मेना की इच्छा के अनुसार एक ब्राह्मण-पत्नी का पार्वती को पतिव्रत धर्म का उपदेश देना
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! तदनन्तर सप्तर्षियों ने हिमालय से कहा – 'गिरिराज! अब आप अपनी पुत्री पार्वती देवी की यात्रा का उचित प्रबन्ध करें।' मुनीश्वर! यह सुनकर पार्वती के भावी विरह का अनुभव करके गिरिराज कुछ काल तक अधिक प्रेम के कारण विषाद में डूबे रह गये। कुछ देर बाद सचेत हो शैलराज ने 'तथास्तु' कहकर मेना को संदेश दिया। मुने! हिमवान् का संदेश पाकर हर्ष और शोक के वशीभूत हुई मेना पार्वती को विदा करने के लिये उद्यत हुईं। शैलराज की प्यारी पत्नी मेना ने विधिपूर्वक वैदिक एवं लौकिक कुलाचार का पालन किया और उस समय नाना प्रकार के उत्सव मनाये। फिर उन्होंने नाना प्रकार के रत्नजटित सुन्दर वस्त्रों और बारह आशभूषणों द्वारा राजोचित श्रृंगार करके पार्वती को विभूषित किया। तत्पश्चात् मेना के मनोभाव को जानकर एक सती-साध्वी ब्राह्मणपत्नी ने गिरिजा को उत्तम पातिव्रत्य की शिक्षा दी।
ब्राह्मण-पत्नी बोली – गिरिराज किशोरी! तुम प्रेमपूर्वक मेरा यह वचन सुनो। यह धर्म को बढ़ानेवाला, इहलोक और परलोक में भी आनन्द देने तथा श्रोताओं को भी सुख की प्राप्ति कराने वाला है। संसार में पतिव्रता नारी ही धन्य है, दूसरी नहीं। वही विशेष रूप से पूजनीय है। पतिव्रता सब लोगों को पवित्र करने वाली और समस्त पापराशि को नष्ट कर देने वाली है। शिवे! जो पति को परमेश्वर के समान मानकर प्रेम से उसकी सेवा करती है, वह इस लोक में सम्पूर्ण भोगों का उपभोग करके अन्त में कल्याणमयी गति को पाती है। सावित्री, लोपामुद्रा, अरुन्धती, शाण्डिली, शतरूपा, अनसूया, लक्ष्मी, स्वधा, सती, संज्ञा, सुमति, श्रद्धा, मेना और स्वाहा – ये तथा और भी बहुत-सी स्त्रियाँ साध्वी कही गयी है। यहाँ विस्तारभय से उनका नाम नहीं लिया गया। वे अपने पातिव्रत्य के बल से ही सब लोगों की पूजनीया तथा ब्रह्मा, विष्णु, शिव एवं मुनीश्वरों की भी माननीया हो गयी हैं। इसलिये तुम्हें अपने पति भगवान् शंकर की सदा सेवा करनी चाहिये। वे दीनदयालु, सबके सेवनीय और सत्पुरुषों के आश्रय हैं। श्रुतियों और स्मृतियों में पातिव्रत्यधर्म को महान् बताया गया है। इसको जैसा श्रेष्ठ बताया जाता है, वैसा दूसरा धर्म नहीं है – यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है।
पातिव्रत्यधर्म में तत्पर रहनेवाली स्त्री अपने प्रिय पति के भोजन कर लेने पर ही भोजन करे। शिवे! जब पति खड़ा हो, तब साध्वी स्त्री को भी खड़ी ही रहनी चाहिये। शुद्ध बुद्धिवाली साध्वी स्त्री प्रतिदिन अपने पति के सो जाने पर सोये और उसके जागने से पहले ही जग जाय। वह छल-कपट छोड़कर सदा उसके लिये हितकर कार्य ही करे। शिवे! साध्वी स्त्री को चाहिये कि जब तक वस्त्राभूषणों से विभूषित न हो ले तब तक वह अपने को पति की दृष्टि के सम्मुख न लाये। यदि पति किसी कार्य से परदेश में गया हो तो उन दिनों उसे कदापि श्रुंगार नहीं करना चाहिये। पतिव्रता स्त्री कभी पति का नाम न ले। पति के कटुवचन कहने पर भी वह बदले में कड़ी बात न कहे। पति के बुलाने पर वह घर के सारे कार्य छोड़कर तुरंत उसके पास चली जाय और हाथ जोड़ प्रेम से मस्तक झुकाकर पूछे – 'नाथ! किस