शिव-पार्वती तथा उनकी बारात की विदाई, भगवन् शिव का समस्त देवताओं को विदा करके कैलास पर रहना और पार्वतीखण्ड के श्रवण की महिमा

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! ब्राह्मणी ने देवी पार्वती को पतिव्रत-धर्म की शिक्षा देने के पश्चात् मेना को बुलाकर कह – 'महारानीजी! अब अपनी पुत्री की यात्रा कराइये – इसे विदा कीजिये। ' तब 'बहुत अच्छा' कहकर वे प्रेम के वशीभूत हो गयीं। फिर धैर्य धारण करके उन्होंने काली को बुलाया और उसके वियोग के भय से व्याकुल हो वे बेटी को बारंबार गले से लगाकर अत्यन्त उच्च स्वर से रोने लगीं। फिर पार्वती भी करुणाजनक बात कहती हुई जोर-जोर से रो पड़ीं। मेना और शिवा दोनों ही विरह शोक से पीड़ित हो मुर्च्छित हो गयीं। पार्वती के रोने से देवपत्नियाँ भी अपनी सुध-बुध खो बैठीं। सारी स्त्रियाँ वहाँ रोने लगीं। वे सब-की-सब अचेत-सी हो गयीं। उस यात्रा के समय परम प्रभू साक्षात् योगीश्वर शिव भी रो पड़े, फिर दूसरा कौन चुप रह सकता था? इसी समय अपने समस्त पुत्रों, मन्त्रियों और उत्तम ब्राह्मणों के साथ हिमालय शीघ्र वहाँ आ पहुँचे और मोहवश अपनी बच्ची को हृदय से लगाकर रोने लगे। 'बेटी! तुम मझे छोड़कर कहाँ चली जा रही हो?' ऐसा कहकर सारे जगत्‌ को सूना मानते हुए वे बारंबार विलाप करने लगे। तब ज्ञानियों में श्रेष्ठ पुरोहित ने अन्य ब्राह्मणों के सहयोग से कृपापूर्वक अध्यात्म विद्या का उपदेश देते हुए सबको सुखद रीति से समझाया। पार्वती ने भक्ति-भाव से माता-पिता तथा गुरु को प्रणाम किया। वे महामाया होकर भी लोकाचार वश बार-बार रो उठती थीं। पार्वती के रोने से ही सब स्त्रियाँ रोने लगती थीं। माता मेना तो बहुत रोयीं। भौजाइयाँ भी रोने लगीं। यही दशा भाइयों की थी। शिवा की माँ, भाभियाँ तथा अन्य युवतियाँ बार-बार रोदन करने लगीं। भाई और पिता भी प्रेम और सौहार्दवश रोये बिना न रह सके। उस समय ब्राह्मणों ने मिलकर सबको आदरपूर्वक समझाया और यह सूचित किया कि यात्रा के लिये यही सबसे उत्तम तथा सुखद लग्न है।

तब हिमालय और मेना ने विवेकपूर्वक धैर्य धारण करके शिवा के बैठने के लिये पालकी मँगवायी, ब्राह्मणों की पत्नियों ने शिवा को उस पर चढ़ाया और सबने मिलकर आशीर्वाद दिया। पिता-माता और ब्राह्मणों ने भी अपनी शुभ कामना प्रकट की। मेना और हिमालय ने पार्वती को ऐसे-ऐसे सामान दिये, जो महारानी के योग्य थे। नाना प्रकार के द्रव्यों की शुभ राशि भेंट की, जो दूसरों के लिये परम दुर्लभ थी। शिवा ने समस्त गुरुजनों को, माता-पिता को, पुरोहित और ब्राह्णों को तथा भौजाइयों और दूसरी स्त्रियों को प्रणाम करके यात्रा की। पुत्रों सहित बुद्धिमान्‌ हिमाचल भी स्नेह के वशीभूत हो पीछे-पीछे गये और उस स्थान पर पहुंचे, जहाँ देवताओं सहित भगवान्‌ शिव प्रसन्नतापूर्वक प्रतीक्षा कर रहे थे। वहाँ सब लोग बड़े प्रेम और आनन्द से परस्पर मिले। उन सबने भगवान्‌ को प्रणाम किया और उनकी प्रशंसा करते हुए वे पुरी को लौट गए।

