शिव के विवाह का उपसंहार, उनके द्वारा दक्षिणा-वितरण, वर-वधू का कोहबर और वासभवन में जाना, वहाँ स्त्रियों का उनसे लोकाचार का पालन कराना, रति की प्रार्थना से शिव द्वारा काम को जीवन दान एवं वर-प्रदान, वर-वधू का एक-दूसरे को मिष्टान्न भोजन कराना और शिव का जनवासे में लौटना

ब्रहमाजी कहते हैं – नारद! तदनन्तर मेरी आज्ञा पाकर महेश्वर ने ब्राह्मणों द्वारा अग्नि की स्थापना करवायी और पार्वती को अपने आगे बिठाकर वहाँ ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद के मन्त्रों द्वारा अग्नि में आहुतियाँ दीं। तात! उस समय काली के भाई मैनाक नें लावा की अंजलि दी और काली तथा शिव दोनों ने आहुति देकर लोकाचार का आश्रय ले प्रसन्नतापूर्वक अग्नि देव की परिक्रमा की।

नारद! तदनन्तर शिव की आज्ञा से मुनियों सहित मैंने शिवा-शिव-विवाह का शेष कार्य प्रसन्नतापूर्वक पूरा किया। फिर उन दोनों दम्पति के मस्तक का अभिषेक हुआ। ब्राह्णों ने उन्हें आदरपूर्वक ध्रुव का दर्शन कराया। तत्पश्चात् हृदयालम्भन का कार्य हुआ। फिर बड़े उत्साह के साथ स्वस्तिवाचन किया गया। इसके पश्चात् ब्राह्मणों की आज्ञा से शिव ने शिवा के सिर में सिन्दूरदान किया। उस समय गिरिराजनन्दिनी उमा की शोभा अद्भुत और अवर्णनीय हो गयी। फिर ब्राहणों के आदेश से वे शिव-दम्पति एक आसन पर विराजमान हो भक्तों के चित्त को आनन्द देने वाली उत्तम शोभा पाने लगे। मुने! तदनन्तर अद्भुत लीला करनेवाले उन नवदम्पति ने मेरी आज्ञा पाकर अपने स्थान पर आ संस्रवप्राशन किया। [ * अग्नि में घी की आहुति देकर स्त्रुवा में अवशिष्ट घृत को प्रोक्षणी पात्र में डालने की विधि है। प्रत्येक आहुति में ऐसा किया जाता है। प्रोक्षणी पात्र में डाले हुए घी को ही 'संस्रव' कहते हैं। अन्त में यजमान उसे पीता है। इसी को 'संस्रवप्राशन' कहा गया है।] इस प्रकार विधिपूर्वक उस वैवाहिक यज्ञ के पूर्ण हो जाने पर भगवान् शिव ने मुझ लोकस्रष्टा ब्रह्मा को पूर्णपात्र दान किया। फिर शम्भु ने आचार्य को गोदान किया। मंगलदायक जो बड़े-बड़े दान बताये गये हैं, वे भी सहर्ष सम्पन्न किये। तत्पश्चात् उन्होंने बहुत-से ब्राह्मणों को पृथक्-पृथक् सौ-सौ सुवर्ण मुद्राएँ दीं। करोड़ों रत्न दान किये और अनेक प्रकार के द्रव्य बाँटे। उस समय सब देवता तथा दूसरे-दूसरे चराचर जीव मन में बड़े प्रसन्न हुए और जोर-जोर से जय-जयकार की ध्वनि होने लगी। सब ओर मांगलिक शब्द और गीत होने लगे। वाद्यों की मनोहर ध्वनि सबके आनन्द को बढ़ाने लगी। इसके बाद श्रीविष्णु, मैं, देवता, ऋषि तथा अन्य सब लोग गिरिराज से आज्ञा ले बड़ी प्रसन्नता के साथ शीघ्र ही अपने-अपने डेरे में चले आये। उस समय हिमालय नगर की स्त्रियाँ आनन्दमग्न हो शिव और पार्वती को लेकर कोहबर में गयीं। वहाँ उन सब ने आदरपूर्वक वर-वधू से लोकाचार का सम्पादन कराया। उस समय सब ओर परमानन्ददायक महान् उत्साह छा रहा था। तदनन्तर वे स्त्रियाँ उन लोक-कल्याणकारी दम्पति को साथ ले परम दिव्य वासभवन (कौतुकागार) में गयीं और वहाँ भी प्रसनन्नतापूर्वक लोकाचार का सम्पादन किया। इसके बाद गिरिराज के नगर की स्त्रियों ने समीप आकर मंगलकृत्य करके उन नवदम्पति को केलिगृह में पहुँचाया और जयध्वनि करती हुई उनके गँठबन्धन की गाँठ खोलने आदि का कार्य सम्पन्न किया।