लिये इस दासी को बुलाया है? मूझे सेवा के लिये आदेश देकर अपनी कृपा से अनुगृहित कीजिये।' फिर पति जो आदेश दे, उसका वह प्रसन्न हृदय से पालन करें। वह घर के दरवाजे पर देरतक खड़ी न रहे। दूसरे के घर न जाय। कोई गोपनीय बात जानकर हर एक के सामने उसे प्रकाशित न करे। पति के बिना कहे ही उनके लिये पूजन-सामग्री स्वयं जूटा दे तथा उनके हित साधन के यथोचित अवसर की प्रतीक्षा करती रहे। पति की आज्ञा लिये बिना कहीं तीर्थ यात्रा के लिये भी न जाय। लोगों की भीड़ से भरी हुई सभा या मेले आदि के उत्सवों का देखना वह दूर से ही त्याग दे। जिस नारी को तीर्थ यात्रा का फल पाने की इच्छा हो, उसे अपने पति का चरणोदक पीना चाहिये। उसके लिये उसी में सारे तीर्थ और क्षेत्र हैं, इसमें संशय नहीं है।
पतिव्रता नारी पति के उच्छिष्ट अन्न आदि को परम प्रिय भोजन मानकर ग्रहण करे और पति जो कुछ दे, उसे महाप्रसाद मानकर शिरोधार्य करे। देवता, पितर, अतिथि, सेवकवर्ग, गौ तथा भिक्षु समुदाय के लिये अन्न का भाग दिये बिना कदापि भोजन न करे। पातिव्रत धर्म में तत्पर रहनेवाली गृहदेवी को चाहिये कि वह घर की सामग्री को संयत एवं सुरक्षित रखे। गृहकार्य में कुशल हो, सदा प्रसन्न रहे और खर्च की ओर से हाथ खींचे रहे। पति की आज्ञा लिये बिना उपवास व्रत आदि न करे, अन्यथा उसे उसका कोई फल नहीं मिलता और वह परलोक में नरकगामिनी होती है। पति सुखपूर्वक बैठा हो या इच्छानुसार क्रीडाविनोद अथवा मनोरंजन में लगा हो, उस अवस्था में कोई आंतरिक कार्य आ पड़े तो भी पतिव्रता स्त्री अपने पति को कदापि न उठाये। पति नपुंसक हो गया हो, दुर्गति में पड़ा हो, रोगी हो, बुढा हो, सुखी हो अथवा दुःखी हो, किसी भी दशा में नारी अपने उस एकमात्र पति का उल्लंघन न करे। रजस्वला होने पर वह तीन रात्रि तक पति को अपना मूँह न दिखाये अर्थात् उससे अलग रहे। जब तक स्नान करके शब्द न हो जाय, तब तक अपनी कोई बात भी वह पति के कानों में न पड़ने दे। अच्छी तरह स्नान करने के पश्चात् सबसे पहले वह अपने पति के मुख का दर्शन करे, दूसरे किसी का मूँह कदापि न देखे अथवा मन-ही-मन पति का चिन्तन करके सूर्य का दर्शन करे। पति की आयु बढ़ने की अभिलाषा रखनेवाली पतिव्रता नारी हल्दी, रोली, सिन्दूर, काजल आदि; चोली, पान, मांगलिक आभूषण आदि; केशों का सँवारना, चोटी गूँथना तथा हाथ-कान के आभूषण – इन सबको अपने शरीर से दूर न करे। धोबिन, छिनाल या कुलटा, संन्यासिनी और भाग्यहीना स्त्रियों को वह कभी अपनी सखी न बनाये। पति से द्वेष रखनेवाली स्त्री का वह कभी आदर न करे। कहीं अकेली न खड़ी हो। कभी नंगी होकर न नहाये। सती स्त्री ओखली, मूसल, झाड़ू, सिल, जौत और द्वार के चौखट के नीचेवाली लकड़ी पर कभी न बैठे। मैथुनकाल के सिवा और किसी समय में वह पति के सामने धृष्टता न करे। जिस-जिस वस्तु में पति की रूचि हो, उससे वह स्वयं भी प्रेम करे। पतिव्रता देवी सदा पति का हित चाहनेवाली होती है। वह पति के हर्ष में हर्ष माने। पति के मुख पर विषाद की छाया देख स्वयं भी विषाद में डूब जाय तथा वह प्रियतम पति के प्रति ऐसा बर्ताव करे, जिससे वह उन्हें प्यारी लगे। पुण्यात्मा पतिव्रता स्त्री सम्पत्ति और विपत्ति में भी पति के लिये एक सी रहे। अपने मन में कभी विकार न आने दे और