रात को परम सुन्दर सजे हुए वासगृह में शयन करके प्रातःकाल भगवान् शिव का जनवासे में आगमन

ब्रहमाजी कहते हैं – तात! तदनन्तर भाग्यवानों में श्रेष्ठ और चतुर गिरिराज हिमवान् ने बारातियों को भोजन कराने के लिये अपने आँगन को सुन्दर ढंग से सजाया तथा अपने पुत्रों एवं अन्यान्य पर्वतों को भेजकर शिव सहित सब देवताओं को भोजन के लिये बुलाया। जब सब लोग आ गये, तब उनको बड़े आदर के साथ उत्तमोत्तम भोज्य पदार्थों का भोजन कराया। भोजन के पश्चात् हाथ-मुँह धो, कुल्ला करके विष्णु आदि सब देवता विश्राम के लिये प्रसनन्नतापूर्वक अपने-अपने डेरे में गये। मेना की आज्ञा से साध्वी स्त्रियों ने भगवान् शिव से भक्तिपूर्वक प्रार्थना करके उन्हें महान् उत्सव से परिपूर्ण सुन्दर वास-भवन में ठहराया। मेना के दिये हुए मनोहर रत्न-सिंहासन पर बैठकर आनन्दित हुए शम्भु ने उस वासमन्दिर का निरीक्षण किया। वह भवन प्रज्वलित हुए सैकड़ों रत्नमय प्रदीपों के कारण अद्भुत प्रभा से उद्धासित हो रहा था। वहाँ रत्नमय पात्र तथा रत्नों के ही कलश रखे गये थे। मोती और मणियों से सारा भवन जगमगा रहा था। रत्नमय दर्पण की शोभा से सम्पन्न तथा श्वेत चँवरों से अलंकृत था। मुक्ता-मणियों की सुन्दर मालाओं (बंदनवारों) से आवेष्टित हुआ वह वासभवन बड़ा समृ्द्धिशाली दिखायी देता था। उसकी कहीं उपमा नहीं थी। वह महादिव्य, अतिविचित्र, परम मनोहर तथा मन को आह्लाद प्रदान करनेवाला था। उसके फर्श पर नाना प्रकार की रचनाएँ की गयी थीं – बेलबूटे निकाले गये थे। शिवजी के दिये हुए वर का ही महान् एवं अनुपम प्रभाव दिखाता हुआ वह शोभाशाली भवन शिवलोक के नाम से प्रसिद्ध किया गया था। नाना प्रकार के सुगन्धित श्रेष्ठ द्रव्यों से सुवासित तथा सुन्दर प्रकाश से परिपूर्ण था। वहाँ चन्दन और अगर की सम्मिलित गन्ध फैल रही थी। उस भवन में फूलों की सेज बिछी हुई थी। विश्वकर्मा का बनाया हुआ वह भवन नाना प्रकार के विचित्र चित्रों से सुसज्जित था। श्रेष्ठ रत्नों की सारभूत मणियों से निर्मित सुन्दर हारों द्वारा उस वासगृह को अलंकृत किया गया था। उसमें विश्वकर्मा द्वारा निर्मित कृत्रिम वैकुण्ठ, ब्रह्मलोक, कैलास, इन्द्रभवन तथा शिवलोक आदि दीख रहे थे। ऐसे आश्चर्यजनक शोभा से सम्पन्न उस वासभवन को देखकर गिरिराज हिमालय की प्रशंसा करते हुए भगवान् महेश्वर बहुत संतुष्ट हुए। वहाँ अति रमणीय रत्नजटित उत्तम पलंग पर परमेश्वर शिव बड़ी प्रसन्नता से लीलापूर्वक सोये। इधर हिमालय ने बड़ी प्रसन्नता से अपने समस्त भाई-बन्धुओं एवं दूसरे लोगों को भी भोजन कराया तथा जो कार्य शेष रह गये थे, उन्हें भी पूर्ण किया।

शैलराज हिमालय इस प्रकार आवश्यक कार्य में लगे हुए थे और प्रियतम परमेश्वर शिव शयन कर रहे थे। इतने में ही सारी रात बीत गयी और प्रातःकाल हो गया। प्रभातकाल होने पर धैर्यवान् और उत्साही पुरुष नाना प्रकार के बाजे बजाने लगे। उस समय श्रीविष्णु आदि सब देवता सानन्द उठे और अपने इष्टदेव देवेश्वर शिव का स्मरण करके वहाँ से कैलास को चलने के नये जल्दी-जल्दी तैयार हो गये। उन्होंने अपने वाहन भी सुसज्जित कर लिये। तत्पश्चात् धर्म को शिव के समीप भेजा। योग शक्ति से सम्पन्न धर्म नारायण की आज्ञा से वासगृह में पहुँचकर योगीशवर शंकर से समयोचित बात बोले – प्रमथगणों के स्वामी महेश्वर! उठिये, उठिये; आपका कल्याण हो। आप हमारे लिये भी कल्याणकारी होइये; जनवासे में चलिये और वहाँ सब देवताओं को कृतार्थ कीजिये।'

धर्म की यह बात सुनकर भगवान् महेश्वर हँसे। उन्होंने धर्म को कृपादृष्टि से देखा और शय्या त्याग दी। इसके बाद धर्म से हँसते हुए कहा – 'तुम आगे चलो। मैं भी वहाँ शीघ्र ही आऊँगा, इसमें संशय नहीं है।'

भगवान् शिव के ऐसा कहने पर धर्म जनवासे में गये। तत्पश्चात् शम्भु भी स्वयं वहाँ जाने को उद्यत हुएं। यह जानकर महान् उत्सव मनाती हुई स्त्रियाँ वहाँ आयीं और भगवान् शम्भु के युगल चरणारविन्दों का दर्शन करती हुई मंगलगान करने लगीं। तदनन्तर लोकाचार का पालन करते हुए शम्भु प्रातःकालिक कृत्य करके मेना और हिमालय की आज्ञा ले जनवासे को गये। मुने! उस समय बड़ा भारी उत्सव हुआ। वेदमन्त्रों की ध्वनि होने लगी और लोग चारों प्रकार के बाजे बजाने लगे। अपने स्थान पर आकर शम्भु ने लोकाचारवश मुनियों को, विष्णु को और मुझको प्रणाम किया। फिर देवता आदि ने उनकी वन्दना की। उस समय जय-जयकार, नमस्कार तथा वेदमन्त्रोच्चारण की मंगलदायिनी ध्वनि होने लगी। इससे सब ओर कोलाहल छा गया।

(अध्याय ५२)