तदनन्तर कैलास पहुँचकर भगवान् शिव ने पार्वती से कहा – 'देवेश्वरि! तुम सदा से ही मेरी प्राणप्रिया हो। तुम्हें लीलापूर्वक इस बात की याद दिला रहा हूँ। तुम्हें पूर्वजन्म की बातों का स्मरण है। अतः मेरे और अपने नित्य सम्बन्ध का यदि तुम्हें स्मरण हो तो बताओ।' अपने प्राणनाथ महेश्वर की यह बात सुनकर शंकर की नित्य प्रिया पार्वती मुस्कराती हुई बोलीं – 'प्राणेश्वर! मुझे सब बातों का स्मरण है, किंतु इस समय आप चुप रहिये और इस अवसर के अनुरूप जो कार्य हो, उसी को शीघ्र पूर्ण कीजिये।'

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! प्रिया पार्वती के सैकड़ों सुधा-धाराओं के समान मधुर वचन को सुनकर लोकाचार परायण भगवान्‌ विश्वनाथ बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने बहुत-सी सामग्रियाँ एकत्र करके नारायण आदि देवताओं को भाँति-भाँति की मनोहर भोज्य वस्तुएँ खिलायीं। इसी तरह अपने विवाह में पधारे हुए दूसरे लोगों को भी भगवान्‌ शंकर ने प्रेमपूर्वक सुमधुर रस से युक्त नाना प्रकार का अन्न भोजन कराया। भोजन करने के पश्चात्‌ उन सब देवताओं ने नाना रत्नों से विभूषित हो अपनी स्त्रियों और सेवकगणों के साथ आकर प्रभु चन्द्रशेखर को प्रणाम किया। फिर प्रिय वचनों द्वारा प्रसन्नतापूर्वक उनकी स्तुति एवं परिक्रमा करके शिव-विवाह की प्रशंसा करते हुए वे सब लोग अपने अपने धाम को चले गये। मुने! साक्षात् भगवान् शिव ने लोकाचार वश भगवान् विष्णु को और मुझ को भी प्रणाम किया – ठीक उसी तरह, जैसे वामनरूपधारी श्रीहरि ने महर्षि कश्यप को नमस्कार किया था। तब मैंने और श्रीविष्णु ने शिव को हृदय से लगाकर उनको आशीर्वाद दिया। तदनन्तर श्रीहरि ने उन्हें परब्रह्म परमात्मा मानकर उनकी उत्तम स्तुति की। इसके बाद मेरे सहित भगवान् विष्णु शिव से विदा ले शिवा और शिव को प्रसन्नतापूर्वक हाथ जोड़ उनके विवाह की प्रशंसा करते हुए अपने उत्तम धाम को गये। भगवान् शिव भी पार्वती के साथ सानन्द विहार करते हुए अपने निवासभूत कैलास पर्वत पर रहने लगे। समस्त शिवगणों को इस विवाह से बड़ा सुख मिला। वे अत्यन्त भक्तिपूर्वक शिवा और शिव की आराधना करने लगे।

तात! इस प्रकार मैंने परम मंगलमय शिव-विवाह का वर्णन किया। यह शोकनाशक, आनन्ददायक तथा धन और आयु की वृद्धि करने वाला है। जो पुरुष भगवान् शिव और शिवा में मन लगाकर पवित्र हो प्रतिदिन इस प्रसंग को सुनता अथवा नियमपूर्वक दूसरों को सुनाता है, वह शिवलोक प्राप्त कर लेता है। यह अद्भुत आख्यान कहा गया, जो मंगल का आवास स्थान है। वह सम्पूर्ण विघ्नों को शान्त करके समस्त रोगों का नाश करने वाला है। इसके द्वारा स्वर्ग, यश, आयु तथा पुत्र और पौत्रों की प्राप्ति होती है। यह सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करता, इस लोक में भोग देता और परलोक में मोक्ष प्रदान करता है। इस शुभ प्रसंग को सुनने से अपमृत्यु का शमन होता है और परम शान्ति की प्राप्ति होती है। यह समस्त दूःस्वप्नों का नाशक तथा बुद्धि एवं विवेक आदि का साधक है। अपने शुभ की इच्छा रखने वाले लोगों को शिव सम्बन्धी सभी उत्सवों में प्रसन्नता के साथ प्रयत्नपूर्वक इसका पाठ करना चाहिये। यह भगवान् शिव को संतोष प्रदान करने वाला है। विशेषतः देवता आदि की प्रतिष्ठा के समय तथा शिवसम्बन्धी सभी कार्यों के प्रसंग में प्रसन्नतापूर्वक इसका पाठ करना चाहिये अथवा पवित्र हो शिव-पार्वती के इस कल्याणकारी चरित्र का श्रवण करना चाहिये। ऐसा करने से समस्त कार्य सिद्ध होते हैं। यह सत्य है, सत्य है। इसमें संशय नहीं है।

(अध्याय ५५)

।।रुद्रसंहिता का पार्वतीखण्ड सम्पूर्ण।।