सदा धैर्य धारण किये रहे। घी, नमक, तेल आदि के समाप्त हो जाने पर भी पतिव्रता स्त्री पति से सहसा यह न कहे कि अमुक वस्तु नहीं है। वह पति को कष्ट या चिन्ता में न डाले। देवेश्वरि! पतिव्रता नारी के लिये एकमात्र पति ही ब्रह्मा, विष्णु और शिव से भी अधिक माना गया है। उसके लिये अपना पति शिवरूप है। जो पति की आज्ञा का उल्लंघन करके व्रत और उपवास आदि के नियम का पालन करती है, वह पति की आयु हर लेती है और मरने पर नरक में जाती है। जो स्त्री पति के कुछ कहने पर क्रोधपूर्वक कठोर उत्तर देती है वह गाँव में कुतिया और निर्जन वन में सियारिन होती है। नारी पति से ऊँचे आसन पर न बैठे, दुष्ट पुरुष के निकट न जाय और पति से कभी कातर वचन न बोले। किसी की निन्दा न करे। कलह को दूर से ही त्याग दे। गुरुजनों के निकट न तो उच्च स्वर से बोले और न हँसे। जो बाहर से पति को आते देख तुरंत अन्न, जल, भोज्य वस्तु, पान और वस्त्र आदि से उनकी सेवा करती है, उनके दोनों चरण दबाती है, उनसे मीठे वचन बोलती है तथा प्रियतम के खेद को दूर करने वाले अन्यान्य उपायों से प्रसन्नतापूर्वक उन्हें संतुष्ट करती है, उसने मानो तीनों लोकों को तृप्त एवं संतुष्ट कर दिया। पिता, भाई और पुत्र परिमित सुख देते है, परंतु पति असीम सुख देता है। अतः नारी को सदा अपने पति का पूजन – आदर सत्कार करना चाहिये। पति ही देवता है, पति ही गुरु है और पति ही धर्म, तीर्थ एवं व्रत है; इसलिये सबको छोड़कर एकमात्र पति की ही आराधना करनी चाहिये।
जो दुर्बुद्धि नारी अपने पति को त्याग कर एकान्त में विचरती है (या व्याभिचार करती है), वह वृक्ष के खोखले में शयन करने वाली क्रूर उल्लू की होती है। जो पराये पुरुष को कटाक्षपूर्ण दृष्टि से देखती है, वह ऐंचातानी देखनेवाली होती है। जो पति को छोड़कर अकेले मिठाई खाती है, वह गाँव में सुअरी होती है अथवा बकरी होकर अपनी ही विष्ठा खाती है। जो पति को तू कहकर बोलती है, वह गूँगी होती है। जो सौत से सदा ईर्ष्या रखती है, वह दुर्भाग्यवती होती है। जो पति की आँख बचाकर किसी दूसरे पुरुष पर दृष्टि डालती है, वह कानी, टेढ़े मूँहवाली तथा कुरूपा होती है। जैसे निर्जीव शरीर तत्त्काल अपवित्र हो जाता है, उसी तरह पतिहीना नारी भलीभाँति स्नान करने पर भी सदा अपवित्र ही रहती है। लोक में वह माता धन्य है, वह जन्मदाता पिता धन्य है तथा वह पति भी धन्य है, जिसके घर में पतिव्रता देवी वास करती है। पतिव्रता के पुण्य से पिता, माता और पति के कुलों की तीन-तीन पीढ़ियों के लोग स्वर्गलोक में सुख भोगते है। जो दुराचारिणी स्त्रियाँ अपना शील भंग कर देती हैं, वे अपने माता-पिता और पति तीनों के कुलों को नीचे गिरती हैं तथा इस लोक और परलोक में भी दुःख भोगती हैं। पतिव्रता का पैर जहाँ-जहाँ पृथ्वी का स्पर्श करता है, वहाँ-वहाँ की भूमि पापहारिणी तथा परम पावन बन जाती है। भगवान् सूर्य, चन्द्रमा तथा वायुदेव भी अपने आपको पवित्र करने के लिये ही पतिव्रता का स्पर्श करते हैं और किसी दृष्टि से नहीं। जल भी सदा पतिव्रता का स्पर्श करना चाहता है और उसका स्पर्श करके वह अनुभव करता है कि आज मेरी जडता का नाश हो गया तथा आज मैं दूसरों को पवित्र करने वाला बना गया। भार्या ही गृहस्थ-आश्रम की जड़ है, भार्या ही सुख का मूल है, भार्या से ही धर्म के फल की प्राप्ति होती है तथा भार्या ही संतान की बुद्धि में कारण है।
