चतुर्थीकर्म, बारात का कई दिनों तक ठहरना, सप्तर्षियों के समझाने से हिमालय का बारात को विदा करने के लिये राजी होना, मेना का शिव को अपनी कन्या सौंपना तथा बारात का पुरी के बाहर जाकर ठहरना
ब्रह्माजी कहते हैं – तदनन्तर विष्णु आदि देवता तथा ऋषि कैलास लौटने का विचार करने लगे। तब हिमालय ने जनवासे में आकर सबको भोजन के लिये निमन्त्रित किया। तत्पश्चात् देवेश्वर शिव को आमन्त्रित करके हिमाचल अपने घर को गये और नाना प्रकार के विधान से भोजनोत्सव की तैयारी करने लगे। उन्होंने प्रसन्नता और उत्कण्ठा के साथ भोजन के लिये परिवार सहित भगवान् शिव को यथोचित रीति से अपने घर बुलवाया। शम्भु के, विष्णु के, मेरे, अन्य सब देवताओं के, मुनियों के तथा वहाँ आये हुए अन्य सब लोगों के भी चरणों को बड़े आदर के साथ धोकर उन सबको गिरिराज ने मण्डप के भीतर सुन्दर आसनों पर बिठाया। फिर अपने भाई-बन्धुओं को साथ लेकर उनके सहयोग से उन सब अतिथियों को नाना प्रकार के सरस पदार्थों द्वारा पूर्णतया तृप्त किया। मेरे, विष्णु के तथा शम्भु के साथ सब लोगों ने अच्छी तरह भोजन किया। नारद! विधिवत् भोजन और आचमन करके तृप्त और प्रसन्न हुए सब लोग हिमालय से आज्ञा ले अपने-अपने डेरे पर गये। मुने! इसी प्रकार तीसरे दिन भी गिरिराज ने विधिवत् दान, मान और आदर आदि के द्वारा उन सबका सत्कार किया। चौथा दिन आने पर शुद्धतापूर्वक सविधि चतुर्थीकर्म हुआ, जिसके बिना विवाहयज्ञ अधूरा ही रह जाता है। उस समय नाना प्रकार का उत्सव हुआ। साधुवाद और जय-जयकार की ध्वनि हुई। बहुत-से सुन्दर दान दिये गये। भाँति-भाँति के सुन्दर गान और नृत्य हुए। पाँचवें दिन सब देवताओं ने बड़े हर्ष और अत्यन्त प्रेम के साथ शैलराज को सूचित किया कि 'अब हम लोग यहाँ से जाना चाहते हैं। आप आज्ञा प्रदान करें।' उनकी यह बात सुन गिरिराज हिमवान् हाथ जोड़कर बोले – 'देवगण! आप लोग कुछ दिन और ठहरें तथा मुझ पर कपा करें।' यों कहकर उन्होंने स्नेह के साथ उन देवताओं को, भगवान् शिव को, विष्णु को, मुझको तथा अन्य लोगों को बहुत दिनों तक ठहराया और प्रतिदिन विशेष आदर-सत्कार किया।
इस प्रकार देवताओं के वहाँ रहते हुए बहुत दिन बीत गये, तब उन सब ने गिरिराज के पास सप्तर्षियों को भेजा। सप्तषियों ने हिमवान् और मेना से समयोचित बात कहकर उन्हें समझाया, परम शिव तत्त्व का वर्णन किया तथा प्रसन्नतापूर्वक उनके सौभाग्य की सराहना की। मुने! उनके समझाने से गिरिराज ने बारात को विदा करना स्वीकार कर लिया। तत्पए्चात् भगवान् शम्भु यात्रा के लिये उद्यत हो देवता आदि के साथ शैलराज के पास आये। देवेश्वर शिव देवताओं सहित कैलास की यात्रा के लिये जब उद्यत हुए, उस समय मेना उच्च स्वर से रोने लगीं और उन कृपानिधान से बोलीं।
मेना ने कहा – कृपानिधे! कृपा करके मेरी शिव का भलीभाँति लालन-पालन कीजियेगा। आप आशुतोष हैं। पार्वती के सहस्त्रों अपराधों को भी क्षमा कीजियेगा। मेरी बच्ची जन्म-जन्म में आपके चरणारविन्दों की भक्त रही है और रहेगी। उसे सोते और जागते समय भी अपने स्वामी महादेव के सिवा दूसरी किसी वस्तु की सुध नहीं रहती। मृत्युंजय! आपके प्रति भक्ति-भाव की बातें सुनते ही यह हर्ष के आँसू बहाती हुई पुलकित हो उठती है और आपकी निन्दा सुनकर ऐसा मौन साध लेती है, मानो मर ही गयी हो!
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! ऐसा कहकर मेनका ने अपनी बेटी शिव को सौंप दी और उन दोनों के सामने ही उच्च स्वर से रोती हुईं वह मूच्छित हो गयी। तब महादेवजी ने मेना को समझाकर सचेत किया और उनसे विदा ले देवताओं के साथ महान् उत्सवपूर्वक यात्रा की। वे सब देवता अपने स्वामी शिव तथा सेवकगणों के साथ चुपचाप कैलास पर्वत की ओर प्रस्थित हुए। वे मन-ही-मन शिव का चिन्तन कर रहे थे। हिमाचलपुरी के बाहरी बगीचे में आकर शिव सहित सब देवता हर्ष और उत्साह के साथ ठहर गये और शिव के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे। मुनीश्वर! इस प्रकार देवताओं सहित शिव की श्रेष्ठ यात्रा का वर्णन किया गया। अब शिव की यात्रा का वर्णन सुनो, जो विरहव्यथा और आनन्द दोनों से संयुक्त है।
(अध्याय ५३)