उस समय उन नूतन दम्पति को देखने के लिये सोलह दिव्य नारियाँ बड़े आदर के साथ शीघ्रतापूर्वक वहाँ आयीं। उनके नाम इस प्रकार हैं – सरस्वती, लक्ष्मी, सावित्री, गंगा, अदिति, शची, लोपामुद्रा, अरुन्धती, अहल्या, तुलसी, स्वाहा, रोहिणी, पृथिवी, शतरूपा, संज्ञा तथा रति। ये देवांगनाएँ तथा मनोहारिणी देवकन्या, नागकन्या और मुनिकन्याएँ भी वहाँ आ पहुँचीं। वहाँ जितनी स्त्रियाँ उपस्थित थीं, उन सबकी गणना करने में कौन समर्थ है? उनके दिये हुए रत्तनमय सिंहासन पर भगवान् शिव प्रसन्नतापूर्वक बैठे। उस समय उन्होंने शिव से नाना प्रकार की विनोदपूर्ण बातें कहीं। तदनन्तर प्रसन्नचित्त हुए महेश्वर ने अपनी पत्नी के साथ मिष्टान्न भोजन और आचमन करके कपूर डाला हुआ पान खाया।

इसी अवसर पर अनुकूल समय जान प्रसन्न हुई रति ने दीनवत्सल भगवान् शंकर से कहा – भगवन्! पार्वती का पाणिग्रहण करके आपने अत्यन्त दुर्लभ सौभाग्य प्राप्त किया है। बताइये, मेरे प्राणनाथ को, जो सर्वथा स्वार्थरहित थे, आपने क्यों भस्म कर डाला? अब यहाँ मेरे पति को जीवित कीजिये और अपने अन्तःकरण में काम-सम्बन्धी व्यापार को जगाइये। आपको और मुझको जो समान रूप से वियोगजनित संताप प्राप्त हुआ है, उसे दूर कीजिये। महेश्वर! आपके इस विवाहोत्सव में सब लोग सुखी हुए हैं। केवल मैं ही अपने पति के बिना दुःख में डूबी हुई हूँ। देव! शंकर! प्रसन्न होइये और मुझे सनाथ कीजिये। दीनबन्धो! परम प्रभो! अपनी कही हुई बात को सत्य कीजिये। चराचर प्राणियों सहित तीनों लोकों में आपके सिवा दूसरा कौन है, जो मेरे दःख का नाश करने में समर्थ हो? ऐसा जानकर आप मुझ पर दया कीजिये। दीनों पर दया करनेवाले नाथ! सबको आनन्द प्रदान करनेवाले अपने इस विवाहोत्सव में मुझे भी उत्सवसम्पन्न बनाइये। मेरे प्राणनाथ के जीवित होने पर ही अपनी प्रिया पार्वती के साथ आपका सुन्दर विहार परिपूर्ण होगा। इसमें संशय नहीं है। सर्वेश्वर! आप सब कुछ करने में समर्थ हैं; क्योंकि आप ही परमेश्वर हैं। यहाँ अधिक कहने से क्या लाभ? सर्वेश्वर! आप शीघ्र मेरे पति को जीवित कीजिये।'

ऐसा कहकर रति ने गाँठ में बँधा हुआ कामदेव के शरीर का भस्म शम्भु को दे दिया और उनके सामने 'हा नाथ! हा नाथ!' कहकर रोने लगी। रति का रोदन सुनकर सरस्वती आदि सभी देवियाँ रोने लगीं और अत्यन्त दीन वाणी में बोलीं – 'प्रभो! आपका नाम भक्तवत्सल है। आप दीनबन्धु और दया के सागर हैं। अतः काम को जीवनदान दीजिये और रति को उत्साहित कीजिये। आपको नमस्कार है।'