क्या घर-घर में अपने रूप और लावण्य पर गर्व करने वाली स्त्रियाँ नहीं हैं? परंतु पतिव्रता स्त्री तो विश्वनाथ शिव के प्रति भक्ति होने से ही प्राप्त होती है। भार्या से इस लोक और परलोक दोनों पर विजय पायी जा सकती है। भार्याहीन पुरुष देवयज्ञ, पितृयज्ञ और अतिथियज्ञ करने का अधिकारी नहीं होता। वास्तव में गृहस्थ वही है, जिसके घर में पतिव्रता स्त्री है। दूसरी स्त्री तो पुरुष को उसी तरह अपना ग्रास (भोग्य) बनाती है, जैसे जरावस्था एवं राक्षसी। जैसे गंगास्नान करने से शरीर पवित्र होता है, उसी प्रकार पतिव्रता स्त्री का दर्शन करने पर सब कुछ पावन हो जाता है। पति को ही इष्टदेव माननेवाली सती नारी और गंगा में कोई भेद नहीं है। पतिव्रता और उसके पतिदेव उमा और महेश्वर के समान है, अतः विद्वान् मनुष्य उन दोनों का पूजन करे। पति तप है और स्त्री क्षमा; नारी सत्कर्म है और पति उसका फल। शिवे! सती नारी और उसके पति – दोनों दम्पती धन्य हैं।
गिरिराजकुमारी! इस प्रकार मैंने तुमसे पतिव्रता धर्म का वर्णन किया है। अब तुम सावधान हो आज मुझसे प्रसन्नतापूर्वक पतिव्रता के भेदों का वर्णन सुनो। देवि! पतिव्रता नारियाँ उत्तमा आदि भेद से चार प्रकार की बतायी गयी हैं, जो अपना स्मरण करने वाले पुरुषों का सारा पाप हर लेती हैं। उत्तमा, मध्यमा, निकृष्टा और अतिनिकृष्टा – ये पतिव्रता के चार भेद हैं। अब मैं इनके लक्षण बताता हूँ। ध्यान देकर सुनो। भद्रे! जिसका मन सदा स्वप्न में भी अपने पति को ही देखता है, दूसरे किसी परपुरुष को नहीं, वह स्त्री उत्तमा या उत्तम श्रेणी की पतिव्रता कही गयी है। शैलजे! जो दूसरे पुरुष को उत्तम बुद्धि से पिता, भाई एवं पुत्र के समान देखती है, उसे मध्यम श्रेणी की पतिव्रता कहा गया है। पार्वती! जो मन से अपने धर्म का विचार करके व्यभिचार नहीं करती, सदाचार में ही स्थित रहती है, उसे निकृष्टा अथवा निम्न श्रेणी की पतिव्रता कहा गया है। जो पति के भय से तथा कुल में कलंक लगने के डर से व्यभिचार से बचने का प्रयत्न करती है, उसे पूर्वकाल के विद्वानों ने अतिनिकृष्टा अथवा निम्नतम कोटि की पतिव्रता बताया है। शिवे! ये चारों प्रकार की पतिव्रताएँ समस्त लोकों का पाप नाश करने वाली और उन्हें पवित्र बनानेवाली हैं। अत्रि की स्त्री अनसूया ने ब्रह्मा, विष्णु और शिव – इन तीनों देवताओं की प्रार्थना से पातिव्रत्य के प्रभाव का उपभोग करके वाराह के शाप से मरे हुए एक ब्राह्मण को जीवित कर दिया था। शैलकुमारी शिवे! ऐसा जानकर तुम्हें नित्य प्रसन्नतापूर्वक पति की सेवा करनी चाहिये। पतिसेवन सदा समस्त अभीष्ट फलों को देने वाला है। तुम साक्षात् जगदम्बा महेश्वरी हो और तुम्हारे पति साक्षात् भगवान् शिव हैं। तुम्हारा तो चिन्तन मात्र करने से स्त्रियाँ पतिव्रता हो जायँगी। देवि! यद्यपि तुम्हारे आगे यह सब कहने का कोई प्रयोजन नहीं है, तथापि आज लोकाचार का आश्रय ले मैंने तुम्हें सती-धर्म का उपदेश दिया है।
ब्रहमाजी कहते हैं – नारद! ऐसा कहकर वह ब्राह्मण-पत्नी शिवादेवी को मस्तक झुका चुप हो गयी। इस उपदेश को सुनकर शंकरप्रिया पार्वती देवी को बड़ा हर्ष हुआ।
(अध्याय ५४)