पर दोनों पक्षों में महान् आनन्ददायक उत्सव होने लगा। ब्राह्मणों को शास्त्रोक्त रीति से नाना प्रकार का दान दिया गया। अन्य लोगों को भी वहाँ भाँति-भाँति के बहुत-से द्रव्य बाँटे गये। विशेष उत्सव के साथ गीत और वाद्य आदि के द्वारा लोगों का मनोरंजन किया गया। तदनन्तर मैं ब्रह्मा, भगवान् विष्णु, इन्द्र आदि देवता तथा मुनि – ये सब-के-सब बड़ी प्रसन्नता के साथ सानन्द उत्सव मनाते हुए भक्तिभाव से शिवा को प्रणाम कर शिव के चरणारविन्दों के चिन्तन-पूर्वक हिमाचल की आज्ञा ले अपने-अपने स्थान पर चले गये।
इसके बाद गर्ग ने कन्यादान का समय जान हिमाचल से श्रीशंकर तथा बरातियों को बुलाने के लिये कहा। फिर तो बाजे बजने लगे। हिमाचल के मन्त्रियों ने जाकर वर और बरातियों से शीघ्र पधारने के लिये प्रार्थना की। वे बोले – 'कन्यादान के लिये उचित समय आ गया है। अतः आप लोग शीघ्र मण्डप में पधारें।' तदनन्तर भगवान् शिव को सुन्दर वस्त्राभूषणों से सुसज्जित करके वृषभ की पीठ पर बिठाया गया और जय बोलते हुए सब लोग चले। भगवान् शंकर को आगे करके बाजे बजाते और कौतुक करते हुए सब बराती हिमालय के घर को गये। हिमाचल के भेजे हुए ब्राह्मण तथा श्रेष्ठ पर्वत कौतूहलपूर्वक शम्भु के आगे-आगे चलते थे। भगवान् के मस्तक पर बहुत बड़ा छत्र तना हुआ था। सब ओर से उन्हें चंवर डुलाया जाता था तथा वे महेश्वर चँदोवे के नीचे होकर चलते थे। मैं, विष्णु, इन्द्र और लोकपाल आगे रहकर उत्तम शोभा से सुशोभित हो रहे थे। उस महान् उत्सव के समय शंख, भेरी, पटह, आनक और गोमुख आदि बाजे बारंबार बज रहे थे। इन सबके साथ जगत् के एकमात्र जीवनबन्धु भगवान् शिव परमेश्वरोचित तेज से सम्पन्न हो यात्रा कर रहे थे। उस समय समस्त देवेश्वर उनकी सेवा में उपस्थित हो बड़े हर्षोल्लास के साथ उन पर फूलों की वर्षा करते थे। इस प्रकार पूजित और बहुत-सी स्तुतियों द्वारा प्रशंसित हो परमेश्वर शिव ने यज्ञमण्डप में प्रवेश किया। वहाँ श्रेष्ठ पर्वतों ने शिव को वृषभ से उतारा और महान् उत्सव के साथ प्रेमपूर्वक उन्हें घर के भीतर ले गये। हिमालय ने भी घर में आये हुए देवताओं सहित महेश्वर को विधिपूर्वक भक्तिभाव से प्रणाम करके उनकी आरती उतारी। फिर महान् उत्सवपूर्वक अपने भाग्य की सराहना करते हुए उन्होंने अन्य समस्त देवताओं और मुनियों को प्रणाम करके उन सबका समादर किया। श्रीविष्णु सहित महेश्वर को तथा मुख्य-मुख्य देवताओं को पाद्य-अर्ध्य देकर हिमालय उन्हें अपने भवन के भीतर ले गये और आँगन में रत्नमय सिंहासनों के ऊपर मुझको, विष्णु को, शंकरजी को तथा अन्य विशिष्ट व्यक्तियों को बिठाया। उस समय मेना ने अपनी सखियों, ब्राह्मणपत्नियों तथा अन्य पुरन्ध्रियों के साथ आकर सानन्द आरती उतारीं। कर्मकाण्ड के ज्ञाता पुरोहित महात्मा शंकर के लिये मधुपर्क-पूजन आदि जो-जो आवश्यक कृत्य थे, उन सबको सहर्ष सम्पन्न किया। फिर मेरे कहने से पुरोहित ने प्रस्ताव के अनुरूप उत्तम मंगलमय कार्य आरम्भ किया।
इसके बाद हिमालय ने अन्तर्वेदी में जहाँ समस्त आभूषणों से विभूषित उनकी कृशांगी कन्या वेदी के ऊपर विराजमान थी, वहाँ मेरे और श्रीविष्णु के साथ महादेवजी को ले गये। तदनन्तर बृहस्पति आदि विद्वान बड़े उत्साह से सम्पन्न हो कन्यादानोचित लग्न की प्रतीक्षा करने लगे। गर्ग ने पुण्याहवाचन करते हुए पार्वतीजी की अंजलि में चावल भरे और शिवजी के ऊपर अक्षत छोड़ा। परम उदार सुमुखी पार्वती ने दही, अक्षत, कुश और जल से वहाँ रुद्रदेव का पूजन किया। जिनके लिये शिवा ने बड़ी भारी तपस्या की थी, उन भगवान् शिव को बड़े प्रेम से देखती हुई वे वहाँ अत्यन्त शोभा पा रही थीं। फिर मेरे और गर्गादि मुनियों के कहने से शम्भु ने लोकाचारवश शिवा का पूजन किया। इस प्रकार परस्पर पूजन करते हुए वे दोनों जगन्मय पार्वती-परमेश्वर वहाँ सुशोभित हो रहे थे। त्रिभुवन की शोभा से सम्पन्न हो परस्पर देखते हुए उन दोनों दम्पति की लक्ष्मी आदि देवियों ने विशेष रूप से आरती उतारीं।
(अध्याय ४७)