ब्रहमाजी कहते हैं – नारद! उन सबकी यह बात सुनकर महेश्वर प्रसन्न हो गये। उन करुणासागर प्रभु ने तत्काल ही रति पर कृपा की। भगवान् शूलपाणि की अमृतमयी दृष्टि पड़ते ही पहले-जैसे रूप, वेष और चिह्न से युक्त अद्भुत मूर्तिधारी सुन्दर कामदेव उस भस्म से प्रकट हो गया। अपने पति को वैसे ही रूप, आकृति, मन्द मुसकान और धनुष-बाण से युक्त देख रति ने महेश्वर को प्रणाम किया। वह कृतार्थ हो गयी। उसने प्राणनाथ की प्राप्ति करानेवाले भगवान् शिव का अपने जीवित पति के साथ हाथ जोड़कर बारंबार स्तवन किया। पत्ली सहित काम की की हुई स्तुति को सुनकर दयार्द्रह्रदय भगवान् शंकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और इस प्रकार बोले।

शंकर ने कहा – मनोभव! पत्नी सहित तुमने जो स्तुति की है, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ। स्वयं प्रकट होनेवाले काम! तुम वर माँगो। मैं तुम्हें मनोवांछित वस्तु दूँगा।

शम्भु का यह वचन सुनकर कामदेव महान् आनन्द में निमग्न हो गया और हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर गद्गद वाणी में बोला।

कामदेव ने कहा – देवदेव महादेव! करुणासागर प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरे लिये आनन्ददायक होइये। प्रभो! पूर्वकाल में मैंने जो अपराध किया था, उसे क्षमा कीजिये। स्वजनों के प्रति परम प्रेम और अपने चरणों की भक्ति दीजिये।

कामदेव का यह कथन सुनकर परमेश्वर शिव प्रसन्न हो बोले – 'बहुत अच्छा!' इसके बाद उन करुणानिधि ने हँसकर कहा – 'महामते कामदेव! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। तुम अपने मन से भय को निकाल दो। भगवान् विष्णु के पास जाओ और इस घर से बाहर ही रहो।'

तदनन्तर काम शिवजी को प्रणाम करके बाहर आ गया। विष्णु आदि देवताओं ने उसे आशीर्वाद दिया। इसके बाद भगवान् शंकर ने उस वासभवन में पार्वती को बायें बिठाकर मिष्टान्न भोजन कराया और पार्वती ने भी प्रसन्नतापूर्वक उनका मुँह मीठा किया। तदनन्तर वहाँ लोकाचार का पालन करते हुए आवश्यक कृत्य करके मेना और हिमवान् की आज्ञा ले भगवान् शिव जनवासे में चले गये। मुने! उस समय महान् उत्सव हुआ और वेदमन्त्रों की ध्वनि होने लगी। लोग चारों प्रकार के बाजे बजाने लगे। [ * आकाश में जो चार प्रकार के बाजे बताये गए हैं, संसार के सभी प्राचीन अथवा अर्वाचीन वाद्य उन्हीं के अन्तर्गत हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं - तत, आनद्ध, सुषिर और घन।] जनवासे में अपने स्थान पर पहुँचकर शिव ने लोकाचारवश मुनियों को प्रणाम किया। श्रीहरि को और मुझे भी मस्तक झुकाया। फिर सब देवता आदि ने उनकी वन्दना की। उस समय वहाँ जय-जयकार, नमस्कार तथा समस्त विघ्नों का विनाश करने वाली शुभदायिनी वेदध्वनि भी होने लगी। इसके बाद मैंने, भगवान् विष्णु ने तथा इन्द्र, ऋषि और सिद्ध आदि ने भी शंकरजी की स्तुति की। गिरिजानायक महेश्वर की स्तुति करके बे विष्णु आदि देवता प्रसन्नतापूर्वक उनकी यथोचित सेवा में लग गये। तत्पश्चात् लीलापूर्वक शरीर धारण करनेवाले महेश्वर शम्भु ने उन सबको सम्मान दिया। फिर उन परमेश्वर की आज्ञा पाकर वे विष्णु आदि देवता अत्यन्त प्रसन्न हो अपने-अपने विश्राम स्थान को गये।

(अध्याय ४९ - ५१)