शिव-पार्वती के विवाह का आरम्भ, हिमालय के द्वारा शिव के गोत्र के विषय में प्रश्न होने पर नारदजी के द्वारा उत्तर, हिमालय का कन्यादान करके शिव को दहेज देना तथा शिवा का अभिषेक
ब्रहमाजी कहते हैं – नारद! इसी समय वहाँ गर्गाचार्य से प्रेरित हो मेना सहित हिमवान् ने कन्यादान का कार्य आरम्भ किया। उस समय वस्त्राभूषणों से विभूषित महाभागा मेना सोने का कलश लिये पति हिमवान् के दाहिने भाग में बैठीं। तत्पश्चात् पुरोहित सहित हर्ष से भरे हुए शैलराज ने पाद्य आदि के द्वारा वर का पूजन करके वस्त्र, चन्दन और आभूषणों द्वारा उनका वरण किया। इसके बाद हिमाचल ने ब्राह्मणों से कहा – 'आप लोग तिथि आदि के कीर्तनपूर्वक कन्यादान के संकल्पवाक्य का प्रयोग बोलें। उसके लिये अवसर आ गया है।' वे सब द्विज श्रेष्ठ काल के ज्ञाता थे। अतः 'तथास्तु' कहकर वे सब बड़ी प्रसन्नता के साथ तिथि आदि का कीर्तन करने लगे। तदनन्तर सुन्दर लीला करनेवाले परमेश्वर शम्भु के द्वारा मन-ही-मन प्रेरित हो हिमाचल ने प्रसन्नतापूर्वक हँसकर उनसे कहा – 'शम्भो! आप अपने गोत्र का परिचय दें। प्रवर, कुल, नाम, वेद और शाखा का प्रतिपादन करें। अब अधिक समय न बितायें।'
हिमाचल की यह बात सुनकर भगवान् शंकर सुमुख होकर भी विमुख हो गये। अशोचनीय होकर भी तत्काल शोचनीय अवस्था में पड़ गये। उस समय श्रेष्ठ देवताओं, मुनियों, गन्धर्वों, यक्षों और सिद्धों ने देखा कि भगवान् शिव के मुख से कोई उत्तर नहीं निकल रहा है। नारद! यह देखकर तुम हँसने लगे और महेश्वर का मन-ही-मन स्मरण करके गिरिराज से यों बोले।
नारद ने कहा – पर्वतराज! तुम मूढ़ता के वशीभूत होकर कुछ भी नहीं जानते! महेश्वर से क्या कहना चाहिये और क्या नहीं, इसका तुम्हें पता नहीं है। वास्तव में तुम बड़े बहिर्मुख हो। तुमने इस समय साक्षात् हर से उनका गोत्र पूछा है और उसे बताने के लिये उन्हें प्रेरित किया है। तुम्हारी यह बात अत्यन्त उपहासजनक है। पर्वतराज! इनके गोत्र, कुल और नाम को तो विष्णु और ब्रह्म आदि भी नहीं जानते, फिर दूसरों की क्या चर्चा है? शैलराज! जिनके एक दिन में करोड़ों ब्रह्माओं का लय होता है, उन्हीं भगवान् शंकर को तुमने आज काली के तपोबल से प्रत्यक्ष देखा है। इनका कोई रूप नहीं है, ये प्रकृति से परे निर्गुण, परब्रह्म परमात्मा हैं। निराकार, निर्विकार, मायाधीश एवं परात्पर हैं। गोत्र, कुल और नाम से रहित स्वतन्त्र परमेश्वर हैं। साथ ही अपने भक्तों के प्रति बड़े दयालु हैं। भक्तों की इच्छा से ही ये निर्गुण से सगुण हो जाते हैं, निराकार होते हुए भी सुन्दर शरीर धारण कर लेते हैं और अनामा होकर भी बहुत-से नाम वाले हो जाते हैं। ये गोत्रहीन होकर कुलीन हैं, पार्वती की तपस्या से ही ये आज तुम्हारे जामाता बन गये हैं, इसमें संशय नहीं है। गिरिश्रेष्ठ! इन लीलाविहारी परमेश्वर ने चराचर जगत् को मोह में डाल रखा है। कोई कितना ही बुद्धिमान् क्यों न हो, वह भगवान् शिव को अच्छी तरह नहीं जानता।
ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! ऐसा कहकर शिव की इच्छा से कार्य करनेवाले तुझ ज्ञानी देवर्षि ने शैलराज को अपनी वाणी से हर्ष प्रदान करते हुए फिर इस प्रकार उत्तर दिया।
नारद बोले – शिवा को जन्म देने वाले तात महाशैल! मेरी बात सुनो और उसे सुनकर अपनी पुत्री शंकरजी के हाथ में दे दो। लीलापूर्वक रूप धारण करनेवाले सगुण महेश्वर का गोत्र और कुल केवल नाद ही है, इस बात को अच्छी तरह समझ लो। शिव नादमय हैं और नाद शिवमय है – यह सर्वथा सच्ची बात है। नाद और शिव – इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है। शैलेन्द्र! सृष्टि के समय सबसे पहले लीला के लिये सगुण रूप धारण करनेवाले शिव से नाद ही प्रकट हुआ था। अतः वह सबसे उत्कृष्ट है। हिमालय! इसीलिये मन-ही-मन सर्वेश्वर शंकर के द्वारा प्रेरित हो मैंने आज अभी वीणा बजाना आरम्भ कर दिया था।
ब्रहमाजी कहते हैं – मुने! तुम्हारी यह बात सुनकर गिरिराज हिमालय को संतोष प्राप्त हुआ और उनके मन का सारा विस्मय जाता रहा। तदनन्तर श्रीविष्णु आदि देवता तथा मुनि सब-के-सब विस्मयरहित हो नारद को साधुवाद देने लगे। महेश्वर की गम्भीरता जानकर सभी विद्वान् आश्चर्यचकित हो बड़ी प्रसन्नता के साथ परस्पर बोले – 'अहो! जिनकी आज्ञा से इस विशाल जगत् का प्राकट्य हुआ है, जो परात्परतर, आत्मबोधस्वरूप, स्वतन्त्र लीला करनेवाले तथा उत्तम भाव से ही जानने योग्य हैं, उन त्रिलोकनाथ भगवान् शम्भु का आज हम लोगों ने भलीभाँति दर्शन किया है।'
तदनन्तर हिमालय ने विधि के द्वारा प्रेरित हो भगवान् शिव को अपनी कन्या का दान कर दिया। कन्यादान करते समय वे बोले – इमां कन्यां तुभ्यमहं ददामि परमेश्वर। भार्यार्थं परिगृह्णीष्व प्रसीद सकलेश्वर ॥ 'परमेश्वर! मैं अपनी यह कन्या आपको देता हूँ। आप इसे अपनी पत्नी बनाने के लिये ग्रहण करें! सर्वेश्वर! इस कन्यादान से आप संतुष्ट हों।'
इस मन्त्र का उच्चारण करके हिमाचल ने अपनी पुत्री त्रिलोकजननी पार्वती को उन महान् देवता रुद्र के हाथ में दे दिया। इस प्रकार शिवा का हाथ शिव के हाथ में रखकर शैलराज मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। उस समय वे अपने मनोरथ के महासागर को पार कर गये थे। परमेश्वर महादेवजी ने प्रसन्न हो वेदमन्त्र के उच्चारणपूर्वक गिरिजा के करकमल को शीघ्र अपने हाथ में ले लिया। मुने! लोकाचार के पालन की आवश्यकता को दिखाते हुए उन भगवान् शंकर ने पृथ्वी का स्पर्श करके 'कोऽदात्०' [ * विवाह में कन्या-प्रतिग्रह के पश्चात् वर इस कामस्तुतिका पाठ करता है।] इत्यादि रूप से काम सम्बन्धी मन्त्र का पाठ किया। उस समय वहाँ सब ओर महान् आनन्ददायक महोत्सव होने लगा। पृथ्वी पर, अन्तरिक्ष में तथा स्वर्ग में भी जय-जयकार का शब्द गूँजने लगा। सब लोग अत्यन्त हर्ष से भरकर साधुवाद देने और नमस्कार करने लगे। गन्धर्वगण प्रेमपूर्वक गाने लगे और अप्सराएँ नृत्य करने लगीं। हिमाचल के नगर के लोग भी अपने मन में परम आनन्द का अनुभव करने लगे। उस समय महान् उत्सव के साथ परम मंगल मनाया जाने लगा। मैं, विष्णु, इन्द्र, देवगण तथा सम्पूर्ण मुनि हर्ष से भर गये। हम सबके मुखारविन्द प्रसन्नता से खिल उठे। तदनन्तर शैलराज हिमाचल ने अत्यन्त प्रसन्न हो शिव के लिये कन्यादान की यथोचित सांगता प्रदान की। तत्पश्चात् उनके बन्धुजनों ने भक्तिपूर्वक शिवा का पूजन करके नाना विधि-विधान से भगवान् शिव को उत्तम द्रव्य समर्पित किया। हिमालय ने दहेज में अनेक प्रकार के द्रव्य, रत्न, पात्र, एक लाख सुसज्जित गौएँ, एक लाख सजे-सजाये घोड़े, करोड़ हाथी और उतने ही सुवर्णजटित रथ आदि वस्तुएँ दीं; इस प्रकार परमात्मा शिव को विधिपूर्वक अपनी पुत्री कल्याणमयी पार्वती का दान करके हिमालय कृतार्थ हो गये। इसके बाद शैलराज ने यजुर्वेद की माध्यंदिनी शाखा में वर्णित स्तोत्र के द्वारा दोनों हाथ जोड़ प्रसन्नतापूर्वक उत्तम वाणी में परमेश्वर शिव की स्तुति की। तत्पश्चात् वेदवेत्ता हिमाचल के आज्ञा देने पर मुनियों ने बड़े उत्साह के साथ शिवा के सिर पर अभिषेक किया और महादेवजी का नाम लेकर उस अभिषेक की विधि पूरी की। मुने! उस समय बड़ा आनन्ददायक महोत्सव हो रहा था।
(अध्याय ४८)